ऐतिहासिक फैसला

भारतीय चुनाव आयोग को संवैधानिक रूप से अस्तित्व में आए अब तक 73 वर्ष का लम्बा समय हो गया है। इस समय के दौरान इसमें अलग-अलग पड़ावों पर बड़े बदलाव देखने को मिले। चुनाव आयोग ने समय-समय पर स्वयं भी अपनी कारगुज़ारी में सुधार किया है। कई बार बड़े फैसले लिए हैं। इस आयोग की लम्बी कारगुज़ारी की प्रशंसा की जाती रही है। कई बार इसके काम विवादों में भी घिरते रहे हैं परन्तु पूरे देश में लोकसभा एवं राज्यसभा चुनाव के अतिरिक्त प्रदेशों की विधानसभाओं तथा विधान परिषदों के चुनाव करवाने के साथ-साथ राष्ट्रपति तथा उप-राष्ट्रपति के चुनाव भी आयोग द्वारा ही करवाये जाते हैं।
इस पक्ष से देखा जाए तो मुख्य चुनाव आयुक्त तथा चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया संबंधी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए फैसले को ऐतिहासिक कहा जा सकता है। इससे पहले आयोग के चयन में तत्कालीन सरकार की ही बड़ी भूमिका होती थी। इस तरह की नियुक्तियों में कई बार विवाद भी उभरते रहे क्योंकि समय की सरकारें इस संवैधानिक संस्था के लिए अपने विशेष चहेतों को ही नियुक्त करती रही हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे विवादों को कम करने के लिए तथा इन महत्त्वपूर्ण पदों के चयन हेतु पारदर्शी ढंग अपनाने के लिए फैसला दिया है। इस फैसले के अनुसार मुख्य चुनाव आयुक्त तथा अन्य चुनाव आयुक्तों की चयन प्रक्रिया में प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्षी पार्टी का नेता तथा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश हिस्सा लेंगे। इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा है कि चुनाव आयुक्तों की चयन प्रक्रिया की संवैधानिक परिपक्वता के लिए संसद द्वारा इस संबंधी कानून बनाया जाना चाहिए ताकि चुनाव आयोग की नियुक्तियों की निष्पक्षता सुनिश्चित बनाई रखी जा सके। इससे पहले भी कई बार आयोग की कार्यशैली में बड़े सुधार किए गए थे। शुरू में एक ही मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त किया जाता था। उससे लम्बे समय के बाद वर्ष 1989 में दो और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का कानून बनाया गया था। मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने की प्रक्रिया सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की तरह ही होती है, जिसमें संसद के दोनों सदनों के दो तिहाई बहुमत से ही इस पद पर बिराजमान व्यक्ति को हटाया जा सकता है। इसके साथ ही यह प्रयास भी होता रहा है कि लोकतंत्र की मज़बूती के लिए सही तथा दबाव-रहित चुनाव करवाए जाएं। आयोग द्वारा राजनीतिक पार्टियों के लिए चुनावों के दौरान ‘मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट’ (चुनाव आचार संहिता) की घोषणा की जाती है। इस नियम को 1971 में बनाया गया था। इसी तरह 1989 में राजनीतिक पार्टियों की पहचान के लिए उन्हें रजिस्टर्ड करने की प्रक्रिया अपनाई जाने लगी।
भारत ही एक ऐसा देश है जिसमें पहचान पत्र के लिए मतदाता की तस्वीर का उपयोग किया जाने लगा है। इसी तरह वर्ष 1982 से इलैक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों (ई.वी.एम.) का उपयोग किया जाने लगा तथा 2015 में मतदाता को ‘नोटा’ (नन ऑफ दा अबव अर्थात उपरोक्त में कोई नहीं) का अधिकार भी दिया गया है, जिसमें वह किसी भी पार्टी के पक्ष में वोट न डालने का अधिकार रखता है। नि:सन्देह अब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मुख्य चुनाव आयुक्त तथा दो अन्य आयुक्तों की नियुक्ति के लिए चयन का नया तरीका अपनाने की व्यवस्था किए जाने से भारतीय लोकतंत्र में अधिक पारदर्शिता तथा मज़बूती आने की उम्मीद की जाएगी।


—बरजिन्दर सिंह हमदर्द