ज़रूरी है चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता

नई दिल्ली में एक विशाल कॉम्प्लेक्स में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की मुख्य शाखा है, लेकिन इसमें किसी बोर्ड या साइन से यह मालूम नहीं होता है कि चुनावी बांड यानि इलेक्टोरल बांड्स (ईबी) वास्तव में कहां से हासिल किये जा सकते हैं। मालूम किया तो पता चला कि ऊपरी मंज़िल पर सरकारी कामकाज होते हैं। वहां पहुंचने के बाद ऐसा कोई संकेत नहीं मिला कि चुनावी बांड कहां बेचे जाते हैं। वहां टहल रहे एक व्यक्ति से मदद मांगी तो उसने उस अधिकारी की डेस्क की तरफ  इशारा कर दिया, जिसे आधिकारिक तौर पर चुनावी बांड जारी करने का अधिकार प्राप्त है।
गौरतलब है कि देश में बैंक की 29 शाखाओं को चुनावी बांड जारी करने का अधिकार मिला हुआ है। इनके अतिरिक्त चुनावी बांड कहीं और से नहीं लिए जा सकते। बैंक की जो नई दिल्ली में मुख्य शाखा है, वह भी इन 29 शाखाओं में शामिल है। मार्च 2018 में चुनावी बांड की पहली श्रृंखला के लिए बिक्री खिड़की खोली गई थी। अत: चुनावी बांड को अब पूरे पांच साल हो गये हैं, जिससे यह जानना ज़रूरी हो गया है कि क्या इनसे वह उद्देश्य पूरा हो रहा है, जिसके लिए इन्हें लाया गया था? भारत में राजनीतिक दल जिस तरह से अपने लिए चंदा जुटाते हैं, वह हमेशा से ही संदेहास्पद रहा है। इसलिए चुनावी फंडिंग को साफ-सुथरा बनाने के मकसद से केंद्र सरकार ने 2 जनवरी, 2018 को चुनावी बांड स्कीम लाने की घोषणा की थी। पांच बड़े कानूनों—आरबीआई कानून 1934 की धारा 31, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 29-सी, आयकर अधिनियम 1961 की धारा 31-ए, कम्पनी कानून 2013 की धारा 182 और विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम 2010 की धारा 2(1) में संशोधन करके वित्त कानून 2017 के ज़रिये इस योजना को लाया गया था। लेकिन यह योजना जब से आयी है, तब से ही निरन्तर विवादों के घेरे में है। इसे ‘लोकतंत्र से खिलवाड़’ बताकर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी गई है। अब, लगभग दो साल बाद, सुप्रीम कोर्ट चुनावी बांड पर फिर से सुनवाई करने जा रही है।
चुनावी बांड क्या हैं? संक्षेप में पहले इसे समझना ज़रूरी है। ये बांड एक हज़ार रुपये से लेकर एक करोड़ रुपये तक की तय राशि के रूप में निर्धारित समय के लिए जारी किये जाते हैं, जिन पर ब्याज नहीं मिलता है। इन्हें समय-सीमा के भीतर कुछ खास सरकारी बैंकों से ही खरीदा जा सकता है। भारत के आम नागरिकों और कम्पनियों को यह इजाज़त है कि वे ये बांड खरीद कर राजनीतिक पार्टियों को चंदे के रूप में दे सकते हैं। दानकर्ता का नाम ही नहीं बल्कि वह किस दल को यह बांड देगा, इसकी जानकारी भी गुप्त रखी जाती है। दान मिलने के 15 दिन के भीतर राजनीतिक पार्टियों को बांड्स भुनाने पड़ते हैं और इसकी सूचना चुनाव आयोग को देनी होती है। चुनावी बांड के माध्यम से केवल वही पंजीकृत राजनीतिक दल चंदा ले सकते हैं, जिन्होंने पिछले संसदीय या विधानसभा चुनाव में कम से कम एक प्रतिशत वोट हासिल किया हो। 
चुनावी बांड की 25वीं श्रृंखला की बिक्री इस साल 19 से 28 जनवरी तक खुली थी। एक अंग्रेज़ी दैनिक ने आरटीआई द्वारा जो सूचना प्राप्त की, उसके अनुसार 1000 रुपये कीमत के केवल 97 चुनावी बांड खरीदे गये हैं, जबकि मार्च 2018 से जनवरी 2023 तक 12,008.59 करोड़ रुपये मूल्य के कुल 21,171 बांड्स बिके हैं, जिनमें से राजनीतिक पार्टियों ने 11,984.91 करोड़ रुपये मूल्य के 21,003 बांड्स ही कैश कराये हैं। वित्त वर्ष 2017-18 से 2021-22 के दौरान अज्ञात दानकर्ताओं ने कुल 9,208.23 करोड़ रुपया राजनीतिक दलों को दिया, जिसमें से आधे से अधिक (5,271.97 करोड़ रुपया) भाजपा को मिला और इसके बाद कांग्रेस (952.29 करोड़ रुपया), टीएमसी (767.88 करोड़ रुपया), एनसीपी (51.15 करोड़ रुपया) और शेष अन्य दलों को मिला। माकपा, भाकपा, बसपा व एनपीपी (जो 2019 में राष्ट्रीय पार्टी बनी) ने चुनावी बांड मिलने की कोई घोषणा नहीं की। 
दानकर्ताओं ने सबसे ज्यादा दिलचस्पी एक करोड़ रुपये मूल्य के सबसे बड़े बांड में दिखायी। इससे यह अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है कि इन्हें रईस या बड़ी कम्पनियां ही खरीद रही होंगी। चुनावी बांड खरीदने के लिए आवेदन के साथ आवश्यक दस्तावेज़ की कापी भी देनी होती है, इसके बाद बैंक की वेबसाइट से पे-इन स्लिप डाउनलोड की जा सकती है, जिस पर खरीदने वाले का नाम, आधार कार्ड व पैन कार्ड की जानकारी भी होती है। यह बैंक स्टेटमेंट के रूप में दान का सबूत होती है। दान देने का तरीका और किन दस्तावेज़ की ज़रूरत है, यह सब बैंक की वेबसाइट पर होना चाहिए, लेकिन नहीं है। शाखा में बैठे संबंधित अधिकारी ने यह प्रक्रिया समझायी और बताया कि अधिकतर दानकर्ता बार-बार आने वाले ही होते हैं, जो दान प्रक्रिया से परिचित होते हैं, इसलिए उन्हें इंतज़ार करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। 
लेकिन गोपनीयता की ज़रूरत क्यों हैं? संदेहास्पद दान को तो पारदर्शिता से ही रोका जा सकता है। यही वजह है कि एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने चुनावी बांड की पारदर्शिता को लेकर ही याचिका दायर की हुई है, जिसमें आग्रह किया गया है कि चुनावी बांड पर रोक लगायी जाये या इस प्रक्रिया में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए दानदाता का नाम सार्वजनिक किया जाये। दरअसल, भले ही जनता को मालूम न हो कि किस कम्पनी ने किस दल को दान दिया है, लेकिन अंदरूनी तौर पर राजनीतिक दल तो इनके नाम से वाकिफ  होते ही हैं। इसके अलावा दानदाता व चंदा प्राप्त करने वाली पार्टी, दोनों ही आरबीआई को रिपोर्ट करते हैं, जो किसी न किसी रूप में केंद्र सरकार के ही अधीन है। इसलिए सत्तारूढ़ दल के लिए यह जानना आसान हो जाता है कि किन कम्पनियों ने विपक्षी दलों को चंदा दिया है, जिससे ये कम्पनियां बदले की भावना का शिकार हो सकती हैं। 
ध्यान रहे कि विधि आयोग ने अपनी 255वीं रिपोर्ट में कहा था कि चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता न होना बड़े  दानकर्ताओं द्वारा सरकार को ‘कैप्चर’ करने जैसा लगता है। चुनावी दान भ्रष्टाचार का बड़ा स्रोत है। इस भ्रष्टाचार पर विराम इसी तरह से लग सकता है कि एक राष्ट्रीय चुनावी कोष का गठन किया जाये, जिसमें सभी दान कर सकते हैं। इस चंदे को सभी राजनीतिक दलों में उन्हें मिलने वाले वोटों के अनुपात में वितरित कर देना चाहिए। इससे दानकर्ताओं की पहचान भी सुरक्षित रहेगी और राजनीतिक चंदे में काले धन पर भी विराम लगेगा।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर