स्वस्थ लोकतंत्र के लिए आशा की किरण सुप्रीम कोर्ट का निर्णय

भारत का चुनाव आयोग संवैधानिक संस्थान है। जिस समय देश के लिए कानून बन रहे थे, उस समय डा. अम्बेडकर की अध्यक्षता में बनी कमेटी में पहले यह प्रस्ताव आया था कि चुनाव आयोग सरकार का ही एक विभाग होगा, परन्तु डा. अम्बेडकर ने इसका सख्त विरोध किया और इसे संवैधानिक संस्थान बनाया। कई वर्ष पहले चुनाव आयोग की पहचान उस समय बनी जब टी.एन. शेषण मुख्य चुनाव आयुक्त थे। उससे पहले अधिकतर लोग चुनाव आयोग के बारे में जानते ही नहीं थे। चुनाव के बारे में पता था। वोट डालने सभी जाते, चुनावों से पहले अपने-अपने उम्मीदवार के पक्ष में जलसे करते, नारे लगाते पर चुनावी प्रक्रिया कैसे चल रही है या कैसे चलनी चाहिए, इस विषय में आम भारतीय नहीं जानता था। टी.एन. शेषण का नाम पूरे भारत ने सुना। उसके बाद सरकारें हर पांच वर्ष बाद नया चुनाव आयुक्त चुनतीं। सदस्य भी चुने जाते और इस चयन प्रक्रिया पर तथा चुनाव आयोग पर बहुत अंगुलियां उठती थीं और कई प्रश्नचिन्ह चुनाव आयोग को घेरते रहे। अधिकतर विपक्षी दल चुनाव आयोग के कामकाज में पक्षपात का आरोप लगाते थे। अब एक अच्छा कार्य हुआ, जो कि बहुत पहले होना चाहिए था। 
सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों पर आधारित पीठ ने यह निर्णय दिया कि चुनाव आयोग की निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष का नेता और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एक सूची राष्ट्रपति को भेजेंगे जिसमें से वह किसी एक को मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त करेंगे। यही प्रक्रिया चुनाव आयोग के अन्य सदस्यों के लिए भी होगी। सबसे अच्छा तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने यह भी कहा कि अब मुख्य चुनाव आयुक्त या किसी भी आयुक्त को समय से पूर्व नहीं हटाया जा सकता और उन पर कोई राजनीतिक दबाव नहीं रहेगा। सुप्रीम कोर्ट ने सर्वसम्मत निर्णय में चुनाव प्रक्रिया में निष्पक्षता सुनिश्चित करते हुए कहा कि लोकतंत्र लोगों की इच्छा से जुड़ा होता है। 
कोर्ट ने अपने निर्णय पर बल देते हुए कहा कि भारत का निर्वाचन आयोग स्वतंत्र व निष्पक्ष तरीके से काम करने के लिए बाध्य है और उसे संवैधानिक ढांचे के भीतर कार्य करना चाहिए। याद रखना होगा कि कुछ समय पूर्व शीर्ष अदालत ने पूर्व आईएएस अधिकारी अरुण गोयल को निर्वाचन आयुक्त नियुक्त करने में केंद्र द्वारा दिखाई गई जल्दबाजी पर सवाल उठाते हुए कहा था कि उनकी फाइल 24 घंटों में बिजली की गति से पास हो गई। यद्यपि केंद्र सरकार ने शीर्ष अदालत की टिप्पणियों का ज़ोरदार विरोध किया और अटार्नी जनरल आर. वेंकटरमण ने तर्क दिया था कि उनकी नियुक्ति से संबंधित पूरे मामले को सम्पूर्णता से देखने की ज़रूरत है।
कौन नहीं जानता कि चुनाव आयोग विधानसभा और लोकसभा चुनावों में जो खर्च की सीमा तय करता है, वह केवल कागज़ों तक सीमित है। अगर चुनाव आयोग आंखें मूंद ले और लोग चुनावों में करोड़ों रुपये खर्च करते जाएं तो इसके लिए दोषी कौन है? कानून का पालन करने के लिए या कानून की नाक बचाने के लिए हर विधानसभा या संसदीय क्षेत्र में चुनाव आयोग उम्मीदवारों के खर्च पर नज़र रखने के लिए अधिकारी भेजते हैं, पर कौन कह सकता है कि जितना खर्च निर्धारित किया गया है, केवल उतना खर्च करके ही चुनाव लड़े जाते हैं। सत्य तो यह है कि भारत में 99 प्रतिशत से ज्यादा ऐसे उम्मीदवार हैं जो विधायक या सांसद के चुनाव में निश्चित सीमा से ज्यादा खर्च करते हैं, फिर भी उनके द्वारा भेजे खर्च विवरण को चुनाव आयोग स्वीकार कर लेता है। पूरे भारत में संसद के जब चुनाव हो जाएं और हज़ारों लोग चुनाव लड़ लें तो कुछ केस ही चुनाव आयोग के पास जाएंगे जिनमें खर्च ज्यादा करने के आरोप लगे होते है और साबित शायद एक प्रतिशत भी नहीं होते। कौन नहीं जानता कि ऐसी शिकायत करने वाले अधिकतर हारने वाले उम्मीदवार ही होते हैं। जब तक चुनाव आयोग के चयन में राजनीतिक प्रभाव रहेगा और आयुक्तों को कभी भी हटाए जाने का डर बना रहेगा, तो वे निष्पक्ष कार्य कैसे करेंगे? यह यक्ष प्रश्न है। 
अब एक आशा की किरण पूरे देश को दिखाई दे रही है। जिन लोगों के पास सत्ताबल, धनबल या बाहुबल नहीं है शायद वे भी अब चुनाव लड़ सकेंगे और आशा यह रखी जानी चाहिए कि चुनावी खर्च पर दृष्टि रखने के उद्देश्य से चुनाव आयोग जिन अधिकारियों को भेजता है, उन्हें वह सब दिखाई देगा जो उन्हें देखना चाहिए। जितनी धनराशि चुनाव लड़ने के लिए तय की जाती है, उससे ज्यादा की तो शराब पिला दी जाती है और सड़कों पर होर्डिंग्स लगते हैं। उनकी कीमत ही अगर यह एक्सपेंडीचर विशेषज्ञ देख लें तो पता चल जाता है कि कितना खर्च चुनाव पर हो रहा है। वैसे सत्ता पक्ष सरकार में रहते या विरोधी पार्टी यह घोषणा करती है कि चुनाव जीतने के बाद लैपटाप, स्कटी, साइकिल आदि दिए जाएंगे, लेकिन वे अपनी पार्टी के पैसे से नहीं देते अपितु सरकारी कोष से देते हैं। आखिर ऐसा क्यों? एक पार्टी जनता को आकर्षित करने के लिए सब्ज़बाग दिखाए और जीत जाए तो जनता द्वारा दिए टैक्सों के पैसे का दुरुपयोग करे, इसे उचित नहीं कहा जा सकता और दल बदलुओं के कारण तो लोकतंत्र वैसे भी बदनाम हो रहा है। बहुत अच्छा हो अगर चुनाव आयोग ऐसा निर्णय दे कि जो दल बदलते हैं या जो सरकारी अधिकारी सेवा में रहते हुए अपने आकाओं को खुश करके सेवामुक्त होते ही उच्च पद प्राप्त कर लेते हैं, उनको भी नियंत्रित किया जाए। दल बदलू नेता नई पार्टी में कम से कम तीन वर्ष तक कोई चुनाव न लड़ सके।