लोकतंत्र से खिलवाड़ है संसद की बार-बार ठप्प होती कार्यवाही

 

होली के बाद शेष बजट सत्र की शुरुआत 13 मार्च, 2023 से हुई लेकिन 17 मार्च, 2023 की सुबह तक संसद की कार्यवाही बार-बार ठप्प की गई। सत्तापक्ष व विपक्ष लगातार अपनी-अपनी ज़िद पर अड़े रहे। लोकतंत्र के लिए यह घातक है। दर्जनों महत्वपूर्ण बिल जो पास किये जाने हैं, वे अटके हुए हैं। हंगामे व नारेबाज़ी के बीच इंटर-सर्विसेज (कमांड, कंट्रोल एंड डिसिप्लिन) बिल, 2023 अवश्य पेश किया गया, लेकिन उसके बाद लोकसभा को दिन के लिए स्थगित कर दिया गया। राज्यसभा में भी ऑस्कर जीत पर पक्ष व विपक्ष ने फिल्म निर्माताओं को बधाइयां तो दीं, लेकिन बाद में कोई कार्य किये बिना कार्यवाही हंगामे की भेंट चढ़ गई। संसद का न चलना न केवल सांसदों की गैर-ज़िम्मेदारी है, बल्कि लोकतंत्र से भी खिलवाड़ है।
मौजूदा गतिरोध के दो कारण हैं—एक, सरकार व सत्तारूढ़ दल की मांग है कि राहुल गांधी की उनकी इंग्लैंड में दी गई ‘लोकतंत्र खतरे में’ टिप्पणी पर माफी चाहिए और दूसरा, विपक्ष की मांग है कि अडानी समूह की तथाकथित स्टॉक अनियमितताओं की जांच करने के लिए संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) का गठन किया जाये। भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने ‘संसद की गंभीर अवमानना’ का आरोप लगाते हुए राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता निरस्त करने की मांग की और इस संदर्भ में रूल्स ऑफ प्रोसीजर एंड कंडक्ट ऑफ बिज़नेस इन लोकसभा के नियम 223 के तहत नोटिस दिया। इससे पहले भी उन्होंने लोकसभा स्पीकर ओम बिड़ला को पत्र लिखकर आग्रह किया था कि राहुल गांधी की सदस्यता निरस्त करने पर विचार करने हेतु विशेष समिति का गठन किया जाये। अपने पहले पत्र में दुबे की आपत्ति यह थी कि राष्ट्रपति के सम्बोधन पर वोट ऑफ थैंक्स के दौरान राहुल गांधी ने प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध ‘अनुचित’ टिप्पणी की थी। अपने दूसरे पत्र में दुबे की आपत्ति यह है कि कैंब्रिज यूनिवर्सिटी, चौथम हाउस व अन्य जगहों पर बोलते हुए राहुल गांधी ने गलत बयानबाज़ी की कि ‘भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर गंभीर खतरा है और संसद, प्रेस व न्यायपालिका जैसी संस्थाओं पर दबाव डाला जा रहा है’।
दुबे का यह भी आरोप है कि राहुल गांधी ने ‘भारत के राज्यों की यूरोप के स्वतंत्र देशों से तुलना की’। दूसरी ओर कांग्रेस का कहना है कि अडानी मामले से ध्यान भटकाने के लिए भाजपा राहुल गांधी के खिलाफ झूठ पर आधारित सुनियोजित अभियान चला रही है। उसके अनुसार अपनी हाल की लंदन यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने न तो विदेशी हस्तक्षेप की मांग की और न ही भारतीय लोकतंत्र के विरुद्ध कुछ बोला। ओवरसीज कांग्रेस के अध्यक्ष सैम पित्रोदा के अनुसार, ‘झूठ को फैलाना बंद कीजिये। राहुल गांधी ने बुनियादी तौर पर यह कहा था कि भारतीय लोकतंत्र सार्वजनिक भलाई के लिए है। भारत में लोकतंत्र चिंता का विषय है, लेकिन यह भारतीय समस्या है और हम इसका स्वयं समाधान निकालेंगे। उन्होंने मदद के लिए किसी बाहरी देश को आमंत्रित नहीं किया। मीडिया के सहयोग से झूठ व गलत सूचनाओं पर आधारित सुनियोजित व्यक्तिगत हमले का औचित्य क्या है? क्या भारतीय लोकतंत्र का अर्थ केवल यही है? क्या राजनीतिक वार्ता में शालीनता शेष नहीं रही है?’ ध्यान रहे कि विपक्षी नेता सदन में प्लेकार्ड्स लेकर पहुंचे जिन पर प्रधानमंत्री मोदी के विदेशों में दिए गये बयान लिखे हुए थे।
दरअसल, सत्तारूढ़ भाजपा को राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता निरस्त करने के लिए विशेष समिति चाहिए और विपक्ष को अडानी मामले में संयुक्त संसदीय समिति चाहिए ताकि मालूम हो सके कि अडानी समूह कैसे पिछले आठ साल में 8 बिलियन डॉलर से 140 बिलियन डॉलर का हो गया। दोनों पक्ष और विपक्ष को समितियां चाहिए, लेकिन महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा करने के लिए संविधान ने जो संसद का मंच दिया है, उसे नहीं चलने देना है, चाहे जनता के पैसे का कितना ही नुकसान क्यों न हो जाये। 
संसद सत्र के दौरान गतिरोध क्यों उत्पन्न होता है? जैसा कि ऊपर की बहस से स्पष्ट है, सरकार व विपक्ष दोनों एक-दूसरे को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराते हैं। इन आरोप-प्रत्यारोपों के समर्थन व विरोध में खुलकर बहस की जा सकती है, लेकिन तथ्य यह है कि पिछले 60 वर्षों के दौरान संसद की बैठकों में निरन्तर कमी आयी है। 1962 में संसद की लगभग 150 बैठक हुई थीं जो 2022 में घटकर मात्र 56 रह गईं। 2022 में सत्र समय पूर्व खत्म करने के कारण 36 नियोजित बैठकें नहीं हुईं। दूसरे शब्दों में इसका अर्थ यह है कि एक तो पहले से ही कम बैठकें निर्धारित की गई थीं यानी साल में मात्र 92 और उनमें से भी 36 बैठकों को कम कर दिया। यह स्थिति लोकतंत्र के लिए अच्छी नहीं है बल्कि इसे जनता के साथ धोखा कहना गलत नहीं होगा। पिछले कुछ वर्षों के दौरान सभी संस्थाएं कमज़ोर हुई हैं या उन्हें कमज़ोर किया गया है। आम आदमी को एकमात्र उम्मीद संसद से ही रह गई थी कि उससे संबंधित मुद्दों पर विस्तृत चर्चा होगी और कुछ उसके हित में भी फैसले हो सकते हैं। लेकिन जब संसद की बैठकें ही नहीं होंगी तो कोई मुद्दा कैसे उठेगा। अगर सांसदों को साल के 365 दिनों में मात्र 56 दिन ही सदन में बैठना है तो उन्हें चुनने या फिर वेतन व भत्तों में लाखों रुपये मासिक देने का औचित्य ही क्या है?
बहरहाल, सवाल यह है कि संसद की बैठकें निरन्तर कम क्यों होती जा रही हैं? इसका यह जवाब उचित नहीं लगता कि विपक्ष संसद चलने नहीं देता। आज तो विपक्ष बहुत कमज़ोर है, सदन में भी उसके अधिक सदस्य नहीं हैं, अगर सांसद किसी मुद्दे पर वाकआउट भी कर जाते हैं, तो भी सदन को चलाया जा सकता है। तो क्या महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा से बचने के लिए सरकार सदन की कम बैठकें कर रही है? अगर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की बात मानी जाये तो यही बात सही लगती है। संक्षेप में बात केवल इतनी है कि सभी सांसद अपनी इस ज़िम्मेदारी को समझें कि सदन चर्चा के लिए है, मुद्दों व नीतियों पर बात करने के लिए है, कानूनसाज़ी के लिए है, न कि बहिष्कार, नारेबाज़ी या प्लेकार्ड्स के लिए। यह बात वे खुद नहीं समझते तो जनता को उन्हें समझना होगा, क्योंकि पैसा तो जनता का ही बर्बाद हो रहा है।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर