नियमों को दरकिनार कर बिना चर्चा पारित कर दिया गया बजट

संसद में गत 24 मार्च को वरिष्ठ कांग्रेस नेता राहुल गांधी को लोकसभा की सदस्यता से अयोग्य घोषित करने के साथ इसी दिन एक और अनोखा घटनाक्रम देखने को मिला। स्वतंत्र भारत के 75 वर्षों के इतिहास में पहली बार बजट के प्रावधानों पर बिना बहस या चर्चा के उसे पारित किया गया। इस क्रम में केंद्रीय बजट के पारित होने से जुड़े सभी नियमों को दरकिनार कर दिया गया। पिछले कुछ दिनों के हंगामे और भ्रम के बीच ट्रेजरी बेंच के सदस्यों तथा विपक्षी सदस्यों दोनों ने क्रमश: राहुल गांधी से माफी मंगवाने तथा संयुक्त संसदीय जांच के लिए अपनी-अपनी मांगें उठायीं। बजट प्रावधानों पर सदस्यों द्वारा कभी चर्चा नहीं की गयी। संसद तो पहले बजट में किये गये विभिन्न प्रस्तावों पर चर्चा और जांच करती है और उसके बाद ही इसे पारित किया जाता है।
शोरगुल के शोर-शराबे के बीच बजट को सत्ता पक्ष द्वारा ध्वनि मत से पारित कर दिया गया था। यह अभूतपूर्व है। केंद्रीय बजट जिसमें आगामी वित्तीय वर्ष के लिए 45 लाख करोड़ रुपये का सरकारी व्यय शामिल है, को बिना किसी परीक्षा के मंजूरी दे दी गयी। जो भी हो पिछले 75 वर्षों में पूरे बजट सत्र में केंद्रीय बजट पारित करने के लिए बहुत विशिष्ट प्रक्रियाएं और परम्पराएं सामने आयी हैं। पूरा बजट सत्र दो भागों में होता था— एक वित्त मंत्री द्वारा बजट पेश किए जाने के तुरंत बाद शुरू होता था, दूसरा भाग संसद के लिए एक संक्षिप्त अवकाश के बाद शुरू होने का प्रावधान था जब अन्य प्रथाओं का पालन किया जाता था।
बजट की प्रस्तुति और बजट की प्रारंभिक चर्चा के बाद संसद में अवकाश की व्यवस्था है। अवकाश की अवधि के दौरान प्रत्येक मंत्रालय से जुड़ी संयुक्त संसदीय समिति सभी प्रमुख मंत्रालयों के व्यय के प्रस्तावों पर विचार करती है।
इसके बाद बजट प्रावधानों और प्रस्तावों पर वर्तमान संसद द्वारा चर्चा की जाती है और बहस के दौरान अलग-अलग मंत्रालयों के लिए बजट को संसद द्वारा मंजूरी दी जाती है। बजट की चर्चा के दौरान वित्त मंत्री और अन्य मंत्री अक्सर अपने विचारों और प्रस्तावों को स्पष्ट करते हैं।
मध्यवर्ती प्रक्रियाओं का पालन करते हुए ट्रेजरी बेंच और विपक्ष दोनों के सदस्य बजट पर अपनी राय रखते थे। प्राय: अनुभव के आलोक में कहा जा सकता है कि प्रस्तावित बजट में बहुत आमूल परिवर्तन का सुझाव दिया जाता रहा है। उदाहरण के लिए यशवंत सिन्हा द्वारा पेश किये गये एक बजट में कराधान और कई अन्य उपायों से संबंधित सभी प्रमुख प्रस्तावों को संबंधित क्षेत्रों की आलोचनाओं के कारण वापस ले लिया गया था। बजट भाषण में प्रावधानों के विस्तृत विश्लेषण से इन प्रस्तावों के नकारात्मक प्रभाव का पता चला था। एक अन्य अवसर पर पी. चिदंबरम ने कड़ी आलोचना के कारण अपने कई प्रस्तावों को बदल दिया था। चिदंबरम अपने बजट प्रस्तावों का बचाव करने वाले सबसे आक्रामक वित्त मंत्रियों में से एक थे। चर्चा और कार्यवाही एक तरह से वित्त मंत्री द्वारा बजट को स्वामित्व प्रदान करती थी और साथ ही बजट के प्रस्तावक यानी वित्त मंत्री की छाप भी ले जाती थी।
1991 में डॉ. मनमोहन सिंह का पहला बजट उनके द्वारा पेश किये गये व्यापक सुधारों के लिए देश की स्मृति में हमेशा बना रहेगा। डॉ. सिंह ने के बजट प्रस्तुति की सबसे बड़ी शान वह पंक्ति थी जिसे उन्होंने कहा था कि अब भारत के लिए आर्थिक सुधार का समय आ गया है।
वास्तव में 1991 के सुधारों के बाद भारत विकास के एक नये रास्ते पर चल पड़ा था। यह इतना तेज़ था कि वर्ष के अंत से पहले भारत ने वस्तुत: उस मूल मुद्दे पर काबू पा लिया था जिसकी शुरुआत विदेशी मुद्रा भंडार की कमी के कारण भारत के समक्ष विदेशी मोर्चे पर खतरा उत्पन्न हो गया था। 
आज भारत का खज़ाना आधा खरब डॉलर से अधिक है और वैश्विक वित्तीय उथल-पुथल के बावजूद  देश के लिए पर्याप्त सहारा प्रदान करता है। केंद्रीय बजट की प्रस्तुति के प्रत्येक मामले में प्रावधानों और प्रस्तावों की चर्चा के दौरान वित्त मंत्री बजट के स्वामित्व की जिम्मेदारी लेते हैं। हर बजट उसे पेश करने वाले वित्त मंत्री का होता है लेकिन पिछले दिनों पारित बजट के मामले में बजट का कोई स्वामित्व नहीं दिखता है। वित्त मंत्री ने दावा किया कि यह उनका बजट था और सदस्यों से इसे सुचारू रूप से पारित करने के लिए कहा। बजट सरासर ताकत के बल पर पारित किया गया था। सरकार के इस बजट को पारित करने का अधिकार तो लोक सभा के पास ही होता है। (संवाद)