क्या यही औद्योगिक विकास है ?

आज़ादी के अमृत काल में भी ऐसा लगता है कि देशवासी ऐसे युग में जी रहे हैं जहां रेत, राख, आंधी, धूल के बवंडर जहां भी जाओ, उठते ही रहते हैं। आस-पास नदी हो तो उसमें नहाना तो दूर उसका पानी पीने से भी डर लगता है। खुली हवा में सांस लेने का मन करे तो धुएं से दम घुटता सा महसूस होता है और आराम से कुछ खाने की इच्छा हो तो मुंह में अन्न के साथ रेतीला स्वाद आए बिना नहीं रहता।
औद्योगिक विनाशलीला
यह स्थिति किसी एक प्रदेश की नहीं बल्कि पूरे भारत की है जहां उद्योग स्थापित हैं और जिनकी संख्या दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ रही है। अब क्योंकि हम औद्योगिक उत्पादन में विश्व का सिरमौर बनना चाहते हैं, तो इसके लिए किसी भी चीज़ की बलि दी जा सकती है, चाहे सेहत या सुरक्षा हो, खान-पान या रहन-सहन हो।
मज़े की बात यह है कि इन सब के लिए भारी भरकम नियम, कायदे-कानून हैं जिन्हें पढ़ने, देखने और समझने की ज़रूरत तब पड़ती है जब कोई हादसा हो जाता है और धन सम्पत्ति नष्ट होती है तथा बड़ी संख्या में लोगों की जान चली जाती है। उसके बाद लम्बी अदालती प्रक्रिया और मुआवज़े का दौर चलता है।
एक अनुभव
वैसे तो लेखन और फिल्म निर्माण के अपने व्यवसाय के कारण अक्सर दूर दराज से लेकर गांव-देहात, नगरों और महानगरों और बहुत प्रचारित स्मार्ट शहरों में आना-जाना होता रहता है, लेकिन इस बार जो अनुभव हुआ उसे पाठकों के साथ बांटने से यह उम्मीद है कि शायद सरकार और प्रशासन की नींद खुल सके। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा से जुड़ा एक क्षेत्र है जिसमें सिंगरौली, रॉबर्ट्सगंज, शक्ति नगर और समीपवर्ती इलाके आते हैं। यहां पहुंचने के लिए वाराणसी से सड़क मार्ग से जाना था। हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले कुछ वर्षों में सड़कों की हालत में बहुत सुधार हुआ है, पक्की सड़कें बनी हैं, हाईवे पहले से ज्यादा सुविधाजनक है, लेकिन कुछ स्थानों पर ज़बरदस्त जाम और अनियंत्रित यातायात से भी जूझना पड़ता है।
यह क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों से मालामाल है और यहां खनिज संपदा की बहुतायत है। जंगल का क्षेत्र भी है जहां कभी लूटपाट से लेकर हत्या तक होने का डर लगा रहता था।  इस पूरे क्षेत्र में औद्योगिक गतिविधियों के कारण बहुत कुछ बदला है, नई बस्तियां बसी हैं, टाउनशिप का निर्माण हुआ है और ज़रूरी सुविधाओं का विकास हुआ है।
उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र में सरकारी और निजी औद्योगिक संस्थान लगाना फायदे का सौदा रहा है और इसी के साथ गैर-कानूनी खनन और तस्करी उद्योग भी बहुत तेज़ी से पनपा है। उदाहरण के लिए स्टोन क्रशर अनधिकृत रूप से कब्जाई ज़मीन पर धड़ल्ले से चल रहे हैं। पत्थरों की कटाई और पिसाई से निकला रेत इनकी कमाई का बहुत वड़ा साधन है। अब इसका दूसरा पक्ष देखिए। आप सड़क से जा रहे हैं, अचानक ऊपर कुछ धुंध और बादलों के घिरने का एहसास होता है और गाड़ी के शीशे खोलकर या बाहर निकलकर ताज़ी हवा में सांस लेनी चाही तो ऐसा लगा कि दम घुट जाएगा। क्रशरों से निकलता शोर कान के पर्दे फाड़ सकने की ताकत रखता है। नाक की गंध और मुंह का स्वाद धूल मिट्टी और रेत फांकने जैसा हो जाता है। अनुमान लगाइए कि ऐसे में जो मज़दूर और दूसरे लोग यहां काम करने आते हैं, उनका क्या हाल होता होगा? पूछने पर पता चला कि यह इलाका घोर गरीबी के चंगुल में है और गांव के गांव वीरान होते जा रहे हैं। बंधुआं मज़दूरी की प्रथा देखनी हो तो यहां मिल सकती है।  कमाल की बात यह है कि जो मालिक है, वह दनादन अमीर होता जाता है क्योंकि वैध या अवैध, खनन में मुनाफा बहुत है। यहां कोयले से बिजली पैदा करने वाले थर्मल पॉवर प्लांट हैं। घरों को रौशनी से नहलाने के साथ-साथ इनसे निकलने वाला धुआं और राख लोगों की ज़िंदगी कम करने में एक विशाल दैत्य की भूमिका निभा रहे हैं। डायबिटीज, ब्लड प्रेशर, लगातार रहने वाली खांसी और बुखार यहां के निवासियों की दिनचर्या का अंग बन चुके हैं।
नौकरीपेशा अपना तबादला करवा सकते हैं लेकिन स्थानीय आबादी कहां जाए, उसे तो यहीं रहना और जीना मरना है। स्वास्थ्य सुविधाएं इतनी नाकाफी हैं कि स्त्रियों को प्रसव के लिए दो तीन सौ किलोमीटर दूर वाराणसी और अन्य शहरों में रेफर कर दिया जाता है। यदि सरकारी और निजी संस्थानों द्वारा अपने कर्मचारियों के लिए बनाई गई टाउनशिप में अस्पताल और डिस्पेंसरी तथा दवाईयों की सुविधा पूरे क्षेत्रवासियों के लिए न हो तो लोग कैसे ज़िंदा रहेंगे, इसकी केवल कल्पना की जा सकती है।
क्या किया जा सकता है?
औद्योगिक विकास की गति को कम करना देश की अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदेह हो सकता है लेकिन कुछ ऐसे उपाय तो किए ही जा सकते हैं जिनसे जीवन पर विनाशकारी प्रभाव कम से कम पड़े। इन उपायों में सबसे पहले नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूलन के अंतर्गत बने नियमों और आदेशों का कड़ाई से पालन अनिवार्य है।  उदाहरण के लिए जब यह तय है कि स्वास्थ्य और सुरक्षा की दृष्टि से खतरनाक उद्योग घनी आबादी के इलाकों में लग ही नहीं सकते तो फिर रिहायशी इलाकों में क्यों इनकी भरमार है? इसके साथ ही जब नियम है कि सेफ्टी प्रावधानों के तहत किसी भी कर्मचारी, कामगरों और लोकल सप्लायरों का ज़रूरी सुरक्षा साधनों से लैस होकर आये बिना काम पर नहीं आया जा सकता तो फिर कदम-कदम पर इनकी अनदेखी क्यों देखने को मिलती है?
इससे भी ज्यादा ज़रूरी बात कि जब हमारे वैज्ञानिक संस्थानों ने आधुनिक टेक्नोलॉजी विकसित कर ली है तो उनका इस्तेमाल इन संस्थानों द्वारा क्यों नहीं किया जाता ताकि जल और वायु प्रदूषण के खतरों को कम किया जा सके?  क्या इन सभी औद्योगिक क्षेत्रों में रहने वाले करोड़ों लोगों के जीवन से खिलवाड़ किए जाने पर कोई रोक लग सकती है? ज़रा सोचिए।