अब सभी राज्यों की ज़रूरत बन गया है ‘क्लाइमेट बजट’ 

 

गत सप्ताह सरकार ने समिति बनाकर अचानक बढ़े  तापमान, बेमौसमी बारिश और ओलावृष्टि से गेहूं तथा तिलहन की फसलों के नुकसान का जायज़ा लिया। हानि के आकलन, सरकारी सलाह व सुझाव पर किसानों और आकलनकर्ताओं के बीच विभेद हो सकता है परन्तु यह तय है कि मौसम के अप्रत्याशित व्यवहार से कहीं जीरे, कपास, मक्के की फसल को नुकसान पहुंचा तो कहीं आम, लीची वगैरह की पैदावार में कमी की आशंका व्यक्त की गई। महज दो महीने के भीतर मौसम अथवा जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से देश के विभिन्न राज्यों में जन-धन की कितनी हानि हुई है, इसका सटीक आकलन कठिन है। पिछले पखवाड़े के समाचार दर्शाते हैं कि देश के विभिन्न राज्यों में बर्फबारी, वर्षा, ओलावृष्टि, असमय गर्मी, पश्चिमी विक्षोभ, मौसम के चलते मकानों की क्षति, मौसमी बीमारियों में बेतहाशा वृद्धि हुई है। भारत के दर्जन भर से ज्यादा राज्य जलवायु परिवर्तन से बुरी तरह प्रभावित होने वाले दुनिया के 100 चुनिंदा राज्यों में शामिल हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, असम, पंजाब जैसे नौ राज्य तो इस सूची में शीर्ष 50 में हैं। मतलब इन पर संकट आसन्न है। 
मौजूदा पर्यावरणीय कारक अगले तीन दशक के दौरान इन राज्यों का क्या हाल बना सकता है, इसी के मद्देनज़र क्रॉस डिपेंडेंसी इनिशिएटिव ने संसार के 2,600 राज्यों से पर्यावरणीय आंकड़े इकट्ठे कर यह रिपोर्ट बनाई है। देश के कई इलाके जलवायु परिवर्तन के शिकार हैं। सो, संबंधित राज्यों को समय रहते इससे पैदा होने वाले खतरों से निपटने की दिशा में ठोस पहल करनी चाहिए, लेकिन इस संदर्भ में विशेष चेतना तथा कार्य प्राथमिकता बहुत कम राज्यों में दिखती है। सबसे पहले यह चेतना सरकारी स्तर पर आनी चाहिए जिससे प्रभावी योजनाओं बनें, फिर अधिकारी के स्तर पर जिससे इन्हें सही और व्यापक तरीके से लागू किया जए और फिर जनता तक पहुंचाया जाए।
लगभग सभी राज्यों के पास कथित तौर पर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटने की ठोस योजनाएं हैं। बेशक कोई राज्य अधिक बारिश, ओलावृष्टि व बाढ़ से अधिक प्रभावित होता है तो कोई सूखे, लू, हिमपात, भूस्खलन से, किसी को कोई अन्य पर्यावरणीय परेशानी है, सबब यह कि राज्यों की नीतियां भी उनके अनुरूप बनाई गई हैं। मगर जलवायु परिवर्तन एक मूल कारण है और बाकी उसके लक्षण, प्रकार या विभेद। राज्यों को प्रकार और विभेदों से निपटने की रणनीति के साथ मूल समस्या से लड़ने की भी मज़बूत योजना बनानी होगी। लेकिन जलवायु परिवर्तन के खतरे के इतने नज़दीक आने के बावजूद ज्यादातर राज्य अपनी योजनाओं को लेकर बस कदमताल करते दिखते हैं। उन्हें अपने ही निर्धारित क्लाइमेट एजेंडा की गंभीरता के प्रति उदासीन देखा गया है। वन हरित क्षेत्र को दूने से ज्यादा बढ़ाना, राजस्व अभिलेखों में दर्ज तालाबों और सूख चुके जल स्रोतों को पुनर्जीवित करना, सिंगल यूज़ प्लास्टिक का प्राकृतिक वैकल्पिक समाधान देना, इनमें कितने राज्य सफल हो पाए हैं? रसायन एवं खाद्य उद्योग में बायोमास, कोयला, बिजली, गैस फीडस्टाक, हाईड्रोजन, रिफाइंड लिक्विड आदि की वास्तविक खपत विभिन्न उद्योंगों में जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल संबंधी आंकड़े और तय समय में उसकी कमी कौन आंक रहा है? 
ई-कचरा, बायोमेडिकल अपशिष्ट, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन के मामले में अधिकांश राज्यों का प्रदर्शन बहुत प्रशंसनीय नहीं है। स्मार्ट इंफ्रास्ट्रक्चर का निर्माण, जलवायु परिवर्तन से संबंधित जन-जागरूकता कार्यक्रम और शैक्षणिक संस्थानों में क्षेत्र की जैव विविधता पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पढ़ाना हो या मवेशियों, पालतू पशुओं पर इसके प्रतिकूल प्रभावों पर व्यापक शोध कराना, कौन-सा राज्य किस स्तर पर कर रहा है, यह सब जांचने पर निराशा ही हाथ लगेगी। भले आंकड़े बयानों व घोषणाओं में दिखें भी परन्तु अमृतकाल के दौरान इस क्षेत्र में जो कार्य होने चाहिए थे, वे नहीं हुए। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि पर्यावरण और जलवायु की दिशा में कार्य करने के लिए लंबे समय तक एक बड़ी धनराशि की आवश्यकता होती है। यह ऐसा क्षेत्र नहीं है कि महज चुनावी वर्ष में पैसा झोंककर आपेक्षिक परिणाम जनता को दिखा कर सियासी फायदा उठाया जा सके। मौसम की रंगत चमकीले भाषणों, गढ़े आंकड़ों और लुभावन घोषणाओं से नहीं बदली जा सकती। सो, नेशनल एडेप्टेशन फंड फॉर क्लाइमेट चेंज और ग्रीन क्लाइमेट फंड के अलावा अन्य आर्थिक सहायता प्रदान करने वाली संस्थाओं से सहायता लेने भर से काम नहीं चलेगा। केंद्र और राज्य सरकारों को अपने बजट में इसके लिए अलग प्रावधान नहीं बल्कि इसके प्रभाव, हर क्षेत्र तक इसके विस्तार तथा समय की मांग को देखते हुए इसके लिये एक अलग बजट बनाना होगा। 
इस बजट के द्वारा विभिन्न पर्यावरणीय क्षेत्रों में पर्याप्त निधि आवंटन के साथ ठोस काम भी करना होगा। वित्तपोषण के अभाव में अनेक विकास प्राथमिकताओं और जलवायु कारवाई में एक साथ संतुलन बना पाना सम्भव नहीं है। आगे बढ़ाने का एकमात्र रास्ता है जलवायु वित्तपोषण। मौसम विभाग के अनुसार पूर्वी और उत्तर भारत में प्रचंड गर्मी की आशंका के तहत असामान्य गर्मी से निपटने के लिए हर राज्य के लिए हीट एक्शन प्लान ज़रूरी है परन्तु उत्तर भारत के राज्य बहुत गंभीर नहीं दिखते। पिछली साल 18 राज्यों के 37 हीट एक्शन प्लान मानकों पर खरे नहीं उतरे। दिल्ली का कोई हीट एक्शन प्लान ही नहीं था। ग्रीनवाशिंग या ‘हरित लीपापोती’ अब एक नई चुनौती है, मतलब सरकारों और कम्पनियों द्वारा नेट-शून्य कार्बन उत्सर्जन संकल्पों और पर्यावरण संरक्षण के ज़ोर-शोर से किए जाने वाले वास्तविकता के उलट भ्रामक वादों का दौर। ऐसे में मणिपुर सरकार ने जलवायु परिवर्तन पर स्टेट एक्शन प्लान तैयार किया और फिर मेघालय ने देश में पहली बार एक क्लाइमेट एक्शन बजट पेश किया, जिसमें बजट का 15 प्रतिशत जलवायु कारवाई के लिए आवंटित है। इससे पहले ‘हरित तमिलनाडु’ और ‘तमिलनाडु वेटलैंड मिशन’ की शुरुआत करने वाला तमिलनाडु राज्य स्तरीय, ‘क्लाइमेट चेंज मिशन’ प्रारंभ करने वाला देश का पहला क्लाइमेट स्मार्ट राज्य बना। 
पिछले साल उत्तराखंड ने जीडीपी की तरह जीईपी या ग्रॉस एनवार्यमेंटल प्रोडक्ट अर्थात सकल पर्यावरण उत्पाद आधारित व्यवस्था लागू करने वाला देश का पहला राज्य बना। अब राज्य योजना में जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) के साथ अब जीईपी को भी विकास और वित्तीय योजनाओं का आधार बनाएगा। उत्तर प्रदेश द्वारा सेवन स्टेप रेनबो एप्रोच के साथ की जा रही क्लाइमेट कार्रवाई के प्रभाव को अभी देखना होगा और बिहार अपने लिए राज्य जलवायु परिवर्तन कार्ययोजना यानी स्टेट एक्शन प्लान आन क्लाइमेट चेंज यानी एसएपीसीसी तैयार करने के लिये आंकड़े जुटा रहा है। अब समय आ गया है कि बिना देर किए सभी राज्यों को जलवायु परिवर्तन के आसन्न संकट से निपटने के ईमानदार वास्तविक प्रयास करते हुए दिखना होगा।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर