कहानी हस्बेमामूल

(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)

अब उस अधेड़ महिला ने गैलरी से गुजरते हुए चाय वाले को आवाज़ देते चार चाय का ऑर्डर दिया। चाय वाले ने कागजी कपों में जब तक चाय ढ़ाला, तब तक नवविवाहिता, जो अब तक बालों में कंघी करते, क्रीम-पौंडर आदि लगाकर बन-ठन चुकी थी, ने सीट पर ही अखबार बिछाते, अपने बैग से चिप्स-पापड़ और बिस्कुट के पैकेट निकालते, उसे खोल दिये। दोनों छोटे बच्चे बिस्कुट-चिप्स आदि खाते-खाते, अपने-अपने स्मॉर्टफोन में कोई गेम खेलने में व्यस्त हो गये। चाय वाले को पैसे चुकताकर, उसे चलता कर अब वो दोनों महिलाएं भी चिप्स-पापड़ व बिस्कुट का नाश्ता करते, बतकुच्चन में ऐसे मगन हो गयीं, मानो वे ट्रेन में नहीं, अपने घर के चौबारे में बैठी हों। ऐसे माहौल में सुबह आठ-साढ़े आठ बजे तक सोने का मेरा प्रोग्राम जाहिरन तौर भाड़ में जा चुका था। उन दोनों महिलाओं की देहभाषा से साफ लग रहा था कि उन्हें मुझे या आसपास बैठे अन्य यात्रियों की सुविधा-असुविधा से कुछ भी लेना-देना नहीं था। जाहिर है...उनके तईं ये हस्बेमामूल सी बातें थीं।
उसी मध्य मेरे मोबाइल-स्क्रीन पर मैसेज एलर्ट दिखा। देखा तो पत्नी ने व्हाट्सएप पर गुडमॉर्निंग संदेश भेजा था। इस तरह हमारी गुडमार्निंग हुई। 
चूंकि, अब सोने का तो कोई सवाल ही नहीं था, सो बजाय किसी सुविधा-असुविधा रूपी पशोपेश के, मानवीय-व्यवहार के इन्हीं पहलुओं पर शोधपरक नजरिये मैंने खुद को व्यस्त रखने के प्रयास का फैसला किया।
सुबह जब लखनऊ प्लेटफॉर्म पर उतरने लगा तो मेरे आगे ही एक युवक के साथ चलते, हंसते-बतियाते जो महिला मेरे सामने से निकली, उसकी आवाज कुछ जानी-पहचानी सी लगी...‘ओ-हो...तो यही मोहतरमा हैं, जो मेरे बर्थ के दूसरी तरफ ऊपरी बर्थ पर लेटी, रात-भर किसी से फोन पर बतियाती रहीं थीं।’ उस महिला को उस युवक संग चलते, यूं बतियाते-खिलखिलाते देख ऐसा कहीं से भी नहीं लग रहा था कि मोबाइल पर रात-भर की उसकी अहर्निश बातचीत से उसके साथ बैठे अन्य यात्रियों को हुई असुविधाओं का उसे तनिक भी खेद हो। मानो उसके तईं ये हस्बेमामूल सी बातें हों।
‘मुस्कुराइये कि आप लखनऊ में हैं।’ प्लेटफार्म से बाहर निकलते ही सामने की दीवाल पर यह चिरपरिचित सी पट्टिका देखते, चेहरे पर मोहक सी मुस्कान का आ जाना स्वाभाविक ही था। राहत भी महसूस हुई कि चलो, टाइम से अपने शहर तो पहुंच ही गये। रात गई बात गई। हालांकि अगले ही पल बैग के सभी पॉकेट्स टटोलते, यह जानकारी होते कि मैं अपने स्मॉर्टफोन का ओरिजनल-चॉर्जर ट्रेन में ही भूल आया हूं, मन थोड़ा दुखी भी हुआ। चूंकि इस यात्रा में हुए लाजवाब अनुभवों से मन लबरेज तो था ही, सो थोड़ी-बहुत हुई असुविधाओं के लिए भला क्यों शिकायत होगी...? आखिर इस यात्रा का हासिल ये लाजवाब अनुभव भी तो है। हस्बेमामूल सी बातें हैं।
 बहरहाल...ये सब बातें तो हुईं मेरी इस ट्रेन यात्रा से जुड़े कुछ दिलचस्प अनुभवों के बारे में। यात्रा में सहयात्रियों के रूप में उन महिलाओं, उन पुरूषों और उन बच्चों के व्यवहार, स्वभाव के बारे में। मध्यरात्रि में ट्रेन में आये उस नवयुवक और बुजुर्गवार के व्यवहार, स्वभाव के बारे में। हाॅं! सफर में मिलने वाले नये अनजान मुसाफिरों से मिलने, उनसे बोलते-बतियाते, उनकी बातें सुनने का मजा ही कुछ और है। अब स्वाभाविक तौर आपके जेहन में इन पंक्तियों के लेखक के स्वभाव के बारे में भी जानने की उत्कंठा होगी। तो मित्रों, यह कार्य मैं आप पाठकों पर छोड़ता हूं। उम्मीद है आप सभी की प्रतिक्रियाएं अवश्य मिलेंगी। क्या नहीं...? 

(समाप्त) (सुमन सागर)