2024 का चुनाव, क्या विपक्ष एक होगा ?

 

2024 के चुनाव की आहट पाकर भारत की सभी राजनीतिक पार्टियां गतिशील हो उठी हैं। इन पार्टियों को (भाजपा) को छोड़कर पता है कि प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ इसमें से कोई अकेली मौदान फतेह नहीं कर सकती सो तमाम संदेहों के आगे जाकर एकजुट होने की कोशिश में पैतरे बदले जा रहे हैं। बड़ा सवाल यही है कि क्या वे एकजुट हो पाएंगी? केवल भाजपा का विरोध उन्हें कितनी एकजुटता दे सकता है। चुनाव में तो केवल बारह महीने ही बाकी हैं। इन बारह महीनों में एकजुटता के प्रयास और उसकी मज़बूती पर ध्यान देना होगा।
चुनौती के रूप में 2021 में ममता बनर्जी को शेरनी के रूप में देखा जा रहा था। उनमें जुझारुपन के तीखेपन का परिचय मिल रहा था। बंगाल में बड़ी ताकतवर पार्टी भाजपा को बाहर का रास्ता दिखा दिया था, परन्तु जब भी बंगाल से बाहर का रास्ता संभालना चाहा वह हो न पाया। गोवा को लोकलाइज्ड राज्य माना जाता है। वहां टीएमसी (बाहरी) की छवि को तोड़ न पायी। उनको ‘बंगाल की घंटी’ के रूप में भी स्वीकार किया गया, परन्तु जब भाजपा ने उनके परिवार को निशाना बना लिया और भ्रष्टाचार के आरोप लगे, उनकी राष्ट्रीय महत्वकांक्षा को भी धक्का लगा।
2022 में केजरीवाल और आम आदमी पार्टी को काफी फेवर मिल रहा था। पंजाब चुनाव में विजयी रह कर पार्टी और केजरीवाल दोनों को सौभाग्य का सहारा भी मिला था। छवि भी बदली थी। वह केवल एक राज्य के नेता नहीं थे। राष्ट्रीय नेता हो सकने के विचार भी बुलंद होने लगे। उन्हें लगा कि गुजरात भी उनके लिए एक आसान सा कदम हो सकता है। प्रचार अभियान में भी जी जान से जुट गये। फिर प्रतिक्रिया अपने ढंग से हुई। केजरीवाल के निकटतम सदस्य को भाजपा ने शराब घोटाले में लिप्टा करार दिया, जिसका मामला अभी चल रहा है।
वर्ष 2023 की बात करें तो राहुल गांधी ने अपने दावों से खुद को देश के प्रधानमंत्री के सामने चुनौती देने वाले अंदाज में खड़ा कर दिया। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के माध्यम से अपनी छवि और कांग्रेस के लिए काफी कुछ सकारात्मक लेकर आये थे। कांग्रेस पार्टी का पुनरूत्थान भी होने ही वाला था। यात्रा में काफी लोगों से मिलकर लोकप्रियता में इजाफा पा चुके थे परन्तु मानहानि के मामले में दो साल की सज़ा होने पर संसद सदस्यता भी खो बैठे। अब उनके पास खुद को विक्टिम दिखाने का एक सुनहरा अवसर है। भोली जनता को भावुकता आम तौर पर ऐसे में मदद करती ही है। आज जब विपक्ष के कई नेता प्रतिकार की नीति का पालन करते हुए भाजपा को चुनौती फैंक रहे हैं, राहुल गांधी के प्रहार उनकी मदद कर रहे हैं। सी.बी.आई. या आयकर विभाग के छापों को राजनीतिक हमले बताकर विक्टिम दिखाने का बहाना भी मिल रहा है। क्या विपक्ष के नेता राहुल गांधी के नेतृत्व में संगठित हो सकते हैं? क्या उनका विश्वास राहुल गांधी को पूरी तरह से मिल सकता है परन्तु यह बात अपनी जगह है कि उनके ही नेतृत्व में कांग्रेस खुद दो बार चुनाव बुरी तरह से हार चुकी है, ऐसे में विपक्षी नेता कैसे मन ... पायेंगे कि राहुल गांधी इस हिचकोले खाती नाव को किनारे ले आयेेंगे, जबकि राजनीतिक आंधी-तूफान की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।
वाम पक्ष अपनापक्ष मजबूती से नहीं रख पा रहा। लगातार अपनी ताकत को क्षीण होता रहा है। सो कोई बड़ी सम्भावना उधर से फिलहाल नज़र नहीं आती। 
नरेन्द्र मोदी इस समय वोट पाने के लिए मज़बूती से खड़ा एक नाम है। उनको चुनौती देना विपक्ष के लिए काफी कठिन है। विपक्षी दल अलग-अलग नेताओं पर दांव खेलकर कुछ संतोषजनक उत्तर खोज नहीं पा रहे। प्रवर्तन एजेंसियों के 95 प्रतिशत मामले विपक्षी नेताओं पर दर्ज हैं, जब चुनाव आयोग या फिर संवैधानिक संस्थाएं सरकार पर कोई अंकुश लगाने से भी झिझक रही हों। संसद एक या दूसरे कारण से बिल्कुल ठप्प हो। 
कोई सोच नहीं सकता था कि 1973 में इंदिरा गांधी को परास्त किया जा सकता है लेकिन इमरजेंसी एक ऐसा फोक्टर था, जिसने विभिन्न संगठनों को एकजुटता दी और एककर दिया। जनसंघी और समाजवादी तो सदा ही एक दूसरे के खिलाफ थे, लेकिन आपातकाल तो सभी का अस्सित्व ही खत्म कर रहा था। जनता ने भी उनकी लड़ाई को न्यायसंगत ठहराया था। आज विपक्ष का रास्ता कहीं से भी आसान नहीं है। उनका होना तक संकटग्रस्त है परन्तु क्या उनका यह नारा ‘लोकतंत्र खतरे में है’ लोगों के दिलों तक पहुंच भी रहा है? यह भावना जनता की आवाज़ नहीं बन रही। क्या ई.डी. के डर से आवाज़ें एक हो पायेंगी? उधर मोदी 2014 में अच्छे दिन का नारा लेकर आये। अब पार्टी अमृतकाल की बात कर रही है और 25 साल का रोड़ मैप सामने रख रही है। विकास के नये-नये सपने जनता को दिखाये जा रहे हैं।  विपक्ष के पास एकजुटता के सिवा कोई रास्ता बचा नहीं। क्या होने वाला है यह तो भविष्य ही बतायेगा।