लोकतंत्र को खोखला कर रहा दल-बदलू तंत्र

देश में किसी भी चुनाव से कुछ समय पहले दल-बदल की ऐसी प्रदूषित हवा चलती है जिससे कोई भी दल बच नहीं पाता। यह अलग बात है कि जो पार्टी सत्तारूढ़ है और जिसके साथ जुड़ने में राजनीतिक भविष्य सुरक्षित होने की आशा होती है, उस पार्टी में राजनीति नेता अधिक जाते हैं। अपनी पार्टी को छोड़कर आत्मा की आवाज़ के नाम पर या सिद्धांतों की दुहाई देकर उस पार्टी में चले जाते हैं जहां से उन्हें आर्थिक लाभ मिलता दिखाई देता है या चुनाव लड़ने के लिए झट से टिकट मिलने की पूरी उम्मीद होती है। वैसे तो ऐसा हर समय पूरे देश में होता रहता है, परन्तु चुनाव के निकट दल बदलने के समाचार कुछ ज्यादा ही सुनने को मिलते हैं। अभी पिछले दिनों समाचार मिला कि संयुक्त आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे नेता अपनी पार्टी छोड़कर भारतीय जनता पार्टी की सुखद छाया में चले गए। कांग्रेस के बड़े नेता एंटनी के बेटे भी अपने पिता की विरासत को नहीं संभाल पाए और नया आशियाना ढूंढ लिया। उन्हें राजनीतिक भविष्य भाजपा में ही दिखाई दिया। भारत के उत्तर-पूर्व राज्यों में भी दल-बदल कोई नई प्रथा नहीं, यह पिछले कई वर्षों से जारी है। पंजाब में जालन्धर उप-चुनाव के दृष्टिगत सभी राजनीतिक दलों ने अपना-अपना जाल बिछा दिया है और बड़े-बड़े राजनेता उसमें फंसते भी जा रहे हैं। 
कोई कांग्रेस से ‘आप’ में गया, कोई भाजपा में गया और अब दो-तीन दिन पहले ‘आप’ ने भाजपा को बड़ा झटका दिया। भाजपा के नेता महेंद्र भगत ‘आप’ में चले गए। ‘आप’ में गये भाजपा नेता को तो इन चुनावों में संसद का कोई टिकट मिलने की आशा नहीं, परन्तु अकाली दल से भाजपा में आए टकसाली अकाली नेता लोकसभा के पूर्व उपाध्यक्ष अटवाल के बेटे को तो टिकट देकर ही पार्टी में लाया गया। लम्बे समय से देश के चुनाव आयोग से यह अपील की जाती रही है कि कोई तो समय सीमा तय की जाए कि दल-बदल कर दूसरी पार्टी में जाने के बाद कुछ समय तक चुनाव लड़ने की आज्ञा न मिले, परन्तु न ही संसद में इस पर कोई विचार हुआ और न ही चुनाव आयोग ने कोई सिफारिश की। दल-बदलुओं ने लोकतंत्र को दल-बदलू तंत्र बना दिया है। दल-बदल ऐसी प्रक्रिया है जिसमें दल बदलने वाले का कोई आचार-विचार, राजनीतिक पृष्ठभूमि, जनता में उसकी छवि आदि कुछ भी नहीं देखा जाता। किसी व्यक्ति को सरकार ने चतुर्थ श्रेणी की भर्ती में भी लेना हो तो उसकी जांच-पड़ताल की जाती है और अगर उस पर कोई भ्रष्टाचार का आरोप है तो उसे नौकरी नहीं मिलती, परन्तु बड़े-बड़े नेताओं के दल-बदल के समय ऐसी कोई शर्त नहीं रखी जाती। 
ऐसा लगता है कि जिस लोकतंत्र के लिए विश्व भर के संविधानविदों ने यह कहा था कि लोकतंत्र से अच्छी शासन प्रणाली अभी तक और कोई नहीं। जब तक इससे श्रेष्ठ किसी शासन प्रणाली की खोज नहीं ली जाती, तब तक लोकतंत्र ही सर्वोत्तम है, परन्तु यह दल-बदलू तंत्र लोकतंत्र को खोखला कर रहा है। यह एक ऐसी बीमारी है जिसे सब राजनीतिक पार्टियां स्वीकार करती हैं। पंजाब की राजनीतिक हालत यह है कि पिछले एक वर्ष में दर्जनों राजनीतिक नेताओं ने दल बदल लिए। अधिकतर वे हैं जो चुनाव हार गए और उनकी पार्टी भी इस स्थिति में नहीं रही कि अगला चुनाव जीत सके या कुछ नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे, वे इससे बचने के लिए उस पार्टी में चले गए जहां से उन्हें बचाव का कोई रास्ता दिखाई दे सकता है। जो दल बदल कर किसी पार्टी में जाता है उस पार्टी का, राज्य का, देश का शीर्ष नेता उसका स्वयं स्वागत करता है। केंद्रीय, राज्य मुख्यालयों में महत्वपूर्ण स्थान मिलता है और प्रधानमंत्री तक भी उनकी सीधी पहुंच हो जाती है। निश्चित ही दल-बदलुओं की बढ़ती संख्या के कारण ही राजीव गांधी ने 1985 में संविधान के 52वें संशोधन द्वारा दल-बदल पर कानून बनाया था। 
हरियाणा के एक विधायक ने पंद्रह दिन में चार बार पार्टी बदली थी। 1967 के बाद तो 16 महीनों में 16 राज्य सरकारें दल-बदल के कारण गिर गई थीं। हरियाणा अलग राज्य बनने के बाद पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 81 में से 48 सीटें जीत कर सरकार बना ली थी, परन्तु एक सप्ताह बाद ही पार्टी के बारह विधायकों के दल-बदल के कारण सरकार गिर गई थी और इन विधायकों ने हरियाणा कांग्रेस के नाम से अपना एक समूह बना लिया था। इसके बाद भी हरियाणा में दल-बदल का सिलसिला रुका नहीं। वैसे कर्नाटक, तमिलनाडु आदि प्रांतों का दल-बदल और फिर गोवा का दल-बदल भी बहुचर्चित है।
सही बात तो यह है कि अब जनप्रतिनिधि जनता के प्रतिनिधि नहीं रहे। उन दलों के प्रतिनिधि हो गए हैं जिसकी शरण में जाकर लाभ प्राप्त करते हैं। वे यह भूल गए कि उन्हें माननीय, आदरणीय विशेषण जनता के मतों के कारण मिलता है, दल बदलने के कारण नहीं। आवश्यकता यह है कि दल-बदल कानून में कोई भी अपवाद न रखा जाए। दल बदलने का अर्थ संसद और विधानसभा की सदस्यता से निलम्बित होना तय किया जाए तथा दल बदल कर दूसरी पार्टी में जाने वाले कुछ समय तक चुनाव न लड़ें, ऐसा नियम बनना जाना चाहिए। 
आज ज़रूरत तो यह भी है कि दल-बदल कानून पंचायतों समेत सभी स्थानीय स्वशासन के संस्थानों पर लागू होना चाहिए। दल-बदल के कारण नगर निगम, पंचायत, नगर परिषद चुनाव जीतने वाले देखते रह जाते हैं और दल बदलने वाले अपनी पार्टी को धोखा देकर सत्तापति बनकर  माननीय बन जातें हैं। वास्तव में यह धोखा मतदाताओं से है जो किसी भी दृष्टि से सहन नहीं होना चाहिए। मतदाताओं से भी यह आशा रखी जाती है कि वे किसी भी दल-बदलू को अपने जनप्रतिनिधि के रूप में स्वीकार न करें।