नए संसद भवन का उद्घाटन

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर से 28 मई को संसद के नये भवन का उद्घाटन किया जा रहा है। इसका शिलान्यास भी उन्होंने 10 दिसम्बर, 2020 को किया था। इस नई इमारत के उद्घाटन को लेकर ज्यादातर विपक्षी दलों द्वारा आपत्ति व्यक्त की जा रही है। उनके अनुसार प्रधानमंत्री के स्थान पर इसका उद्घाटन राष्ट्रपति द्वारा किया जाना चाहिए था। इसके जवाब में केन्द्रीय मंत्री हरदीप पुरी ने कहा है कि 24 अक्तूबर, 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संसद की नई बनी एनैक्सी ‘उपभवन’ का उद्घाटन किया था तथा 15 अगस्त, 1987 को प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने संसद की लाइब्रेरी की बड़ी इमारत का उद्घाटन किया था। जहां तक संसद की इस नई इमारत का संबंध है, हम शुरू से ही इसके पक्ष में रहे हैं क्योंकि मौजूदा संसद भवन का उद्घाटन 96 वर्ष पूर्व वर्ष 1937 में उस समय के ब्रिटिश वायसराय लार्ड इरविन ने किया था। इसके निर्माण में 6 वर्ष लगे थे तथा उस समय इस पर 83 लाख रुपए खर्च हुये थे।
देश स्वतंत्र होने के बाद लगातार जनसंख्या में वृद्धि तथा लोकतांत्रिक प्रणाली की लगतार बढ़ती ज़रूरतों के कारण नये संसद भवन के निर्माण की मांग पिछले कई दशकों से किसी न किसी रूप में की जाती रही थी। नये संसद भवन को  सामयिक ज़रूरतों के अनुसार पूरी तरह से आधुनिक ढंग से बनाया गया है। इसमें डिजीटल प्रणाली एवं टच स्क्रीन की ज़रूरतों की पूर्ति भी की गई है। मौजूदा संसद भवन में लोकसभा के 550 तथा राज्य सभा के 250 सदस्य बैठ सकते हैं जबकि नये संसद भवन में लोक सभा के 888 सदस्य तथा राज्यसभा के 384 सदस्य बैठ सकेंगे। दोनों की संयुक्त बैठक में 1272 सदस्यों की बैठक की व्यवस्था भी होगी। इसके अलावा नये संसद भवन में 6 कमेटी रूम होंगे जबकि इस समय तीन कमेटी रूम ही हैं।  इसके अलावा इसमें मंत्री परिषद् के सदस्यों के लिए 92 अलग कमरों की व्यवस्था की गई है। नये संसद भवन के निर्माण में इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि आगामी 100 वर्ष तक यह संसद की ज़रूरतें पूरी करने में समर्थ हो। हम इस नये संसद भवन के निर्माण को उठाया गया एक बड़ा कदम समझते हैं जहां समय-समय पर चुने जाने वाले प्रतिनिधियों को अपना कामकाज करने में प्रत्येक तरह की आसानी तथा सुविधा उपलब्ध होगी।
आज अधिकतर विपक्षी दलों द्वारा इसके विरोध के कई कारण गिनाये जा सकते हैं। यह महसूस किया जाता रहा है कि श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा की सरकार ने इसके निर्माण संबंधी लिए गए ज्यादातर फैसलों में अन्य पार्टियों को न तो बड़ी सीमा तक विश्लास में लिया तथा न ही इसके संबंध में उनके सहयोग की अधिक अपेक्षा रखी। इसकी बजाय लगातार यह प्रभाव दिया जाता रहा जैसे यह किसी एक व्यक्ति विशेष या एक विशेष समूह द्वारा विचारित एवं  निर्मित किया गया हो जबकि प्रजातंत्र के इस मंदिर हेतु सभी राजनीतिक दलों को विश्वास में लेने का यत्न किया जाना चाहिए था। इसके निर्माण में समय-समय पर उठती रही आपत्तियों को भी सत्ता पक्ष ने बड़ी सीमा तक दृष्टिविगत किया तथा इसके विरुद्ध उठते स्वरों को शांत करने की बजाय इन्हें अनसुना ही कर दिया गया। पिछले कुछ वर्षों से देश में राजनीतिक दलों में आपसी विरोध के स्वर इस प्रकार उठने लगे हैं जैसे वे लड़ाई का रूप धारण करते जा रहे हों। मोदी सरकार का प्रभाव भी तानाशाही रुचियों वाला ही बनता जा रहा है, जिससे आपसी टकराव और भी बढ़ता दिखाई दे रहा है।
पिछले समय के दौरान भाजपा के बने मज़बूत प्रभाव को देखते हुए अधिकतर विपक्षी दलों को यह एहसास होना शुरू हो गया है कि वे एक मंच पर एकजुट होकर ही बाहुबली बनी भाजपा का मुकाबला करने में समर्थ हो सकते हैं। संसद के उद्घाटन के विरोध को लेकर एकजुट हुईं पार्टियां भी यही प्रभाव देने का यत्न करती दिखाई दे रही हैं। वे इस रणनीति के साथ एक तरह से अपने मुहाज को शक्तिशाली बनाने का प्रयास करती दिखाई दे रही हैं।


—बरजिन्दर सिंह हमदर्द