मोदी का विरोध ही विपक्ष की नियति बन गई है

जहां दुनिया में भारत एवं भारतीय लोकतंत्र का गौरव एवं सम्मान बढ़ रहा है, वहीं भारत में लोकतंत्र के इतिहास की एक महत्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक समारोह का बहिष्कार करते हुए समूचा विपक्ष भारतीय लोकतांत्रिक की गरिमा को कम करने का प्रयास कर रहा है। यह समय न केवल नये संसद भवन के उद्घाटन, बल्कि लगातार दुनिया में भारत एवं उसके महानायक के सम्मान को लेकर गर्व करने का है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि इन ऐतिहासिक क्षणों को यादगार बनाने हेतु विपक्ष विवेक एवं परिपक्व सोच का परिचय देने की बजाय संकीर्ण एवं निम्न स्तर की राजनीति का परिचय दे रहा है। अब यह लगभग तय हो चुका है कि लोकतंत्र का मंदिर कही जाने वाली संसद के नए भवन के उद्घाटन समारोह से विपक्ष के 19 दल गायब रहेंगे। इन विपक्षी दलों ने बाकायदा घोषणा कर दी कि वे रविवार को होने वाले इस समारोह का बहिष्कार करेंगे। कारण यह है कि नये संसद भवन का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा करना तय किया गया है, जबकि विपक्षी दलों के मुताबिक यह काम राष्ट्रपति के हाथों होना चाहिए।
भारत के लिये सौभाग्य की बात है कि नरेन्द्र मोदी जैसा महानायक प्रधानमंत्री के रूप में मिला है। वैसे तो नौ वर्षों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को कई देशों ने अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान से सम्मानित किया है, लेकिन हाल ही में उनकी जापान, पापुआ न्यू गिनी और आस्ट्रेलिया यात्रा के दौरान उन्हें जो सम्मान मिला, वह हर भारतीय को अभिभूत कर देने वाला है। यह सम्मान उनकी व्यापक सोच, मानवीय दृष्टिकोण, कुशल राजनीतिक नेतृत्व और दूरदृष्टि का प्रतिबिम्ब है जिसने वैश्विक मंच पर भारत के उदय एवं उसकी साख को मजबूत किया है। यह सम्मान दुनिया भर के देशों के साथ भारत के बढ़ते संबंधों को भी दर्शाता है। सौ साल में आई भयंकर कोरोना महामारी तथा उसके बाद रूस-यूक्रेन युद्ध की स्थिति में बंटा हुआ विश्व और संकट भरे माहौल को प्रधानमंत्री मोदी ने जिस कुशलता, परिपक्वता एवं दूरदर्शिता से देश को सम्भाला इससे पूरी दुनिया में भारत को लेकर सकारात्मकता, उम्मीदें और भरोसा बढ़ा है। 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पापुआ न्यू गिनी पहुंचने पर सारे शासकीय प्रोटोकाल को तोड़ कर उस देश के प्रधानमंत्री जेम्स मारापे ने न केवल मोदी का स्वागत किया साथ ही एयरपोर्ट पर सबके सामने मोदी के पांव भी छूए। यह अपने आप में अभूतपूर्व है कि विश्व के इतिहास में आज तक कभी भी राष्टाध्यक्ष ने किसी दूसरे राष्ट्राध्यक्ष के पांव सार्वजनिक रूप से नहीं छूए हैं। किसी जमाने में पेशावर से पापुआ न्यू गिनी तक हिन्दू संस्कृति का साम्राज्य था। पांव छूने की इस घटना ने हमारी उस प्राचीन संस्कृति को एक बार फिर से मजबूत कर दिया है। भारत की जनता ने महानायक मोदी को एक नए भारत के शिल्पकार के रूप में देखा है। उनको मिले सम्मान से हर भारतीय अभिभूत एवं गौरवान्वित हैं, स्वस्थ राजनीतिक धर्म का पालन करते हुए तमाम विवादों के रहते विपक्ष को उनको मिल रहे सम्मान का स्वागत करना चाहिए। सम्मान तो दूर की बात उनके द्वारा नए संसद भवन के उद्घाटन को लेकर इस ऐतिहासिक समारोह के बहिष्कार का विपक्ष का फैसला उचित नहीं है। 
जापान में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन गले तो मिले ही साथ ही बाइडन का यह कहना, ‘आप तो अद्भुत लोकप्रिय हो। अमरीका में आपके कार्यक्रम में शामिल होने के लिए अनेक बड़ी-बड़ी हस्तियां मेरे से टिकट उपलब्ध करने के लिए सिफारिशें कर रही हैं। मुझे तो आपका आटोग्राफ  लेना चाहिए’, कितना अद्भुत है। आस्ट्रेलिया के सिडनी में जिस तरह से पूरा स्टेडियम वहां बसे भारतीयों ने ठसाठस भर दिया और पूरा स्टेडियम मोदी-मोदी के नारों से गुंजायमान हो उठा। उसे देखकर तो आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री एंथोनी अल्बनीज़ भी हैरान रह गए। जिस तरह से प्रधानमंत्री मोदी की अपील पर पूरा स्टेडियम इंडिया-इंडिया के शोर से गूंज उठा उसे देखकर आस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री को भरे मंच से कहना पड़ा कि मोदी ही बॉस हैं। दुनिया की बड़ी शक्तियां जिसे इतना सम्मान दे रही हैं, ऐसे युगपुरुष के हाथों से संसद भवन का उद्घाटन होना अच्छी की बात है। 
नरेन्द्र मोदी की लगातार बढ़ती साख एवं सम्मान से समूचा विपक्ष बौखलाया हुआ है। मोदी का जितना विरोध किया जा रहा है, उतनी ही उनकी प्रतिष्ठा एवं जनस्वीकार्यता बढ़ती जा रही है। एक तरह से विरोध उनके लिये वरदान बन रहा है। विपक्षी दलों ने राष्ट्रपति द्वारा नये संसद भवन के उद्घाटन का सुझाव दिया, सही है। लेकिन इसको लेकर जो जड़ता एवं हठधर्मिता का प्रदर्शन किया, वह गलत है। विपक्ष का यह कहना है कि प्रधानमंत्री सदन का हिस्सा और शासन प्रमुख होने के नाते अक्सर विपक्ष के निशाने पर रहते हैं और उन्हें उस तरह की निर्विवाद रुतबा हासिल नहीं होता, जो संवैधानिक प्रमुख होने के नाते राष्ट्रपति को प्राप्त होता है। लेकिन यहां बड़ा सवाल यह है कि इस सुझाव पर विपक्ष को सामान्य स्थिति में कितना जोर देना चाहिए था। क्या इसे इस सीमा तक खींचना ज़रूरी था कि उस आधार पर समारोह का ही बहिष्कार कर दिया जाए? निश्चित रूप से विपक्ष की यह हठधर्मिता सहज-स्वाभाविक नहीं कही जा सकती। यह इस बात का सबूत है कि लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूती देने की बजाय प्रधानमंत्री का विरोध ही विपक्ष की नियति बन गयी। नौ वर्ष का कुशल देश संचालन, विकास की नयी इबारत लिखना, विश्व मंचों पर भारत की साख को बढ़ाना आदि घटनाओं के साक्षी रहे लोगों का अनुभव है कि इस अवधि में जितना एवं जैसा विरोध मोदी का हुआ, शायद पहले कभी किसी प्रधानमंत्री का नहीं हुआ। मोदी का विरोध कोई नयी बात नहीं है। आश्चर्य इस बात का है कि विरोध की तीव्रता एवं दीर्घता के बावजूद मोदी के अस्तित्व पर कोई आंच नहीं आयी। हां, इन स्थितियों से सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच मतभेदों की खाई बहुत ज्यादा चौड़ी हो चुकी है। दोनों के बीच विश्वास का संकट पैदा हो गया है। यही चिंता की सबसे बड़ी बात है और एक आदर्श एवं सफल लोकतंत्र को कमज़ोर करने की द्योतक हैं। प्रधानमंत्री की आलोचना करना विपक्ष के लिए आसान हो सकता है लेकिन उनके त्याग को दृष्टिविगत नहीं किया जा सकता। भारत की जनता उन्हें एक नए भारत के अभ्युदय के आधारस्तंभ के रूप में देख रही है। 

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