नीति आयोग प्रभावी भूमिका निभाने में विफल

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नौ साल पहले पदभार ग्रहण करने के तुरंत बाद जो पहला काम किया, वह था 65 साल की विरासत वाले योजना आयोग को भंग करना और जनवरी 2015 में नीति आयोग की स्थापना करना। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में पहले भी नरेन्द्र मोदी के पास केंद्र-राज्य संबंधों और आर्थिक सुधार के लिए कुछ दृढ़ विचार थे। उन्होंने उम्मीद जताई थी कि नीति आयोग इस रिश्ते को और मज़बूत करेगा।
परन्तु मोदी को अभी भी गैर-भाजपा शासित राज्यों के विरोध का सामना करना पड़ रहा है। वे अपने राजनीतिक मतभेदों के कारण उनके खिलाफ ज़ोरदार नाराज़गी प्रकट करते रहे हैं। मिलकर विरोध करने वालों में नये मुख्यमंत्री शामिल हो रहे हैं जिसके कारण गैर-भाजपा विरोधी मुख्यमंत्रियों का क्लब दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। इसमें आश्वर्य नहीं कि एक दबाव समूह के रूप में कार्य करते हुए कुछ गैर-भाजपा मुख्यमंत्रियों ने पिछले दिनों  प्रधानमंत्री द्वारा संबोधित नीति आयोग की बैठक का बहिष्कार किया। सम्मेलन का विषय था—‘विकसित भारत * 2047: टीम इंडिया की भूमिका’। वे मुख्यमंत्री सत्र के लिए पहचाने गये 100 मुद्दों पर चर्चा में भाग ले सकते थे, परन्तु इसके बजाय वे बैठक से दूर रहे। उन्नीस विपक्षी दलों ने भी 28 मई को नये संसद भवन के उद्घाटन का बहिष्कार किया। उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को यह सम्मान मिलना चाहिए न कि मोदी को। बहिष्कार करने वालों में ममता बनर्जी (पश्चिम बंगाल) अरविंद केजरीवाल (दिल्ली), अशोक गहलोत (राजस्थान), के. चंद्रशेखर राव (तेलंगाना), भगवंत मान (पंजाब), नितीश कुमार (बिहार), एम.के. स्टालिन (तमिलनाडु), पिनाराई विजयन (केरल) और नवीन पटनायक (ओडिशा) शामिल थे।
अंतिम नाम एक आश्चर्यजनक जोड़ था क्योंकि पटनायक काफी समय से कांग्रेस और भाजपा दोनों से समान दूरी बनाये हुए हैं। कहा जाता है कि वह इस बात से नाराज़ थे कि ओडिशा की रहने वाली राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को नए संसद भवन के उद्घाटन के लिए आमंत्रित नहीं किया गया था।
के.सी. राव पिछले साल भी नीति आयोग की बैठक में शामिल नहीं हुए थे। केंद्र के साथ चल रही लड़ाई के बाद उन्होंने दावा किया कि मुख्यमंत्रियों को बोलने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता है और कुछ मिनटों के बाद, घंटी बज जाती है कि आपको अब रुक जाना चाहिए।
ममता बनर्जी नीति आयोग की बजाय योजना आयोग का पुनरुद्धार चाहती हैं और उन्होंने नीति आयोग को ‘पेपर टाइगर’ कहा। अन्य मुख्यमंत्रियों ने अपनी अनुपस्थिति के लिए कुछ बहाने दिये, जैसे पूर्व की व्यस्तताएं। यह स्पष्ट था कि उन्होंने मिलकर नीति आयोग की बैठक का बहिष्कार किया।
ऐसा बहिष्कार पहली बार नहीं हुआ है। इंदिरा गांधी के समय भी आंध्र प्रदेश के दिवंगत मुख्यमंत्री एन.टी. रामा राव केंद्र के विरोध में राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक से बहिर्गमन कर गये थे। दिग्गज दिवंगत वामपंथी नेता ज्योति बसु, रामकृष्ण हेगड़े और कई अन्य भी राष्ट्रीय विकास परिषद् (एनडीसी) की बैठकों से बाहर चले गये थे। तमिलनाडु की दिवंगत मुख्यमंत्री जयललिता ने योजना आयोग की बैठक छोड़ दी थी यह कहते हुए कि उन्हें पर्याप्त समय दिये जाने की आवश्यकता है। जहां तक नीति आयोग की बैठक के बहिष्कार का मामला है, सवाल उठता है कि क्या मुख्यमंत्रियों को इसका बहिष्कार कर अपना गुस्सा दिखाना चाहिए था या उन्हें इसमें शामिल होकर अपनी गलतफहमी स्पष्ट करनी चाहिए थी। वे बैठक में शामिल हो सकते थे और अपनी शिकायतें कर सकते थे। आखिरकार, यह मुख्यमंत्रियों और केंद्र के साथ बातचीत का एक मंच था।
विपक्ष द्वारा नीति आयोग की बैठक और नये संसद भवन के उद्घाटन समारोह के बहिष्कार को भाजपा विपक्ष की मोदी से नफरत के हिस्से के रूप में देखती है।
नीति आयोग और उसके पूर्ववर्ती योजना आयोग की प्रासंगिकता को लेकर कई सवाल उठे हैं। जहां एक ओर योजना आयोग को एक सफेद हाथी के रूप में देखा गया था, वहीं नीति आयोग को एक दंतविहीन संस्था के रूप में देखा जाता है। योजना आयोग के दो प्राथमिक कर्त्तव्य थे—पंचवर्षीय योजना का कार्यान्वयन और राज्यों को वित्त प्रदान करने के लिए फार्मूला देना। नीति आयोग को कोई संवैधानिक या वैधानिक मंजूरी नहीं है। इसका घोषित उद्देश्य एक गतिशील और मजबूत राष्ट्र का निर्माण करना है। योजना आयोग के विपरीत इसकी कोई वित्तीय भूमिका नहीं है। यह मुख्य रूप से देश का प्रमुख थिंक टैंक है। नीति आयोग के दो हब हैं : ‘टीम इंडिया हब’ और ‘नॉलेज एंड इनोवेशन हब’।
भारत सरकार के लिए दीर्घकालिक रणनीतिक योजनाएं विकसित करने के अलावा आयोग एक संघीय सहकारी संरचना का समर्थन करता है। आलोचकों का कहना है कि इसे केवल नीतियों की सिफारिशों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय कार्यान्वयन पर ध्यान देना चाहिए। भारत एक प्रमुख वैश्विक अर्थव्यवस्था के रूप में उभरा है। आयोग एक असमान समाज को आधुनिक अर्थव्यवस्था में बदलने में असमर्थ होगा। यह सार्वजनिक या निजी निवेश या नीति निर्धारण को प्रभावित नहीं कर सकता है। इसे विशिष्ट प्रश्नों का उत्तर देने की आवश्यकता है जैसे 90 प्रतिशत कर्मचारी असंगठित क्षेत्र में क्यों हैं।
आयोग को एक अधिक मजबूत संगठन के रूप में विकसित होना चाहिए। इसे राज्यों का भरोसा चाहिए, खासकर गैर-भाजपा मुख्यमंत्रियों से।  कुल मिलाकर नीति आयोग को एक मज़बूत संस्था के रूप में उभरने की आवश्यकता है। यदि वह अधिक प्रभावी होना चाहता है तो उसे गैर-भाजपा मुख्यमंत्रियों का विश्वास जीतने और उनकी सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करने की आवश्यकता होगी। तभी एक मजबूत केंद्र और मजबूत राज्यों का उदय होगा। (संवाद)