अपनी-अपनी देशसेवा

इधर आज़ादी के बाद पूरे देश में डेंगू और वायरल बुखार के साथ-साथ देशसेवा की गंभीर बीमारी बड़ी जोर शोर से फैली हुई है। भुक्खड़ मजदूरों और फटेहाल किसानों को छोड़कर जिसे देखो वही इसके भयानक वायरस से पीड़ित दिखाई पड़ रहा है।
कभी-कभी कई बीमारियां भी मजेदार और आनन्ददायी होती हैं। अस्पताल के प्राइवेट वार्ड के साफ सुथरे धवल चादर बिछे बिस्तरे पर आराम से पड़े हैं। सुन्दर मीनाक्षी परिचारिका माथे पर गीली पट्टी रख रही है। हौले से अपने गुलाबी कोमल हाथों से हाथ पकड़कर नब्ज देख रही है। मुस्कुरा-मुस्कुराकर हाल-चाल पूछ रही है। शर्माती-इठलाती पानी का गिलास थामे गोलियां निगलवा रही है। अब ऐसा नशीला अस्पताल और ऐसा मस्ती भरा समां हो तो कौन बेवकूफ चाहेगा कि बीमारी ठीक हो जाए? बस, देशसेवा की बीमारी भी ऐसी ही आनंददायी है। 
बाज लोग, गांधीनामी सफेद चादर ओड़े, सरकार रूपी स्पेशल वार्ड के सत्ता-पलंग पर मजे से लेटे हुए स्वर्गीय सुख-सुविधाओं की मलाई का आनंद उठा रहे हैं जबकि गांधी-वांधी से उनका कुछ लेना देना नहीं है। मन्दिर में पत्थर के देवता के नाम का सारा चढ़ावा मौज से पुजारी उड़ाता है। ठीक देशसेवा का गणित भी ऐसा ही है। देशसेवा-देव का नाम जप करो और पूरे मुल्क को बेखटके परमानंद से चरते रहो। 
सांसद और विधायक भी देशसेवा का मंत्र जपते हुए पांच-दस साल में अरबपति हो जाते हैं। देश की आज़ादी के पहले देशसेवा करने वाले, मुल्क के लिए घर-द्वार प्राण सबकुछ लुटा देते थे। अब आज़ादी के बाद की पीढ़ी देशसेवा के नाम से देश का सबकुछ लूटने में विश्वास करती है। मैंने आज के जमाने का एक भी ऐसा देशसेवक नहीं देखा जो गरीब हो। हर देशसेवक पर लक्ष्मी माता की विशेष कृपा-दृष्टि क्यों रहती है? मुझे आज तक समझ नहीं आया! 
कल टी.वी. चैनल के आफिस में एक युवा से मुलाकात हो गई। बातों ही बातों में मैंने उनसे प्रश्न किया, ‘आप क्या करते हैं?’ उन्होंने विनम्रता से जवाब दिया, ‘मैं क्रिकेटर हूँ जी। देश के लिए खेलकर देशसेवा करता हूँ। यहां एक इंटरव्यू के सिलसिले में आया हूँ।’ मुझ क्रिकेट अरसिक मूर्ख को बाद में पता चला कि दिल्ली के नोयडा में उनका करोड़ों का आलीशान बंगला है। कई-कई लाख की चार चक्के वाली गाड़ियां हैं। एक छोटा विज्ञापन करने का वे करोड़ों वसूलते हैं। अपने ढंग की अनोखी इस देशसेवा से पहली बार मेरा परिचय हुआ। ऐसे ही मुंबई में आज के जाने-माने अभिनेता से कुछ दिनों पहले ही मुलाकात हुई। वे भी अरबपति आदमी हैं। बंगला, गाड़ी, बैंक-बैलेंस संभाल नहीं संभल रहा है। कई बार इनकम टैक्स के छापे पड़ चुके हैं। बातों ही बातों में कहने लगे ‘अरे साहब, हमारा क्या, हम तो छोटे-मोटे कलाकार हैं जी, कला के माध्यम से देशसेवा करते हैं।’ सोचता हूँ, ऐसी देशसेवा करने का मौका भगवान सबको दे।
पूरा मुल्क देशसेवा के कटरीना तूफान में फंसा छटपटा रहा है। पत्रकार होने के नाते पिछले हफ्ते एक आतंकवादी से इंटरव्यू के लिए जाना पड़ा। वे जंगल में अपने गुप्त स्थान पर अपने साथियों के साथ बंदूक साफ करते बैठे हुए थे। मैंने इंटरव्यू के आखिरी में उनसे कहा- आप ये मारधाड, खून-खराबा छोड़कर मुख्यधारा में शामिल क्यों नहीं हो जाते? वे उत्तर देते हुए बोले, -मुख्य धारा-सुख्यधारा हम कुछ नहीं जानते जी। बस देश सेवा का हमारा यही तरीका है। इधर आन्दोलनकारी करोड़ों-अरबों की राष्ट्रीय संपत्ति कार, बस, रेल, भवन जलाकर देशसेवा की महान परम्परा निबाह रहे हैं तो उधर पुलिस डंडे और गोलियां चलाकर अपना देशसेवा-धर्म पूरा कर रही है। 
देशसेवा की होड़ में उद्योगपति ही क्यों पीछे रहें। वे भी बैंकों से करोड़ों-अरबों का लोन ले, विदेश भागकर भारतमाता की सेवा में लगे हुए हैं। बाबू, अफसर, व्यापारी सबके सब खादी के लंगोट बांधे देशसेवा के अखाड़े में उछल-कूद करते हुए भांति-भांति के पैतरे में व्यस्त हैं। अब बचे रह गए फटेहाल, मुदर्रिस मज़दूर और किसान, जिनके पास रोटी है तो कपड़ा नहीं, कपड़ा है तो घर नहीं। घर है तो सूखा और अकाल है, लोन वसूलने वाले महाजन तथा सरकार है। अब वे क्या करें? हतभागे, महुवे के पेड़ पर फांसी लटककर अपने ढंग से वे भी देशसेवा में लगे हुए हैं! (अदिति)

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