कहानी-बदलाव

‘मयंक आ रहा है। उससे पूछो उसके लिए क्या बनाऊं। फिश करी, हिल्सा  मछली, या चिकन करी या मटन बोलो दीदी। उसको क्या पसंद है? उसको तो नॉनवेज बहुत पसंद है ना? चिकेन करी बनाऊं।’ कादंबरी ने हुलसते हुए मोनालिसा से पूछा। 
‘अभी मयंक तो तेरे पास अगले सप्ताह ही जायेगा, ना। तुमने इतनी जल्दी भी तैयारी शुरु कर दी। अभी उसके पापा का सीजन का टाईम है। कोई ठीक नहीं है।  मयंक जाये-जाये। ना भी जाये नानी के पास। अभी मयंक के पिताजी से बात नहीं हुई है।’ 
‘फिर भी दीदी।’ 
‘ठीक है, मैं इनसे बात करके देखती हूं। मान गये तो ठीक। नहीं तो मयंक को जब छुट्टी होगी। तो देख आयेगा नानी को। और तुमसे भी मिल लेगा।’ 
‘माँ, बीमार है दीदी। और तुमको तो पता है कि नानी मयंक को कितना स्नेह या दुलार करती है। बेचारी को कितनी आशा है कि मयंक और तुमलोग उससे मिलने आओगे। और फिर तुम लोगों को तो घर-द्वार, काम-काज और बाल-बच्चों से कभी फुर्सत नहीं मिलती है ना। ये सब तो जीवण भर लगा ही रहेगा। आखिर, मां-बाप को चाहिए ही क्या? उसकी औलादें बूढ़ापे में आकर उसका हाल-चाल लें।  लेकिन किसको कहां समय और फुर्सत है। सब लोग दुनियादारी में व्यस्त हैं। और मां-बाप उनकी तरफ टकटकी लगाये ताक रहें हैं। सोचते हैं कि बच्चों को फुर्सत होगी तो एक नज़र उनको आकर देख लेंगे। मां-बाप अपने बच्चों से कुछ मांगते थोड़ी हैं। बस इतना चाहते हैं। कि वे उनका हाल-चाल ले लें। थोड़ा बहुत करीब बैठकर बातचीत ही कर लें। इतना ही उनके लिया बहुत है। खैर, मैं तुमसे बहुत छोटी हूँ। तुमको भला क्यों समझा रही हूं? तुम भी तो बाल-बच्चों वाली हो। तुम्हें भी तो भला इसकी समझ होगी।’ कादंबरी का गला भींगने लगा था। भावुक तो मोनालिसा भी हो गई थी। वो भी तो जड़ और निपट गंवार हुई जाती है। इस घर और ग्रिस्ती के फेर में। आखिर क्या करे वो भी। सुबह की उठी-उठी रात कहीं ग्यारह-बारह बजे तक उसको आराम मिलता है। फिर घर में चार-पांच बजे से ही खटर-पटर चालू हो जाती है। बीस-पच्चीस साल इस घर गिरस्ती को जोड़ते हुए दिन पखेरू की तरह उड़ गये। मयंक के पापा को दुकान जाने में देरी हो रही थी।
वो बैठक से नाश्ते के लिये आवाज लगा रहे थे। 
‘अरे नाश्ता बन गया हो तो दे दो। मुझे जल्दी से निकलना है। अगर देर होगी तो कह दो। बाहर जाकर ही कर लूंगा।’ नरेश जी की आवाज मोनालिसा के कानों में पड़ी। ये आवाज फोन के स्पीकर से कादंबरी को भी सुनाई पड़ी। 
कादंबरी बोली- ‘दीदी, मयंक को फोन दो ना। उससे ही पूछ लेती हूं। उसको जन्मदिन पर क्या खाना पसंद है।’ 
‘हां, ये ठीक कहा तुमने। देती हूँ मयंक को फोन। ठीक भी रहेगा। मौसी समझे और मयंक समझे। मम्मी को भला क्या मतलब। लेकिन, सुनो मैं ठीक-ठाक तो नहीं कह सकती। लेकिन, मयंक के पापा भी अगर हां कहेंगे। तभी मैं मयंक को तुम्हारे पास उसके जन्मदिन पर उसको भेजूंगी। तुम्हें तो पता है। सर्दियों के मौसम में गद्दे-कंबल और रजाई की बिक्री दुकान में कितनी बढ़ जाती है। दो-तीन आदमी अलग से रखने पड़ते हैं। बाबूजी से हांलाकि कुछ नहीं हो पाता। तब भी वो गल्ले पर बैठते हैं। दो-तीन लोग हर साल हम लोग बढ़ाते हैं। लेकिन काम हर साल जैसे बढता ही चला जाता है।’ 
‘काम कभी खत्म होने वाला नहीं है, दीदी। आदमी को मरने के बाद ही फुर्सत मिलती है। दीदी मयंक को फोन दो ना।’ 
मोनालिसा ने मयंक को आवाज लगायी- ‘बेटा मयंक मौसी का फोन है।’
मयंक चहकते हुए किचन में आकर कादंबरी से बात करने लगा- ‘हां, मौसी।’ 
‘तुम आ रहे हो ना अगले सप्ताह। उस दिन तुम्हारा जन्मदिन भी है। बोला खाने में क्या बनाऊंगी। चिकन करी, मीट या मछली।’ 
‘जो तुम्हें अच्छा लगे मौसी बना लेना।’ 
कुछ ही दिनों में सप्ताह खत्म होकर वो दिन भी आ गया। जिस दिन मयंक को मौसी के यहां जाना था। मयंक ने सुबह की बस ली थी। रास्ते भर वो आज के खास दिन को वो याद करके रोमांचित हो रहा था। सब लोगों ने उसको बधाई संदेश भेजा था। दोस्तों ने। मां-पापा बड़े भइया और लोगों ने भी। दादा-दादी ने भी उसके लालाट को चूमा था। उसको आशी दीदी ने तो निकलते समय उसकी आरती करी थी। उसको रोली का टीका और अक्षत लगाया था। और फिर उसको यात्रा में निकलने से पहले उसके मुंह में दही-चीनी खिलाकर विदा किया था। दोस्तों से भी उसको बधाई संदेश सुबह से मिलते आ रहे थे। वो सुबह उठकर सबसे पहले दादा-दादी के कमरे में गया था। जहां उसने अपने दादा-दादी से आशीर्वाद लिया था।  और उसके बाद उसने मां-पापा का आशीर्वाद पैर छूकर लिया था। सब लोग बड़े खुश थे। 
नाश्ते में उसने खीर-पुडी, और मिठाई खाई थी। ठंड की सुबह धूप भी बहुत मीठी-मीठी लग रही थी। घर के सब लोगों ने उसकी यात्रा सुखद और शुभ हो इसकी कामना की थी। दरअसल वो अपनी मौसी से मिलने और अपनी नानी को देखने के लिए शहर जा रहा था। उसकी नानी बीमार चल रही थी। नानी को बड़ा मन था। कि मरने से पहले वो मयंक को एक बार देख लें। वो मयंक के मां से बार बार कहतीं की मेरी सांसों का अब कोई आसरा नहीं है। ज्यादा दिन बचूं-बचूं ना भी बचूँ। इसलिए मयंक को और तुम लोगों को एक बार देख लूँ। तुम मयंक को एक बार मेरे पास भेज दो। और समय निकालकर एक बार तुम लोग भी आकर मुझसे मिल लो। पता नहीं कब मेरा समय पूरा हो जाये। मयंक की सेवा उसकी नानी ने बचपन में खूब की थी। (क्रमश:)

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