उर्दू और हिंदी में अलगाव और साझेपन के हाशिये
(कल से आगे)
यह ‘उर्दू’, दूसरी ओर अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद की चुनौती से पैदा होने वाली असुरक्षा-ग्रंथि से भी बंधी नज़र आती है। हालांकि भाषा के वैज्ञानिक विकास के नज़रिये से यह गैर-ज़रूरी एवं भाषा-परिदृश्य पर ‘आरोपित’ वस्तु प्रतीत होती है।
वैज्ञानिक विकास की कसौटी पर हिंदी, स्वयं इससे पूर्व आठवीं-दसवीं शती के बीच अपभ्रंशों के अरबी-फारसी के साथ सम्मिश्रणों से उपजी थी। सिंध प्रदेश इसके जन्म-स्थान की तरह था। इसलिए यह ‘सिंधवी’, ‘हिंदवी’, ‘हिंदी’ या हिंदुस्तानी कहलाई।
अरबी, फारसी, तुर्की की शब्दावली का असर इस हिंदी में आठवीं-दसवीं शती से ही दिखाई देना आरंभ हो जाता है। मूलत: यह भाषा उपजी तो ‘शौरसेनी’, ‘पैशाची’ और ‘मगही’ से थी, परन्तु उस संक्रमण काल में कभी यह प्रश्न नुमाया नहीं होता कि इस मिली-जुली भाषा में संस्कृत का वर्चस्व होगा, कि अरबी-फारसी का।
तो जो लोग मध्य एशिया से आकर भारत के सांस्कृतिक परिदृश्य का हिस्सा हो गए उन्हें हिंदी को हिंदी बनाने का वास्तविक श्रेय दिया जा सकता है। इस कसौटी पर खरे उतरने वालों में बारहवीं शती के महत्वपूर्ण कवि का नाम है- फरीदुद्दीन शकरगंज पाक पटन। हालांकि उनकी भाषा पैशाची से अधिक प्रभावित थी। इसलिए वह पंजाबी के निकट अधिक लगती है, लेकिन यह भी गौरतलब है कि उस दौर तक पंजाबी और हिंदी में कोई विशेष फर्क दिखाई नहीं देता। इसलिए ग्रियर्सन को आधुनिक काल में भी यही लगता रहा कि पंजाबी हिंदी की एक उप-भाषा ही है। फिर तेरहवीं शती में आते हैं अमीर खुसरो। हिंदी को उसके आधुनिक खड़ी बोली वाले रूप तक विकसित करने का श्रेय अगर किसी कवि को दिया जा सकता है, तो वह अमीर खुसरो ही है।
तो यहां अब सवाल यह पैदा होता है कि यदि हिंदी को हिंदी के रूप में गढ़ने का बुनियादी काम मुसलमान सूफियों के द्वारा किया गया था, तो 18 वीं-19वीं शती में उसी हिंदी के भीतर उर्दू के रूप में एक अलग उपभाषा खड़ी करने की ज़रूरत ही क्यों आन पड़ी थी? हमारे इस सवाल का जो दूसरा सिरा है, वह यह है कि यदि भारत की अखंडता और सांस्कृतिक समन्वयन के पर्याय के तौर पर हिंदी, हिंदोस्तानी के रूप में अपना काम बखूबी कर रही थी, तो उस फोर्ट विलियम कॉलेज के आचार्यों को ऐसी हिंदी की ज़रूरत क्या आ गई थी, जो संस्कृत की ओर उन्मुख होकर ऐसी भाषा प्रतीत हो, जो उर्दू से अलग दिखाई दे सके?
इस विवेचन से स्पष्ट हो सकता है कि 19वीं शती में हिंदी और उर्दू के तौर पर ‘हिंदी’ का जो कृत्रिम अंतर्विभाजन हुआ, वह चूंकि ‘अवैज्ञानिक’ था, इसलिये हमारे परिदृश्य में अब इनके बीच की सरहदें खुद ब खुद गिरती दिखाई देने लग रही हैं। जैसा कि ऊपर उद्धृत पाकिस्तान की खबर कथाओं से स्पष्ट है।
यह एक शुभ संकेत है। क्योंकि जैसे-जैसे हमारे इस पूरे दक्षिण एशियायी क्षेत्र में एक ऐसी हिंदी का चलन और अधिक जन-स्वीकृति पाता जाएगा, वैसे-वैसे हम इससे कुछ और बेहतर परिणाम निकलते देख सकेंगे।
संस्कृत व अरबी-फारसी की शब्दावली की बहुलता, भाषा में एक ‘रूपवादी’ रुझान है। वह भाषा के चेहरे-मोहरे या कहें कि उसकी ‘सतह’ से अधिक बावस्तगी रखता है। जैसे-जैसे भाषा में यह रूपवादी जकड़बंदी ढीली पड़ती है, वैसे-वैसे हम उसकी ‘अंतर्वस्तु की मुक्ति’ के शुभ संकेत पाने की संभावनाओं से युक्त होते जाते हैं।
साहित्य के क्षेत्र में कथा-परिदृश्य, हिंदी-उर्दू की किसी ‘सांझी दुनिया की कहानी’ कहता दिखाई देता है। फिल्मों में हमें उसी का और अधिक जन-प्रचलित रूप सामने आया है। वे जैसे पूरे दक्षिण-एशियायी सांस्कृतिक पर्यावरण की सांझी जुबान बोलती प्रतीत होती हैं। भाषा के मामले में कथा की यह भूमिका श्प्रगतिशील मालूम पड़ती हैं।
कथा ने भाषा के तल पर हिंदी और उर्दू के बनावटी विभाजन का अतिक्रमण, बीसवीं सदी में, अंग्रेज़ काल में ही करना आरंभ कर दिया था। हमारे सभी बड़े कथाकार प्रेमचंद से लेकर उपेन्द्रनाथ अश्क, रहबर और राजेन्द्र सिंह बेदी तक कभी-कभार दोनों भाषाओं में एक ही कहानी या उपन्यास को प्रकाशित करवाते दिखाई देने लगे थे। उसमें ज्यादा दिक्कत थी भी नहीं। मंटो जैसे लेखक ऐसी भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे, जो हिंदी और उर्दू-दोनों की दुनियाओं में आसानी से खप जाती थी।
आज़ादी के बाद वह चलन समाप्त हो गया कि कथाकार हिंदी और उर्दू दोनों में, भाषा के थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ, मौजूद नज़र आए। शुरुआती तौर पर शायद थोड़ा-बहुत ‘मूलवादी रुझान’ भारत और पाकिस्तान में दिखाई दिया, परन्तु जल्द ही उस ‘शुद्धतावाद’ की ज़रूरत, कम-से-कम कथा के लिए पूरी तरह समाप्त हो गई। आज आप भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के कथाकारों की कृतियां उठा लीजिये, देशों की भिन्नता के बावजूद, ये तीनों देश, भाषा के मामले में, लगातार करीब आते हुए दिखाई दे जाएंगे। इस्मत चुगताई, तस्लीमा नसरीन, इंतजार हुसैन, भीष्म साहनी, राही मासूम रजा या कृष्णा सोबती की कृतियां किसी देश-विशेष या भाषा-विशेष की कृतियां हों, इस बात से सहमत होना उत्तरोत्तर कठिन होता जाता है।
अब हम इसी बात के दूसरे पहलू पर आते हैं। उसका ताल्लुक है भविष्य में अग्र-विकास की दिशाओं के संभावित रूपों की पहचान के साथ। कथा ने एक रास्ता दिखाया है। एक सांझी ज़ुबान में, रचनाशील होने की संभावना का। वह देशों की भौगोलिक सरहदों को निरस्त करने का काम करती हैं।
सांस्कृतिक तल पर इस तथ्य की गहराई में जाना अर्थ-पूर्ण होगा। इससे हम कथा की ‘अर्थ-मीमांसा’ से जुड़े एक गौरतलब सवाल तक पहुंच जायेंगे। वह यह कि कथा, समाजेतिहास की वैकल्पिक विकास-दिशाओं की खोज का रचनात्मक धरातल पर रूपायन होती है। कथा की मार्फत गोया किसी भी मुल्क के समाज का इतिहास, ‘नयी परिणितियां’ पाता हुआ ‘मुक्त’ हुआ करता है। कथा, इतिहास का रचनात्मक विकल्प होती है। उसे मुक्त कर सकने की सामर्थ्य, उसे अन्य विधाओं की तुलना में ज्यादा प्रगतिशील बनाती है। इसीलिए आधुनिक समाजों में जहां-जहां सामाजिक रूपांतर की ज़रूरतें प्रगति-धर्मी होने का प्रयास करती नज़र आती हैं, कथा की रचनाशीलता में भी एक अभूतपूर्व उछाल दिखाई देने लगता है।
दक्षेस मुल्कों में कम-से-कम यही हो रहा है। कथा के तल पर भारत-पाक-बांग्लादेश पारंपरिक विभाजन-मूलक सांप्रदायिकता से धीरे-धीरे थोड़ा बहुत उबरते जाते हैं। उसी अनुपात में कथा अधिकाधिक ‘बेबाक’ होकर, लोगों की ‘सांझी जुबान’ में अपनी ‘अलग परिणितियां’ खोजने निकल पड़ी लगती हैं। बेशक राष्ट्रवादी रुझान भी बीच-बीच में, उसे सांप्रदायिकता की ओर भी, दोबारा धकेलने की कोशिश करते रहते हैं।
साझेपन की मानसिकता के विस्तार के लिए समर्पित कुछ फिल्मों के नाम यहां लिए जा सकते हैं। इस संदर्भ में ‘खुदा के लिए’ को देख लीजिये। पाकिस्तान का मुल्लावाद-प्रतिरोधी अंतर्मन, वहां अभिव्यक्ति के लिपे छटपटाता नज़र आ जाएगा। उसी कड़ी में हमारे यहां आई कुछ फिल्मों के नाम हैं- ‘ओ माई गॉड’ या ‘पी के’। इन कथाकारों व फिल्मों के नाम यहां एक खास अर्थ में लिए गए हैं। यहां हिंदी और उर्दू के शुद्धतावादी संस्कृतकरण या फारसीकरण से बाहर आने के लिए, ‘रूपवादी’ संरचनाओं की बजाय, ‘अंतर्वस्तु’ के विस्फोटक अभिव्यक्ति-रूप नुमाया हो गए हैं।
अब अगली बारी ‘विमर्श’ की है। अब रास्ता खुल गया है। इसे कथा ने खोला है। अब ‘क्लासिकल टेक्स्ट्स’ के ‘विमर्श-मूलक विखंडन’ का दौर प्रकट हो सकता है। उससे, संस्कृत-फारसी के वर्चस्ववाद को खारिज करने का ‘ज्ञान मूलक आधार’ पुष्ट हो सकता है। इससे ‘सांझी ज़ुबान’ का प्रचलन, हमारे अवाम का सजक चुनाव हो सकेगा। यहां से दक्षेस के लिये ही नहीं, पूरे मध्य-एशिया के लिये धी, किसी सांझे सांस्कृतिक मंच से, किसी एक ही ज़ुबान में अपनी आवाज़ बुलंद कर सकने की उम्मीदें, और गहरा सकती हैं। (समाप्त)
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