‘माई री, मैं कासे कहूं पीर’

‘समझ में नहीं आ रहा कि बात कहां से शुरू की जाए।’ अड़सठ वर्षीय राहुल माथा रगड़ते हुए बोला था।
‘क्या परेशानी है भाई?’ विनोद ने कुर्सी पर पहलू बदला। वह कल ही दिल्ली से शिमला आया था। यह दोनों ही बचपन के दोस्त थे, दूसरे शब्दों में लंगोटिया यार भी कह सकते हैं। जिसे भी समय मिलता तो वह दूसरे के पास पहुंच जाता। कभी विनोद शिमला आ जाता तो कभी राहुल ही दिल्ली जा पहुंचता और अपने बचपन को याद करके ये दोनों प्रौड़ फिर से बच्चे बन जाते।
‘विनोद! तुम्हें सदानन्द की याद है क्या?’ विनोद कुछ और कहता उससे पहले ही राहुल ने विनोद से उलट कर पूछ लिया।
‘वो, जो हमारा सहपाठी था बीए में। उसे कैसे भूल सकता है कोई?’
‘हां! वही सदानन्द।’ राहुल की आंखें चमकने लगीं।
‘कम्बख्त के गले में जैसे के.एल. सहगल की आत्मा आ बैठी थी। पर तुम्हें अचानक आज सदानन्द कैसे याद आ गया? क्या तुम जानते हो कि वह कहां है?’ विनोद ने पूछा।
‘हां! यही कोई दो-तीन महीने पहले एक दिन अचानक मिल गया।’
‘कहां? कहां है वो और कैसा है? पर तुमने उसे पहचाना कैसे इतने सालों के बाद?
‘ठीक कहते हो। मैं उसे शायद ही पहचान पाता। इस उमर में हम सबके ही तो हुलिया बदल जाते हैं, भला कैसे पहचानेंगे एक-दूसरे को, लेकिन भला हो उसके सुरीले कंठ का और उसके फेवरेट मीरा के पद का कि मैं उसे तुरन्त ही पहचान गया कि यह हमारा सदानन्द ही है।’
‘बताओ... बताओ जल्दी से। मुझे पूरी बात बताओ, कहां है? क्या कर रहा है?’ विनोद उतावला हो उठा, ‘यार! किस ज़माने की याद दिला दी तुमने। वाह! क्या ज़माने थे न। अब जबकि हम सब सहपाठी रिटायर होकर घर बैठे हैं। वह कॉलेज का ज़माना और वे साथी। कोई टकला हो गया है तो किसी के मुंह में दांत ही नहीं हैं। सबकी शक्लें बदल गई हैं, कैसे एक-दूसरे को पहचान सकते हैं पर वह तुझे मिला कैसे और हालचाल क्या हैं उसके?’ विनोद अपने सहपाठी का नाम सुनकर ही अत्यधिक उत्साहित हो गया था, जबकि राहुल बस उसे देखता ही जा रहा था।
ये दोनों मित्र भी तो पैंसठ से ऊपर ही थे।
‘अरे बोल यार। कहां है वह, चल चलते हैं उससे मिलने।’ राहुल को चुप देखकर विनोद फिर उतावला होने लगा।
‘सब्र कर भाई! तू तो कॉलेज वाला विनोद हो गया फिर से। अब हम सब सठियाए हुए हैं। सदानन्द भी मनाली ही बस गया है, पतली कुहुल में। चलते हैं किसी दिन।’
‘चल ठीक है। पर अब बता भी दे, तुझे कब, कहां और कैसे मिल गया हमारा प्यारा-सा दोस्त?’
‘मुझे किसी ने बताया था कि मनाली और पतली कुहुल के रास्ते में एक किसान ने खरगोश पाल रखे हैं। उनकी ऊन उतार कर कर वह उससे शॉलें बनवाता है। खरगोश और शॉलें? अजीब-सा कनेक्शन लगा मुझे। फिर खोजबीन की तो पता चला कि यह बात सच है। यह एस.डी. फार्म इस इलाके में काफी मशहूर था। मन किया कि चलकर देखना चाहिए कि यह काम कैसे हो सकता है, क्योंकि उसके कारोबार की बहुत चर्चा थी। बस निकलना ही नहीं हो पा रहा था। कोई न कोई काम आड़े आ जाता।’ राहुल ने बड़े ही ठहरे अंदाज में अपनी बात जारी रखी।
 ‘उस दिन मैंने पक्का मन बनाया कि मुझे यह एस.डी. फार्म देखना ही है। यह देखना है कि खरगोश जैसे कोमल जीव के बाल कैसे उतारे जा सकते हैं और कैसे उनसे कारोबार किया जा सकता है, वह भी इतने बड़े पैमाने पर कि पूरे इलाके में उसकी चर्चा इस तरह होने लगे। तो बस निकल पड़े अपने राम मनाली के लिए एक दिन। ‘शिमला से मनाली पहुंचते-पहुंचते शाम होनी ही थी इसलिए मैंने रेस्ट हाउस में कमरा बुक करा लिया था। अगले दिन मैंने फार्म पर जाकर भाई का कारोबार देखा और हैरान होना ही था मुझे। वह बहुत बड़ा फार्म है, पूरी तरह व्यवस्थित। सैकड़ों की संख्या में लम्बे-लम्बे बालों वाले सफेद, भूरे, काले खरगोश पिंजरों से झांक रहे थे।फार्म में जिस इन्सान से मैं पहले मिला, वह फार्म का मैनेजर था।’
‘पर सदानन्द कहां चला गया? तू तो बस खरगोश ही देखने में मगन हो गया।’ विनोद को लगा कि राहुल विषय से हट रहा है।
‘नहीं, वहीं आ रहा हूँ। देखता जा।’
‘साहब खाना लगा दूँ?’ गोरखा पूछने आया तो राहुल उठते हुए बोला, ‘बाकी कल। चलो खाना खा लो। तूने भी तो लम्बा सफर किया है।’ गोरखा पलटकर भीतर चला गया। ‘यार! तेरे गोरखे ने तो काम ही बिगाड़ दिया सारा।’ विनोद अनमना हो उठा। उसे गोरखे का इस तरह टपकना अच्छा नहीं लगा था।
‘यार विनोद! यह शिमला है, दिल्ली नहीं और हम दोनों बुढ़ापे में कदम रख चुके हैं, और तुम भूल रहे हो कि हम अब कॉलेज के छात्र नहीं। अब हमारे लिए अपनी सीमा में रहना ही ठीक है।’ बात करते-करते अब तक वे डाइनिंग टेबल तक पहुंच चुके थे। ‘कहता तो तू ठीक ही है।’ विनोद भी कुर्सी खींच कर बैठ गया, ‘यार, सदानन्द के नाम ने ही मुझे वापस कॉलेज में पहुंचा दिया था।’ उसने प्लेट में खाना निकाला। दोनों ने भोजन किया और एक-एक कप कॉफी पीकर अपने-अपने कमरे में आ गये।
(क्रमश:)

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