सकारात्मक रही जयशंकर व जिनपिंग की बातचीत
एशिया के दो सबसे बड़े देशों के नेतृत्व द्वारा सामान्य राजनीतिक और आर्थिक संबंधों को बहाल करने के संकेत मिलने के साथ ही भारत-चीन द्विपक्षीय संबंधों में सुधार दिखाई देने लगा है। सोमवार को बीजिंग में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ भारतीय विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर की बैठक काफी गर्मजोशी से भरी रही। भारतीय मंत्री ने चीनी राष्ट्रपति को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दोनों की ओर से शुभकामनाएं दीं। डॉ. जयशंकर ने राष्ट्रपति शी जिनपिंग को द्विपक्षीय संबंधों में सुधार की उल्लेखनीय प्रगति से अवगत कराया, जिसका चीनी राष्ट्रपति ने भी तुरंत जवाब दिया।
डॉ. जयशंकर ने तियानजिन में चीनी विदेश मंत्री की मेजबानी में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के विदेश मंत्रियों की बैठक में भाग लिया। भारतीय विदेश मंत्री ने दक्षिण एशियाई क्षेत्र में आतंकवाद पर चर्चा में भाग लिया, जिसका मुख्य विषय इस वर्ष 22 अप्रैल को पहलगाम में आतंकवादियों द्वारा की गई हत्याएं थीं। उन्होंने आतंकवाद के विरुद्ध एससीओ सदस्यों, जिनमें पाकिस्तान भी शामिल था, द्वारा पूरी ताकत से लड़ने की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने पाकिस्तान का नाम लिए बिना ऐसी हत्याओं के दोषियों के विरुद्ध कार्रवाई की सख्त आवश्यकता पर भी बल दिया। पाकिस्तान के विदेश मंत्री डॉ. इशाकडार ने अपने संबोधन के दौरान डॉ. जयशंकर का विरोध करते हुए कहा कि भारत ने पहलगाम घटना के पाकिस्तान से संबंध का कोई सुबूत नहीं दिया है। यह भारत द्वारा अपने पड़ोसी के विरुद्ध युद्धोन्माद बनाए रखने का एक जान-बूझकर किया गया कदम था। हालांकि, पिछली एससीओ रक्षा मंत्रियों की बैठक की तरह इस घोषणा पर कोई आधिकारिक विवाद नहीं हुआ क्योंकि विदेश मंत्रियों की बैठक में इसकी आवश्यकता नहीं थी।
अब एससीओ के राष्ट्राध्यक्षों का शिखर सम्मेलन इस वर्ष सितम्बर में चीन के तियानजिन में होना निर्धारित है। सभी संकेत हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसमें भाग लेंगे और शी जिनपिंग, जो इसकी मेज़बानी कर रहे हैं, के साथ उनकी अलग से बैठक होगी। इससे भारतीय प्रधानमंत्री को चीन के राष्ट्रपति के साथ लम्बित द्विपक्षीय मुद्दों पर चर्चा करने और सामान्यीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का एक और अवसर मिलेगा, जिसकी शुरुआत पिछले साल अक्तूबर में रूस में कज़ान शिखर सम्मेलन में दोनों नेताओं की पिछली मुलाकात से हुई थी।
आइए हम अल्पकालिक और दीर्घकालिक, दोनों तरह के लंबित द्विपक्षीय मुद्दों पर नज़र डालें। सबसे पहले तिब्बत का मुद्दा और वर्तमान दलाई लामा, जो 90 वर्ष के हैं, के उत्तराधिकारी को लेकर विवाद। केंद्रीय कनिष्ठ मंत्री किरेन रिजिजू ने आधिकारिक तौर पर यह कह कर कुछ शुरुआती समस्याएं पैदा कीं कि दलाई लामा को अपना उत्तराधिकारी चुनने का अधिकार होगा। चीन ने इस पर आपत्ति जताई, लेकिन विदेश मंत्रालय ने जल्द ही यह कह कर स्थिति को सुधार लिया कि भारत उत्तराधिकार की इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं करेगा। यही सही स्थिति है। अगर भारत इस पर कायम रहता है तो तत्काल कोई समस्या नहीं होगी, लेकिन आशंकाएं हैं कि अगर दलाई लामा अंतत: चीनी इच्छाओं के विरुद्ध अपने उत्तराधिकारी की घोषणा करते हैं, तो किसी प्रकार का चीनी हस्तक्षेप हो सकता है। तब भारत की स्थिति क्या होगी?
अगला मुद्दा ट्रम्प के टैरिफ युद्ध के संदर्भ में भारत-चीन व्यापार संबंधों को संभालने का है। चीन के पक्ष में एक बड़ा अनुकूल व्यापार संतुलन है। चीन के पूर्व भारत-विरोधी रुख़ को देखते हुए चीन से आयात कम करके व्यापार संतुलन को दुरुस्त करने की मांग उठती रही है। लेकिन हमारे अनुभवी वाणिज्य मंत्रालय के अधिकारियों ने इलेक्ट्रॉनिक्स और फार्मा, दोनों ही भारतीय उद्योगों पर किसी भी कठोर कार्रवाई के प्रतिकूल प्रभाव को भांप लिया है। इसलिए आयात कम करने की प्रक्रिया सोच-समझकर हो रही है। फिर भी 2025 में चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा 100 अरब अमरीकी डॉलर तक पहुंच सकता है।
इस समय भारत ट्रम्प के टैरिफ युद्ध के संदर्भ में वाशिंगटन में अमरीका के साथ एक अंतरिम व्यापार समझौते पर बातचीत के अंतिम चरण में है। अमरीका चीनी व्यापार को नुकसान पहुंचाने के लिए भारत को एक व्यापार केंद्र के रूप में भी इस्तेमाल करना चाहता है। चीन यह जानता है। इसलिए चीन ने पहले ही चेतावनी दे दी है कि जो देश चीनी निर्यात की कीमत पर अमरीका के साथ समझौता करेंगे, उन्हें चीन की कड़ी प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ सकता है। चीन दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। पिछले महीने लंदन में अमरीका के साथ हुए समझौते में चीन अपनी सौदेबाज़ी क्षमता के कारण अपने कई व्यापारिक क्षेत्रों को अमरीकी हमलों से बचाने में कामयाब रहा। अमरीका के साथ व्यापार वार्ता में भारत के पास चीन जैसी सौदेबाजी की शक्ति नहीं है। इसलिए यदि भारत को चीनी व्यापार को नुकसान पहुंचाने के अमरीकी आदेश का पालन करने के लिए मजबूर किया जाता है, तो इससे भारत-चीन व्यापार संबंधों में नई समस्याएं पैदा होंगी।
चीन पहले ही तमिलनाडु और कर्नाटक में फॉक्सकॉन के आईफोन कारखानों से चीनी इंजीनियरों को हटाकर भारतीय अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाकर अपनी शक्ति का प्रयोग कर चुका है। यदि भारत चीनी निर्यात को नुकसान पहुंचाने के उद्देश्य से किया गया अपना समझौता पूरा करता है, तो बीजिंग भारत पर इस तरह का और दबाव डाल सकता है। असमानताओं के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था गतिमान है। 2025 के अंत तक भारत दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में उभर सकता है।
अगले दो-तीन वर्षों में अमरीका और चीन के बाद भारत दुनिया में सबसे बड़ा देश बन जाएगा। फिर भी चीन की अर्थव्यवस्था भारत की अर्थव्यवस्था से छह गुना ज़्यादा है जबकि उसकी वर्तमान जनसंख्या लगभग उतनी ही है और वह 2049 तक जो चीन में कम्युनिस्ट सरकार के गठन का 100वां वर्ष होगा, अमरीका को टक्कर देने और दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के लिए दृढ़ संकल्पित है। (संवाद)