भारतीय आर्थिकता को नुकसान पहुंचाना चाहते हैं ट्रम्प

इस समय गंगा-जमुना में पानी तेज़ी से बह रहा है। यानी, इस मुहावरे के ज़रिये कहा जा सकता है कि राजनीतिक घटनाक्रम के आगे बढ़ने की रफ्तार बहुत तेज़ है। डोनाल्ड ट्रम्प ने ऐसा लगता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर हमला जैसा कर दिया है। 1990 में भूमंडलीकरण की शुरुआत से ही भारत निर्यातोन्मुख विकास के रास्ते पर चल रहा है। इस रास्ते पर उसे नरसिंहराव, मनमोहन सिंह और चिदम्बरम की तिकड़ी ने डाला था। फिर अटल बिहारी वाजपेयी समेत ़गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों ने इस रास्ते को और पुष्ट किया। नरेंद्र मोदी भी पिछले 11 साल से इसी रास्ते पर चल रहे हैं। यानी, ट्रम्प अच्छी तरह से जानते हैं कि अगर भारतीय अर्थव्यवस्था को होने वाली निर्यात की आमदनी पर चोट की जाए तो भारत आर्थिक रूप से थर्रा सकता है, और उस सूरत में उनकी शर्तों पर व्यापार समझौता करने की तरफ उसे धकेला जा सकता है। इसीलिए ट्रम्प ने चालाकी से 21 दिन का समय दिया है जिसके बाद दंड स्वरूप लगाये गये 25 प्रतिशत टैरिफ को लागू कर देंगे। इस दौरान भारत होमवर्क करके पता लगा सकता है कि ट्रम्प के टैरिफों से उसे कहां चोट लगने वाली है। यह लगभग तयशुदा है कि अगर भारत ने ट्रम्प की बात नहीं मानी तो ये टैरिफ लगे रहेंगे। जिस दवा उद्योग पर यह पैनल्टी नहीं लगी है, मुझे लगता है कि दूसरे दौर में उस पर भी पैनल्ट लगा दी जाएगी। 
डोनाल्ड ट्रम्प और राहुल गांधी ने कुछ भी कहा हो, लेकिन इस प्रश्न पर बहस करना बेमतलब है कि क्या भारत की अर्थव्यवस्था मर चुकी है या जीवित है। दरअसल, एक बहुमुखी और गहरी जड़ों वाली इस अर्थव्यवस्था की मृत्यु की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अगर कभी इसके एक या दो सेक्टर खराब प्रदर्शन करते हैं, तो दूसरे सेक्टरों का अच्छा प्रदर्शन उसे संभाल लेता है। अमरीका के राष्ट्रपति और भारतीय संसद में विपक्ष के नेता भी इस हकीकत को जानते हैं। दरअसल, ट्रम्प ने यह बात चिढ़ कर रही है क्योंकि वे भारत से अपने मन का वाणिज्य समझौता हासिल करने में अभी तक नाकाम हैं। हालांकि उनकी कोशिशें जारी हैं और 25 प्रतिशत टैरिफ की घोषणा को दबाव डालने के हथकंडे के तौर पर भी देखा जा सकता है। राहुल गांधी ट्रम्प की ऑपरेशन सिंदूर में भूमिका के कड़े आलोचक हैं। पर, इस मामले में उनकी सहमति किसी मसले को तीखे ढंग से रेखांकित करके चर्चा के केंद्र में लाने के लिए ओजक वक्तव्य देने की युक्ति के रूप में देखी जानी चाहिए। विपक्ष के लिए ऐसा करना उस समय ज़रूरी हो जाता है जब दूसरा पक्ष लगातार अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर पेश करने में लगा हो, और मीडिया की तरफ से वह तस्वीर ठीक से प्रश्नांकित न की जा रही हो।
दरअसल, हम अर्थव्यवस्था की ‘मृत्यु’ और उसके ‘अमृतकाल’ के बीच खड़े हैं। अर्थव्यवस्था प्रगति की संभावनाओं से सम्पन्न है। पर ये संभावनाएं भविष्य के गर्भ में हैं। इसका वर्तमान मुश्किलों और संकटों से भरा हुआ है। यह एक ऐसा मुकाम है जिस पर होने वाली चूकें हमारे भविष्य को हाशियाग्रस्त कर सकती हैं। सरकार, उसके थिंक टैंक, और समर्थक जिन आंकड़ों के आईने में अर्थव्यवस्था को दुनिया के पैमाने पर ऊंचाइयां नापते दिखाना चाहते हैं, उनकी कमज़ोरी ऊपरी परत ज़रा सी खुरचने पर ही साफ हो जाती है। मसलन, कहा जाता है कि भारत के सेवा-क्षेत्र ने निर्यात (जैसे आईटी) के मामले में शानदार कामयाबी हासिल की है। लेकिन, अगर ग्लोबल ट्रेड के संदर्भ में देखा जाए तो भारत का उसमें हिस्सा केवल 4.6 प्रतिशत ही है। यही हालत माल या वस्तुओं के निर्यात की है। ग्लोबल ट्रेड का वह 2 प्रतिशत से भी कम है। हम जानते हैं कि नब्बे के दशक से ही भारतीय अर्थव्यवस्था निर्यातोन्मुख विकास के पैटर्न पर चलायी जा रही है। ट्रम्प द्वारा भारतीय निर्यात पर भारी टैरिफ लगाने के कारण पैदा हुई बेचैनियों का कारण यही है। इस टैरिफ से ग्लोबल ट्रेड में ये मामूली से प्रतिशत और नीचे चले जाएंगे। 
कई बातें एक अजीब तरह के राष्ट्रवादी गर्व के साथ एकतरफा अंदाज़ में बयान की जाती हैं। जैसे 2024 के अंत में प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो ने दावा किया कि सन् 2000 के बाद से भारत का एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) एक ट्रिलियन (खरब) डॉलर तक पहुंच गया है। यह आंकड़ा सुनने में कितना भी आकर्षक लगे लेकिन यह ग्लोबल एफडीआई का केवल ढाई प्रतिशत है। जब कोविड का वायरस दुनिया में फैलाने के कारण मिली बदनामी की वज़ह से चीन से निवेश का पलायन हो रहा था, तो सरकारी नैरेटिव यह चलाया गया कि इससे भारत को बहुत फायदा होगा लेकिन क्या ऐसा कोई फायदा हुआ। भारत में वह निवेश आया, लेकिन केवल 10 से 15 प्रतिशत के बीच। भारत के विशाल मध्यवर्ग की सुनहरी तस्वीरें बहुत उकेरी जाती है लेकिन उसकी कमज़ोर क्रयशक्ति हमारे बाज़ार को उपभोग की ऊंचाइयों पर पहुंचाने में असमर्थ है। भारत में उपभोग बढ़ने की रफ्तार केवल 3 प्रतिशत है। इसीलिए निर्यात पर उसकी निर्भरता और बढ़ जाती है। पर्यटन विदेशी मुद्रा बढ़ाने का एक बड़ा ज़रिया माना जाता है लेकिन अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों के भारत आगमन की वृद्धि दर केवल 1.5 प्रतिशत है। अभी-अभी प्रधानमंत्री ने दावा किया है कि भारत का प्रतिरक्षा बजट पिछले दस साल में कई गुना बढ़ गया है लेकिन जीडीपी के संदर्भ में इस बजट की वृद्धि दर केवल 2 प्रतिशत पर रुकी हुई है। जहां तक विज्ञान और प्रौद्योगिकी में नये मुकाम हासिल करने का सवाल है, भारत न जाने कब से इस क्षेत्र में पूरी तरह से अप्रासंगिक बना हुआ है। 
अर्थव्यवस्था की प्रगति नापने का एक मापदंड है नॉमिनल जीडीपी। यानी, एक वर्ष में सभी उत्पादित चीजों और सेवाओं का कुल मूल्य जिसे वर्तमान मूल्यों के आधार पर जोड़ा जाता है। ‘हमें गर्व है’ की शैली में दावा किया जा चुका है कि इस नॉमिनल जीडीपी में हम ब्रिटेन के बराबर हो गये हैं। असलियत क्या है? 2021 में भारत की प्रति व्यक्ति आय 2250 डॉलर थी, और ब्रिटेन की 46,115 डॉलर। 2025 में आते-आते ब्रिटेन के लिए यह आंकड़ा बढ़ कर 54,949 और भारत के लिए 2879 हो गया। यानी, ब्रिटेन ने इस दौरान प्रति व्यक्ति आमदनी 8,000 बढ़ा दी, और भारत केवल 600 डॉलर बढ़ा पाया। 2011-12 से पहले (यूपीए के शासन में) भारतीय अर्थव्यवस्था कई वर्ष तक 8-9 प्रतिशत की बेहतरीन दर से बढ़ी। लेकिन, 2014 के बाद से ही यह वृद्धि दर औसतन छह प्रतिशत के आस-पास ही चल रही है। अब ज़रा अपने पड़ोसी चीन की प्रगति पर ़गौर कीजिए। 1987 में नॉमिनल जीडीपी में भारत और चीन तकरीबन बराबर थे। 1990 में चीन थोड़ा आगे बढ़ा, लेकिन इस समय 2025 में उसका जीडीपी भारत से 4.6 गुना अधिक है। वह एक मैन्य़ुफेक्चरिंग जाइंट बन चुका है। प्रौद्योगिकी के अनुसंधान और विकास के मामले में उसकी तुलना अमरीका से की जाती है। भारतीय अर्थव्यवस्था की समस्याएं पुरानी हैं लेकिन इनका समाधान ‘अमृतकाल’ का नैरेटिव चलाने से नहीं होने वाला।
 लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।

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