शराबबंदी पर देशव्यापी बहस की आवश्यकता है

बेंग्लुरु के फ्रीडम पार्क में 25 नवम्बर, 2025 को हज़ारों महिलाएं कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी हुई थीं। वह कर्नाटक के कोने-कोने से आयी थीं इस मुख्य मांग का समर्थन करने के लिए कि शराब पर पाबंदी लगायी जाये और अवैध बिक्री के विरुद्ध सख्त कार्यवाही की जाये। इस राज्य-व्यापी विरोध प्रदर्शन का आयोजन अनेक महिला संगठनों ने संयुक्त रूप से किया था। इस प्रदर्शन में गुन्जाहल्ली, रायचुर से लक्ष्माम्मा भी मौजूद थीं अपने 18 वर्षीय पोते का फोटो लिए हुए, जिसे अब शराब की लत पड़ गई है। उनका कहना है, ‘हर दिन इस डर से आरंभ होता है कि घर का कोई मर्द शराब के नशे में धुत होकर लौटेगा और फिर से हम महिलाओं की पिटाई करेगा।’ 62 वर्षीय लक्ष्माम्मा के लिए शराब अमूर्त नीति मुद्दा नहीं है; शराब की वजह से उन्होंने अपने पति को खोया, बेटे को इसकी लत में पड़ते हुए देखा और अब उसी रास्ते पर अपने पोते को चलते हुए देख रही हैं। उनका सवाल है, ‘हम कितने और बच्चों को खोयेंगे? शराब तो हमारे परिवारों को जिंदा खा गई है। सरकार को हमारे जैसे परिवारों की सुरक्षा करनी चाहिए और शराब पर पाबंदी लगा देनी चाहिए।’ उनकी बातें सुनकर मैराज फैज़ाबादी का शेर सहज ही याद आ गया- ‘मयकदे में किसने कितनी पी खुदा जाने मगर/मयकदा तो मेरी बस्ती के कई घर पी गया।’ 
पिछले एक दशक से अधिक से चल रहे इस आंदोलन का यह प्रदर्शन नवीनतम अध्याय है, जो दबाव डालने वाला और बहुत अधिक व्यक्तिगत रहा। शराब की लत सबसे खामोश सामाजिक संकट है, इसलिए आंदोलनकारी महिलाएं चाहती हैं कि शराब पर पाबंदी लगे। इस मांग का माना जाना कठिन प्रतीत होता है। यह अनुमान अकारण नहीं। शराब से राज्य सरकारों के पास अच्छा खासा राजस्व आता है, जिसे वे खोना नहीं चाहतीं। जिन राज्यों में शराबबंदी है, जैसे गुजरात व बिहार, उनमें शराब की अवैध बिक्री होती है। नकली शराब से मौतों की अक्सर खबरें सामने आती रहती हैं, इसलिए शराबबंदी हटाने की मांग उठती रहती है। दरअसल, प्रतिबंधित फल हमेशा मीठा प्रतीत होता है, जो जब वैध तरीके से नहीं मिलता तो लोग अवैध तरीके से हासिल करने का प्रयास करते हैं। यही वजह है कि कई राज्यों को अपनी शराबबंदी नीति को वापस लेना पड़ा, मसलन हरियाणा को। 
बहरहाल, फ्रीडम पार्क में जो गुस्सा देखने को मिला वह नया नहीं था। तीस से अधिक संगठनों ने मिलकर मद्यनिषेध आंदोलन पिछले लगभग दस वर्षों से चलाया हुआ है। इनके प्रमुख विशाल प्रदर्शन 2016, 2018, 2019, 2023 और अब 2025 में हो चुके हैं। इसके अतिरिक्त छोटे-छोटे प्रदर्शन तालुका व ज़िला स्तर पर सालभर जारी रहते हैं। इसके बावजूद महिलाओं का कहना है कि कुछ भी परिवर्तन नहीं आया है। लक्ष्माम्मा की आपबीती देशभर की बेशुमार महिलाओं की कहानी है। शराब-संबंधी जटिलताओं के कारण उनके पति का निधन सात वर्ष पहले हुआ था। दैनिक दिहाड़ी पर मज़दूरी करके उन्होंने अकेले दम पर दो बेटियों व एक बेटे की परवरिश की। वह खेतों पर सुबह से शाम तक मजदूरी करतीं लेकिन अगली पीढ़ी के साथ शराब की लत ने उनके घर में फिर से प्रवेश किया। 
फ्रीडम पार्क में सिंधनूर से महबूबा फिरदौस भी आयी हुई थीं। उनके चार बेटों में से केवल एक ही शराब से दूर रहा। उन्होंने बताया, ‘शराब के नशे में मेरे बेटे मुझे पीटते हैं। कोई पड़ोसी हस्तक्षेप नहीं करता। हम किसके पास जायें?’ एक अन्य महिला ने अपना दुखड़ा इस तरह से सुनाया, ‘मेरा बेटा शराब पीने के बाद अपनी पत्नी की पिटाई करता था। उसकी पत्नी उसे छोड़कर चली गई। इसके बाद भी उसने शराब पीना जारी रखा और एक दिन उसके शरीर ने उसका साथ छोड़ दिया। हमारे पास उसका दाह संस्कार सही से करने के भी पैसे नहीं थे। अब मेरे पोते को मज़दूरी करने के लिए अपना स्कूल छोड़ना पड़ा है। यह सब कुछ कब तक चलता रहेगा?’ महिलाओं ने बताया कि किस तरह शराब ने उन्हें कम आयु में विधवा कर दिया, बच्चों को घर चलाने के लिए मेहनत मज़दूरी करनी पड़ती है, घर कज़र् और गरीबी में डूब जाता है। चाहे लाइसेंस की दुकानें हों या किराने की दुकानें या घरों में बिकती अवैध शराब, हर जगह शराब आसानी से मिलने लगी है, विशेषकर युवा लड़कों के लिए। 
कर्नाटक में यह प्रावधान 2016 तक जारी था, जब तत्कालीन सरकार ने उसे हटा दिया। प्रदर्शनकारी महिलाएं इस प्रावधान की बहाली चाहती हैं और वह भी सख्त नियमों के साथ कि 10 प्रतिशत ग्रामसभा सदस्यों को अनुमति को वीटो करने का अधिकार दिया जाये, जैसा कि कुछ राज्यों में है। इसके अतिरिक्त उनकी यह भी मांग है कि महिला समितियों को शराब का अवैध धंधा कर रहे घरों, किराने की दुकानों, स्टॉल्स या शेड्स बंद कराने का कानूनी अधिकार हो। कर्नाटक पंचायत राज कानून में सामाजिक न्याय के लिए अतिरिक्त समितियां गठित करने का प्रावधान है और इन शक्तियों का विस्तार अवैध शराब बिक्री बंद कराने के लिए किया जा सकता है। मुख्यमंत्री सिद्दारामैया ने प्रदर्शनकारी महिलाओं से मुलाकात करने के बाद उनकी मांगों का संज्ञान लेने का आश्वासन दिया है लेकिन इस सिलसिले में कुछ होना मुश्किल ही लगता है। शराबबंदी पर अभी तक अनेक सर्वे हो चुके हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के डाटा के अनुसार, शराबबंदी के बाद शारीरिक या भावनात्मक हिंसा का सामना करने वाली विवाहित महिलाओं का प्रतिशत काफी कम हुआ है। 2023 के एक सर्वे के मुताबिक, 70 प्रतिशत परिवारों ने माना है कि उनके घर के पुरुषों द्वारा शराब न पीने से उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर हुई है। अधिकतर महिलाओं ने बताया कि शराब न होने से घर में शांति और सम्मान बढ़ा है। बिहार में 5 अप्रैल 2016 में शराबबंदी के बाद से शराब की वैध बिक्री लगभग शून्य हो गई है, जिससे खपत में गिरावट भी आयी है लेकिन बिहार में नकली शराब पीने से लोगों की मौतें भी हुई हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने 2023 में आदेश दिया था कि ‘एक एक घर में पता करें कि कौन (शराबबंदी के) पक्ष में है और कौन खिलाफ है’। इस सर्वे का क्या हुआ, यह तो मालूम नहीं, लेकिन नितीश कुमार का दावा है कि उनके राज्य में ‘वर्तमान में 99 प्रतिशत महिलाएं और 92 प्रतिशत पुरुष शराबबंदी के पक्ष में हैं’ और वह यह कहना भी नहीं भूलते कि ‘चाहे जो हो जाये बिहार ड्राई स्टेट रहेगा’। लेकिन यह सोच अन्य राज्यों में नहीं है; क्योंकि कोई भी शराब से मिलने वाले मोटे राजस्व को छोड़ना नहीं चाहता, भले ही शराब से कितने ही परिवार बर्बाद हो रहे हों। दरअसल, शराबबंदी पर देशव्यापी बहस की ज़रूरत है और यह भी कि परिवारों को इसके कुप्रभावों से कैसे बचाया जाये।  -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

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