समर्थ को नहीं दोष गोसाईं

देखते ही देखते हम आधुनिक हो गये। यह आधुनिकता मूल्यहीनता की उर्वर भूमि से पैदा हुई है। नये ज्ञान के जागरण से पैदा नहीं हुई, जाली डिग्रियों के सुविधा परस्त रास्ते पर चलने से पैदा हुई है। विद्वान कहते थे, समाज का चेहरा बदल कर डिजिटल हो रहा हो। यह ताकत तुझे पांच जी, छ: जी से आगे लेजा कर, ग्रामीण और परम्परागत आदर्शों की कैद से निकाल कर, अन्तर्राष्ट्रीय बना देगी। बेशक आज  आदमी अन्तर्राष्ट्रीय हो गया, जो अपने ही किसी विदेशी दोस्त की कृपा से रखे पुरस्कार को अपने आप को ही प्रदान करके अन्तर्राष्ट्रीय हो कहलाना चाहता है।
सपनों को देखने की प्रक्रिया ने अपनी मासूमियत खो दी। अब वे आपकी कल्पना और आदर्शों का मधुर सुमेल नहीं चैट जी.पी.टी. जैसे वाचाल हो गये हैं। नतीजा अध्यवसाय मरा, पुस्तक संस्कृति मरी, पुस्तक संस्कृति के मरने का तरीका शार्टकट संस्कृति की पगडंडी से निकल गया। डिजिटल और इन्टरनैट शक्ति से युक्त हो गए हो न, इसलिए पहले पुस्तकों की सच्चाई को आदमी की हथेली पर सरसों जमा लेने की भावना ने मारा। उसका अध्यवसाय पहले पुस्तकों के अध्ययन की जगह किण्डल के पाठ तक सिमटा, फिर किण्डल पाठ भी सिमट गया। बन्दे को अध्यवसाय का लम्बा रास्ता इस इंस्टैंट कॉफी के ज़माने में नहीं चाहिये, इसलिए किण्डल पढ़ने की मुसीबत भी कौन ले? गूगल पाठ कर लो, और ज्ञान का संक्षिप्त संस्करण हो जाओ।
लेकिन ज़माना तो वाचालता का है। अपना ढिंढोरा खुद पीटने का है। इसलिए चैट जी.पी.टी. का ईजाद हमारे वैज्ञानिकों ने कर लिया है। अब सपने देखो नहीं, झोर के सपने सच होने के विश्वास की ज़रूरत को त्याग दो। चैट जी.पी.टी. का बटन दबाओ, अपने किसी भी सपने का साकार रूप कागज़ पर देख लो। बुद्धिहीन और मूर्ख शब्द खत्म हो गया। आदमी ने कृत्रिम मेधा का आविष्कार कर लिया। अब उसी ने आपकी बुद्धि का स्थान ले लिया, और आदमी को और भी तिजारती कर दिया। आपके लिए कविताओं -कहानियों से लेकर विशेष अवसरों पर बोलने के संवाद तक कृत्रिम मेधा लिख रही है। अब कलाकार जन्म जात नहीं होंगे। वो दिन आ गये, जब उनके लिए हर तरह की रचना और कलाकृतियां कृत्रिम मेधा बनाएगी। आप बटन दबाएंगे और कवि, कहानीकार और नाटककार उस द्वारा उत्पन्न कहानियों से अलंकृत हो जाएंगे। मौलिकता मरेगी। मशीन ने पहले आदमी की मासूमियत और आदर्शों को मार कर उसे मशीनी बना दिया। अब इस यान्त्रिक होते आदमी ने अपने लिए एक ऐसा स्वकेन्द्रित संसार रच लिया, कि जिसमें से संवेदना, भावुकता और हमदर्दी गायब हो गई। केवल वाचालता बाकी रह गई। झूठे संवादों से छवि निर्माण शेष रह गया और आदमी अपने लिए रोबोट पैदा करके एक मिनी ईश्वर हो जाने का भ्रम जीने लगा।लेकिन सबके लिए मशीनें खरीदना तो महंगा होता है। इन मशीनों पर निर्भर करोगे, तो कभी-कभी यह अपना आपा खो कर अपने सृजनहार को ही निगलने आ जाएगी। फिर इन्हें खरीदना और इन्हें चलाना सीखना भी तो कठिन है। इस आराम पसन्द दुनिया में इन मशीनों को कौन खरीदने जाये?
मशीनों से रचनाएं पैदा करके रचनाकार, कलाकार व लेखक ही बनना है न! खुद ही आधुनिकता के नाम पर संवेदनहीन मशीनी और एक दूसरे की अनुकृति जैसा लेखन करने लगो। कृत्रिम मेधा की मशीनों का सहारा लेने की ज़रूरत ही क्या है? अपने अन्दर की कृत्रिमता का पौधा उगा उसे वट-वृक्ष बना लो, बिना मशीन के मशीनी सफलता प्राप्त कर लोगे। और अब लोग कतार लगा कर ऐसा ही करते नज़र आने लगे हैं।
ज़िन्दगी बाज़ार हो गई। यहां अब आपके लिए पुस्तक लिख कर देने वाले प्रेत लेखक अपनी योग्यता को नीलाम करते नज़र आते हैं। यही योग्यता से नहीं, पहले पुरस्कार और उपाधियां जुगत भिड़ाने से मिलती थीं, अब सोशल मीडिया उठा कर देख लीजिये, बाकायदा पुरस्कारों और उपाधियों की सेल लग गई है। जिसकी दुकान न चले, वह उस पर डिस्काऊंट भी देने लगे हैं।
धंधे बदल गये, और धंधाबाज़ भी। धन का महत्त्व बढ़ा और उसे प्राप्त करने के लिए सांप सीढ़ी के खेलों को कोई नहीं देखता कि कल के फटीचर के पास इतना धन किस रास्ते से आया? बस धनी होते ही उसकी छवि बदल गई, उसका सम्मान बढ़ गया, और हर रुतबे की जगह उसके परिवारवाद की सुरक्षा नज़र आने लगी। इसीलिए तो आज साइबर तरक्की का अर्थ साइबर अपराधों की तरक्की हो गया है। कृत्रिम मेधा की तरक्की अथवा आर्थिक विकास का द्रुत हो जाना नहीं, ‘डीप फेक’ का उस पर हावी होकर किसी भी झूठ को सच बना देना है। ऐसे  झूठ को पहले पैदा किया जाता है, फिर दुनिया तक उसका प्रचार किया जाता है, और बाद में स्वयं भी अपने झूठ को अपना सच मान कर उस पर विश्वास करना। आज सब कहावतें बदल गईं। केवल एक ही सच रही, समर्थ को नहीं दोष गोसाईं। बन्धु।
 

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