दिल्ली में भाजपा और ‘आप’ दोनों को लगा झटका
दिल्ली में भाजपा और आम आदमी पार्टी (आप) दोनों को सबक मिला है। चुनाव ज्यादा बड़ा नहीं था लेकिन दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) की 12 सीटों के नतीजों से दिल्ली के लोगों ने एक राय प्रकट की है। लोगों ने भाजपा को बड़ा झटका दिया है। भाजपा पहले से जीती हुई नौ में से दो सीटों पर चुनाव हार गई है। एक सीट पर उसको ‘आप’ ने हराया तो दूसरी सीट पर कांग्रेस ने हराया। हालांकि भाजपा के नेता संतोष कर रहे है कि उनका वोट प्रतिशत बढ़ा है, लेकिन इससे दो सीटें हारने की भरपाई नहीं हो सकती। लग रहा है कि महिला सम्मान योजना के पैसे नहीं दिए जाने, मोहल्ला क्लीनिक से लोगों की छंटनी, बस मार्शल को स्थायी नहीं करने और प्रदूषण के मामले ने भाजपा को नुकसान पहुंचाया है। कांग्रेस ने संगम विहार की सीट जीती है। यह मामूली बात नहीं है। यह ‘आप’ के लिए झटका है। वैसे यह सीट कांग्रेस ने भाजपा से छीनी है, लेकिन भाजपा से नाराज़ लोग ‘आप’ की ओर न जाकर कांग्रेस के साथ गए हैं, यह ‘आप’ के लिए झटका है। उसे दूसरा झटका चांदनी महल सीट पर लगा है, जहां उसकी पार्टी छोड़ने वाले शुएब इकबाल ने अपनी रिश्तेदार को ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक की टिकट पर चुनाव जीता दिया। वहां दूसरे स्थान पर भाजपा रही। इसका अर्थ है कि मुसलमानों के बीच भी ‘आप’ को लेकर बहुत सकारात्मक माहौल नहीं है।
मोदी सरकार ने एक और फैसला बदला
केन्द्र सरकार ने एक बार फिर अपना फैसला बदला है। हालांकि फैसला बदलने का यह क्रियान्वयन किस्तों में आया, लेकिन आ गया। दूरसंचार विभाग ने एक आदेश जारी करके कहा था कि अब अगले 90 दिन में हर स्मार्ट फोन में ‘संचार साथी’ ऐप प्री इंस्टाल होगा। स्मार्ट फोन बनाने वाली कंपनियों को इसका निर्देश दे दिया गया था और टीवी चैनलों के ज़रिये जनता को इसके फायदे समझाए जाने लगे थे, लेकिन जब इसका विरोध तेज़ हुआ और विपक्ष के साथ-साथ सिविल सोसायटी और सरकार के इकोसिस्टम के लोगों ने भी विरोध शुरू किया तो सरकार की ओर से कहा गया कि यह ऐप प्री-इंस्टाल तो होगा लेकिन अगर यूज़र चाहें तो इसे डिलीट कर सकते हैं। जब इस पर भी विरोध जारी रहा तो अगले दिन यानी बुधवार को कहा गया कि यह ऐप प्री-इंस्टाल नहीं होगा। यह केन्द्र सरकार का नया यू-टर्न (फैसला बदलना) है। इससे पहले ‘आरोग्य सेतु’ ऐप को भी सरकार ने अनिवार्य बनाने की पहल की थी और विरोध होने पर उसे अपने कदम पीछे खींचने पड़े थे। पिछले ही साल ब्रॉडकास्टिंग सर्विसेज बिल पर भी सरकार पीछे हटी और डाफ्ट वापस लिया। उससे पहले 2021 में भारी विरोध के बाद तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लेने के फैसले की तो खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषित की थी। उससे भी पहले शुरुआत 2015 में ही हुई थी जब केन्द्र सरकार ने विवादास्पद भूमि अधिग्रहण विधेयक वापस लिया था।
राजभवन का नाम लोकभवन
पिछले एक दशक के दौरान कई शहरों, गांवों, कस्बों, रेलवे स्टेशनों, हवाई अड्डों, संस्थाओं, इमारतों और सड़कों के नाम बदले गए हैं। ऐसा करना भाजपा की केन्द्र और राज्य सरकारों का खास शौक है, इसलिए नाम बदलने का सिलसिला अभी भी जारी है। दिल्ली में राजपथ का नया नाम कर्त्तव्य पथ, केन्द्रीय सचिवालय का नाम कर्त्तव्य भवन, रेसकोर्स रोड का नाम लोक कल्याण मार्ग किया गया है, उसी तर्ज पर अब प्रधानमंत्री कार्यालय का नाम सेवा तीर्थ और राज्यों की की राजधानियों में स्थिति राजभवनों का नाम लोकभवन कर दिया गया है। सवाल है कि नाम बदलने से होता क्या है? अब राज्यपालों के निवास राजभवन को ही लें। देश में पिछले कुछ सालों के दौरान मुख्य चुनाव आयुक्त के बाद अगर कोई संवैधानिक पद सबसे ज्यादा बदनाम हुआ है तो वह है राज्यपाल का पद। वैसे यही सबसे ज्यादा बेमतलब का पद भी है। इसीलिए भारी भरकम खर्च वाले इस संवैधानिक पद की उपयोगिता पर अक्सर सवाल उठते रहते हैं। सवाल उठाने का मौका भी कई राज्यपाल खुद ही अपनी निरर्थक और असंवैधानिक हरकतों से उपलब्ध कराते हैं। ऐसे ज्यादातर राज्यपाल उन राज्यों के होते हैं जहां केन्द्र में सत्तारूढ़ दल के विरोधी दल की सरकारें होती हैं। विगत कुछ सालों से तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल, पंजाब, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों में राजभवन भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय में तब्दील हो चुके हैं और वहां के राज्यपाल विपक्ष के नेता की भूमिका में काम कर रहे हैं, जिससे आए दिन विवाद होते रहते हैं। इसलिए ज़रूरत राज्यपालों के कामकाज का ढंग बदलने की है, न कि राजभवनों का नाम बदलने की।
बंगाल में चुनाव आयोग की चुनौतियां
विवादों से घिरे चुनाव आयोग के सामने पश्चिम बंगाल में हर दिन नई-नई चुनौती सामने आ रही है। सरकार की ओर से असहयोग, अधिकारियों का असहयोग, बूथ लेवल अधिकारियों (बीएलओ) का संगठन बना कर विरोध प्रदर्शन आदि चुनौतियों से तो चुनाव आयोग निबट ही रहा था कि इस बीच उसके सामने नई चुनौती आ गई हैं। हज़ारों मतदान केन्द्रों से सौ फीसदी मतगणना प्रपत्र जमा हो रहे हैं। चुनाव आयोग की ओर से बताया गया है कि 22 सौ से ज्यादा मतदान केन्द्रों पर सौ फीसदी मतदाता प्रपत्र भर कर वापस लौटे हैं। इनमें सबसे ज्यादा 750 से ज्यादा बूथ अकेले उत्तरी 24 परगना के हैं। इसके अलावा नादिया, दक्षिण 24 परगना, मिदनापुर, माल्दा आदि के भी बूथ है। चुनाव आयोग ने इस पर ज़िले के अधिकारियों से रिपोर्ट मांगी है, क्योंकि ऐसा हो नहीं सकता है कि पिछले 22 साल में किसी इलाके में एक भी मतदाता की मौत नहीं हुई हो या कोई स्थायी तौर पर शिफ्ट नहीं हुआ या कोई अपने घर से गैर-हाज़िर नहीं हो या किसी का नाम एक से ज्यादा मतदान केंद्र पर न हो। इन चार श्रेणियों के कारण हर मतदान केन्द्र पर सात-आठ फीसदी तक मतगणना प्रपत्र कम भरे जा रहे हैं। लेकिन 2,208 मतदान केन्द्रों से सौ फीसदी फॉर्म लौट आए हैं। हो सकता है कि कुछ और जगहों से ऐसा देखने को मिले।
पवार और देवगौड़ा की पारी समाप्ति की ओर
पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवगौड़ा और महाराष्ट्र के सबसे बड़े नेता शरद पवार की संसदीय पारी समाप्त होती लग रही है। शरद पवार ने लोकसभा का चुनाव लड़ना बंद किया तो अपनी बेटी सुप्रिया सुले को बारामती सीट सौंप दी। उसके बाद से शरद पवार राज्यसभा में हैं। इस बार उनकी पार्टी सिर्फ 10 विधानसभा सीट जीत पाई है। इसीलिए सवाल है कि वह कैसे राज्यसभा जाएंगे? महाराष्ट्र में विपक्षी गठबंधन महाविकास अघाड़ी को कुल 51 सीटें मिली हैं। इनमें उद्धव ठाकरे की शिव सेना के 20, कांग्रेस के 16 और शरद पवार की पार्टी के 10 विधायक है। इनकी मदद से राज्यसभा की एक सीट जीती जा सकती है। अगर तीनों पार्टियां चाहे तो शरद पवार को फिर से राज्यसभा भेज सकती हैं। इसी तरह पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा की लम्बी पारी के भी खत्म होने का समय आ गया है। देवगौड़ा की उम्र 90 साल से ज्यादा है और उन्होंने अपनी लोकसभा सीट अपने पोते को सौंप दी। अब उनका राज्यसभा का कार्यकाल समाप्त हो रहा है और सिर्फ 19 सीटें जीती उनकी पार्टी अपने दम पर राज्यसभा की सीट नहीं जीत सकती। राज्य में अगले साल चार सीटें खाली हो रही हैं। इनमें से एक सीट भाजपा को मिल सकती है। अगर भाजपा उदारता दिखाए तो ही देवगौड़ा राज्यसभा जा सकते हैं, लेकिन वह देवगौड़ा के लिए यह सीट छोड़ देगी, इसमे संदेह है। वैसे देवगौड़ा की उम्र को देखते हुए यह भी हो सकता है कि उन्हें आराम दे दिया जाए।





