अधूरा रह जाने का उत्सव

दुनिया बदल गई है! आजकल दावों, घोषणाओं और सफलता के मिथ्या आंकड़ों का उत्सव मनाया जाता है, और अपूर्ण रह जाने पर सवाल उठाने को अनुशासनहीनता। सड़कों से लेकर शहरों तक के नाम बदलने का आज हमने इतिहास बना दिया, और इसे देश से विलुप्त होती हुई सांस्कृतिक गरिमा की पुनर्स्थापना बता दिया, लेकिन साथ ही इस सच को स्वीकार भी लिया, कि यहां ‘कथनी और करनी’ में अन्तर होता है। कर्त्तव्य पथ पर कर्त्तव्यच्युत लोग चलते हुए नज़र आते हैं, और लोक पथ पर लोगों को लोक जीवन की बेहतरी के ठेके आजकल धनी प्रासादों को दिये जाने लगे हैं। बेशक आर्थिक शक्ति की ऊंची सीढ़ी पर एक पायदान और चढ़ जाने की घोषणा का हम अपने कर्णधारों के भाषणों में उपलब्ध हो जाने पर हर्ष मनाते रहते हैं, क्योंकि आजकल ‘सब चलता है’ ही एक ऐसी भावना बन गई है, कि जिसे स्वीकार किये बिना जीना कठिन है।
‘सब चलता है’ की धारणा को आदत नहीं बनाएंगे, तो भला अपने महान हो जाने की शार्टकट को अपनी संस्कृति कैसे बनाये रखेंगे? देश में तरक्की बहुत हो गई है। सबसे पहले तो हमने अपनी महाशक्ति मनाने का उत्सव विश्व के बाहुबलियों के गले लग कर मना लिया है। देश प्रसन्न है क्योंकि बाहुबलियों ने हमें गले से लगाने के काबिल समझ लिया, और उन्होंने हमें अपना प्रिय मित्र होने का दर्जा दे दिया। लेकिन हमारी इच्छाएं बहुत बड़ी हैं, और लक्ष्य पूरा हो जाने का भ्रम आसमान बन गया है।
ऐसा नहीं कि देश में समस्याएं नहीं हैं, लेकिन उन समस्याओं की पहचान जीवन जीने के स्तर पर नहीं, बल्कि मीडिया के शीर्षकों में होती है। शीर्षक बताते हैं कि आबादी के लिहाज़ से हमारा देश चीन को पछाड़ कर नम्बर एक हो गया, लेकिन इस पर गर्व कैसे करें, क्योंकि इतनी बड़ी आबादी के आधे लोग युवा होने के बावजूद अपने आपको असमय बूढ़ा महसूस करते हैं। उन्हें विसंगतियों में जीने की आदत हो गई है, और वे कार्य योग्य हो जाने के बावजूद नौकरियां पाने की खिड़कियों के बाहर नहीं, उपकार बांटने की दुकानों के बाहर खड़े नज़र आते हैं। यहां कर्म की नहीं, दान की भावना की संस्कृति युग सत्य बन गई है, और सस्ता अनाज बांटने की खिड़कियों के जीवन के चिरजीवी हो जाना तरक्की का पैमाना बन चुका है। शार्टकट संस्कृति के साथ-साथ सम्पर्क संस्कृति का भी बोलबाला हो गया है। हर व्यक्ति अपने आपको प्रशासन, समाज या राजनीति में किसी न किसी सफलता से मंडित व्यक्ति के समीप होने का उनका भाई-भतीजा होने की घोषणा करने की फिराक में लगा है। यहां तरक्की का अर्थ यह है कि आदमी अपने मूल्यों में परिवर्तन कर किसी न किसी सफल आदमी का खूंटा हो जाने का जश्न मना ले। यह अलग बात है कि खूंटे तो वहीं दीवारों पर गढ़े रह गए, और उन खूंटों का सहारा लेकर चतुर सुजान उपलब्धि की छत पर पहुंच विजय का बकरा बुला रहे हैं।
आज जनता का सबसे बड़ा प्रतिशत बदलाव की घोषणाओं के बीच ‘अपने जहां थे वहां रहो’ जिसे यथास्थितिवाद कहते हैं, पर कोई प्रश्न नहीं उठाता। बल्कि प्रश्न न उठाने को अपनी सांस्कृतिक पहचान, या उसके वारिस धीरज और सहनशीलता को अपनी प्रवृत्ति बना गर्वित रहे हैं।
आज अतीत में लौटना हमारी सांस्कृतिक पहचान बन गई है। इस अतीत में कर्म है, समर्पण है। समर्पण हमने अपने समाज, राजनीति, प्रशासन और साहित्य के नये खुदाओं के प्रति अपना लिया, और कर्म को भ्रम में तबदील कर दिया। हम काम नहीं कर रहे, बल्कि उसके पूरे हो जाने का भ्रम पाल रहे हैं। इसलिए काम की परिभाषाएं बदल गई हैं। यहां नया काम बन गया है, सफल आदमियों का चंवर झुलाना, और उनके बड़प्पन का जयघोष हो जाना। इसीलिये तो यहां घोषणाओं के हो जाने के बाद उनके साकार हो जाने का नामोनिशान कहीं मिलता है तो धनियों के हर युग में बहुमंज़िला होते जाने के प्रासादों में मिलता है। देश की युवा पीढ़ी उपकृत हो जाने की कतारों में खड़ी असमय बुढ़ा रही है, और हर चुनाव घोषणा में अपने लिए काम की परियोजनाएं तलाश करने के स्थान पर मुफ्तखोरी की नई रेवड़ियां बांटने का इंतज़ार करती है। मेहनत मजदूरी करके पेट पालना बीते युग का फैशन हो गया क्योंकि पेट पालना है तो तरक्की का मतलब महलों के साये में मुफ्त राशन या मुफ्त सुविधाओं के बंटने की प्रतियोगिता में नई घोषणाओं की दौड़ बन गया है। बेशक हम आर्थिक विकास के शीर्ष पर इस दुनिया में चल रहे हैं, लेकिन यह विकास दर बड़े आदमियों के सामने बेमोल नज़र आता है, और मुरम्मत की गई सड़कें फिर से टूट-टूट कर उनका जश्न मनाती हैं। अध-बने पुल अपने अधूरेपन में सफलता का प्रसाद बांटते हैं और देश की एक्सप्रैस सड़कें बढ़ती हुई दुर्घटनाओं के आंकड़ों का प्रसाद। हर प्रसाद बंटने पर हम कृत-कृत्य हो जाते हैं, और उससे पैदा अधूरेपन को एक चिरन्तन सत्य मान कर उसे आध्यात्मिकता से मुक्ति के वैकल्पिक राह पर डाल देते हैं। इसी बहाने एक दिन दुनिया का गुरुदेव हो जाने का सपना पालते हैं। आमीन।

#अधूरा रह जाने का उत्सव