ज़रूरी है मानवाधिकारों के प्रति जागरूक होना
हम प्रत्येक वर्ष 10 दिसम्बर को मानवाधिकारों का उत्सव मनाते है। इस दिन की स्मृति में जब संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1948 में मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को अपनाया था। यह घोषणा हमारे समाजों के मानवाधिकार ढांचे की रीढ़ है, जहां हम में से प्रत्येक को बिना किसी भेदभाव के शांति और सुरक्षा के साथ रहने का अधिकार है। 1950 में संयुक्त राष्ट्र ने 10 दिसम्बर को विश्व मानवाधिकार दिवस मनाना तय किया था। 75 वर्ष पहले पारित हुआ विश्व मानवाधिकार घोषणा पत्र एक मील का पत्थर है, जिसने समृद्धि, प्रतिष्ठा व शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के प्रति मानव की आकांक्षा प्रतिबिंबित की है। आज यही घोषणा पत्र संयुक्त राष्ट्र का एक बुनियादी भाग है। 2025 में मानवाधिकार दिवस की थीम हमारी दैनिक अनिवार्यताएं तीन सरल सत्यों पर ज़ोर देती हैं—मानवाधिकार सकारात्मक हैं, मानवाधिकार आवश्यक हैं और मानवाधिकार प्राप्य हैं। मानवाधिकार वे मूल अधिकार हैं, जो इस धरती पर प्रत्येक व्यक्ति के पास हैं। मानवाधिकारों में जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार, गुलामी और यातना से मुक्ति, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, काम और शिक्षा का अधिकार के अतिरिक्त बहुत कुछ शामिल है। बिना किसी भेदभाव के हर कोई इन अधिकारों का हकदार है।
भारत में 28 सितम्बर, 1993 से मानवाधिकार कानून अमल में आया। 12 अक्तूबर, 1993 में सरकार ने राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का गठन किया था। आयोग के कार्यक्षेत्र में नागरिक और राजनीतिक के साथ आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार भी आते हैं—जैसे बाल मज़दूरी, स्वास्थ्य, भोजन, बाल विवाह, महिला अधिकार, हिरासत और मुठभेड़ में होने वाली मौत, अल्पसंख्यकों और अनुसूचित जाति और जनजाति के अधिकार। पूरे विश्व में इस बात को अनुभव किया गया है और इसीलिए मानवीय मूल्यों की अवहेलना होने पर वे सक्रिय हो जाते हैं। इसके लिए हमारे संविधान में भी उल्लेख किया गया है। संविधान में हमारे मानवाधिकारों की रक्षा का प्रावधान है।
राजनेता मानवाधिकार की बात तो ज़ोरशोर से करते हैं। मगर जब अधिकार देने की बारी आती है तो पीछे खिसकने लगते हैं। राजनेताओं को पता है कि यदि लोगों को उनके अधिकार मिल गये तो तो उनकी नेतागिरी बन्द हो जायेगी। हमारे देश के संविधान में नागरिकों को बहुत-से अधिकार दिये गये हैं, मगर उन पर क्रियान्वयन नहीं हो पाता है। मानवाधिकारों की रक्षा के लिये बनाये गये कानून महज़ कागज़ों में सिमट कर रह जाते हैं।
भारत एक ऐसा देश है जिसके मूल में मानवाधिकार की अवधारणा है। भारत विश्व स्तर पर आज भी मानवाधिकार का समर्थन करता रहा है। मानवाधिकार दिवस की नींव विश्व युद्ध की विभीषिका से पीड़ित लोगों के दर्द को समझ कर और उसको महसूस कर रखी गई थी। किसी भी इंसान की ज़िन्दगी, आज़ादी, समानता और सम्मान के अधिकार का नाम ही मानवाधिकार है। भारतीय संविधान इन अधिकारों की न सिर्फ गारंटी देता है, बल्कि इनका उल्लंघन करने वाले को अदालत के माध्यम से सज़ा भी देता है।
पूरी दुनिया में मानवता पर हो रहे ज़ुल्मों को रोकने तथा उसके खिलाफ संघर्ष को तेज़ करने में इस दिवस की महत्वपूर्ण भूमिका है। हर शख्स को समानता का अधिकार देना लोकतंत्र का अहम घटक है। यही वजह है कि आज सरकार इस अधिकार को कायम करने की कोशिश कर रही है। मानवाधिकार हमारे अस्तित्व और दुनिया में आत्म-सम्मान से रहने की गारंटी होते हैं। हमारी भौतिक और आत्मिक सुरक्षा बरकरार रखते हुए निरन्तर विकास में अहम भूमिका निभाते हैं। इसके अंतर्गत भोजन का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, शोषण से रक्षा का अधिकार, प्रवास का अधिकार, बाल शोषण व उत्पीड़न पर रोक, महिला हिंसा, असमानता, धार्मिक हिंसा पर रोक जैसे कई मज़बूत कानून बनाए गए हैं। यही वजह है कि हर लोकतांत्रिक देश मानवाधिकारों की दृढ़ता से पैरवी करते नज़र आते हैं। व्यक्ति को कुछ अधिकार परिवार देता है तो कुछ समाज, कुछ अधिकार देश देता है, तो कुछ दुनिया। लेकिन आज भी दुनिया में बहुत से लोग ऐसे हैं जो या तो अपने अधिकारों से अंजान है या उनके अधिकारों का हनन हो रहा है। समाज में मानवाधिकारों के होने वाले उल्लंघन के प्रति अगर मानव ही जागरूक नहीं है तो फिर इनका औचित्य क्या है?
सरकारें भी मानवाधिकारों का हनन रोक पाने में पूर्णतया सफल नहीं हो पा रही हैं। देश में आये दिन मानवाधिकारों के हनन की घटनाएं घटित होती रहती हैं। सरकारी स्तर पर ऐसी कोई कड़ी कार्रवाई नहीं की जाती, जिससे भविष्य में इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृति पर रोक लग सके। यह कितना दुर्भाग्यपर्ू्ण है कि प्रादेशिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय सरकारी और गैर-सरकारी मानवाधिकार संगठन होने के बावजूद मानवाधिकारों का लगातार हनन होता रहता है।
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