आदिवासी समाज की विदक्ष स्त्री

कुछ ही दिन पहले अखबारों में छपी झारखंड के धनबाद क्षेत्र में आदिवासी महिलाओं से संबंधित खबर ने देश भरके सभ्य समाज को सिर शर्म से झुका लेने पर विवश कर दिया। झारखंड के धनबाद में अपनी सियासत को हवा देने के लिए घटवार आदिवासी महासभा के नेता रामाश्रय सिंह ने आदिवासी परिवार की महिलाओं की निर्वस्त्र तस्वीरें सोशल मीडिया पर डाल दीं। उसने आदिवासी महिलाओं की तस्वीरों को राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को बतौर ज्ञापन और प्रैस की विज्ञप्ति के रूप में भेज दीं। सिमपाथर गांव की महिला कार्यकर्ता ने बेटे की नौकरी की मांग को सामने रखते हुए खुद ही ये तस्वीरें खिंचवाई थीं। परन्तु वहां एक शर्त रखी गई थी कि उक्त तस्वीरें राज्य सरकार को ही भेजी जाएंगी परन्तु निर्वस्त्र तस्वीरें सार्वजनिक हुई और सार्वजनिक होने की बात उनके गांवों तक पहुंच गई। ज़ाहिर-सी बात है कि आदिवासी समाज को इस बात पर कूपित होना ही था। आदिवासी समाज को भी मान-सम्मान उतना ही प्रिय है जितना सभ्य समझे जाने वाले समाज को अथवा जिसे हम मुख्यधारा के समाज के रूप में जानते हैं। निर्वस्त्र आंदोलन (इसे आन्दोलन कहा जाए या नहीं, इस पर सवाल हो सकता है) में शामिल कालोजी हेम्ब्रम के पति छरा धन हेम्ब्रम का कहना है कि वह भी तस्वीर खिंचवाते समय पत्नी के साथ था। तस्वीरें एक महिला कार्यकर्ता खींच रही थी और रामाश्रय ने उन लोगों को विश्वास में लेकर तस्वीरें खिंचवाई थीं। जब यह तय था कि तस्वीरें सार्वजनिक नहीं की जाएंगी तब रामाश्रय उन तस्वीरों को इंटरनेट पर कैसे डाल सकते हैं। क्या भूल और अपराध के बीच का फर्क इतना महीन है कि दिखाई भी न दे। आंदोलन से जुड़ी पं. बंगाल और जामताड़ा (झारखंड) की महिलाएं इस बात से बहुत नाराज़ हैं। उक्त आंदोलन में कार्य कर रही महिला बहामुनी हेम्ब्रम का कथन है- मैं विस्थापित परिवार से हूं। डी.बी.सी. ने ज़मीन के बदले नौकरी नहीं दी। इसलिए अन्य लोगों के साथ मिलकर आंदोलन कर रही हूं। बेटे को नौकरी मिल जाएगी, ऐसा सोच निर्वस्त्र हुई थी। वे तस्वीरें सिर्फ खास लोगों के पास थीं, सभी के बीच आने से शर्मसार हुई।आदिवासी परिवारों के पास पूंजी नहीं होती, जिससे ये जीवन यापन के लिए कोई छोटा-मोटा धंधा कर पाएं। नौकरी का प्रलोभन ऐसे परिवारों के लिए कितना बड़ा स्वप्न हो सकता है, इसे समझा जा सकता है। यदि कोई मां अपने पुत्र की नौकरी के लिए निर्वस्त्र होकर तस्वीर खिंचवाने को तैयार हो सकती है, तो यह गरीबी, अभाव, बेरोज़गारी की पराकाष्ठा ही कही जा सकती है। हम रोजी-रोटी के मसले पर ही कितना कुछ खो रहे हैं। दूसरी तरफ सरकारें विकास की प्रशंसा करते चुप नहीं होतीं। राजनीति यदि साहित्य संस्कृति से कोई सबक लेने को तैयार नहीं तो उसे उच्ऋृंखलित होने में देर नहीं लगती। वह बिना अंकुश के हावी हो सकती है। अब इतना अनर्थ होने के बाद यदि रामाश्रय यह कहते हैं कि उनके फेसबुक अकाऊंट से आपत्तिजनक तस्वीरें डाली गई हैं इसके लिए उन्हें अफसोस है। वह दिल से दुखी हैं। वह इन तस्वीरों से संबंधित सभी पोस्ट हटा लेंगे। गलती हो गई तो क्या इसे मामूली बात माना जा सकता है? वह इसे आंदोलन में शामिल महिलाओं की सहमति को अपने बचाव का हथियार बना रहे हैं।आदिवासी इलाके के लोगों को सदा उपेक्षा झेलनी पड़ी है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी उल्लेखनीय सुधार देखने में नहीं आये। वहां पचास सालों से जीवन की बेहतर स्थितियों के लिए आंदोलन चल रहा है। आपको साल 1956 की तरफ देखना हो। दामोदर वैली कार्पोरेशन (डी.वी.सी.) ने झारखंड, पश्चिम बंगाल के 240 गांवों के बारह हज़ार परिवारों से ज़मीन का अधिग्रहण किया था। धनबाद, जामताड़ा, पुरुलिया और वर्धमान ज़िला के किसानों की ज़मीन अधिग्रहित की गई। विस्थापितों के अनुसार 38 हज़ार एकड़ ज़मीन और 5 हज़ार घर किसानों के लिए गए थे। तय यह हुआ था कि प्रत्येक विस्थापित परिवार के एक सदस्य को नौकरी दी जाएगी। कुल 9500 नौकरी देने पर सहमति बनी। डी.वी.सी. ने 500 वास्तविक विस्थापितों को ही नौकरी दी। दावा है कि नौ हज़ार फर्जी विस्थापित नौकरी पा गये। असली विस्थापित इसे लेकर पचास साल से आंदोलन कर रहे हैं। चौथी पीढ़ी संघर्ष कर रही है। मांग मनवाने के लिए विस्थापितों को निर्वस्त्र तक होना पड़ गया। राजनीति को साहित्य संस्कृति से काफी कुछ सीखना होगा। नहीं तो मनमाने फैसले होंगे।