बीसीसीआई आखिर कब समझेगा क्रिकेटर भी इन्सान हैं ,सुपर हीरो नहीं 

आजकल टैलीविजन पर 25 साल की प्रतीक्षा से संबंधित एक विज्ञापन खूब प्रसारित किया जा रहा है जिसमें यह बताने का प्रयास है कि हमारी क्रिकेट टीम पिछले 25 वर्ष से दक्षिण अफ्रीका का दौरा कर रही है, लेकिन अब तक उसे टैस्ट श्रृंखला जीतने में सफलता नहीं मिली है और अब यह इंतजार समाप्त हो जायेगा। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए श्रीलंका के खिलाफ हाल की घरेलू टैस्ट श्रृंखला में ऐसी उछाल लेती हुई तेज पिच बनाने का प्रयास किया गया जिनकी दक्षिण अफ्रीका में मिलने की संभावना है जबकि अब तक घरेलू मैचों के लिए स्पिन लेती पिचों पर बल दिया जा रहा था। सवाल  क्या यह योजना काम आयेगी?अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में वापसी के बाद दक्षिण अफ्रीका ने 1991 में अपना पहला दौरा भारत का किया था। अंतिम एक दिवसीय दिल्ली में खेला गया जो कि डे-नाईट था। उसे दक्षिण अफ्रीका ने 47 वें ओवर में जीता। इस मैच के दो दिन बाद भारतीय टीम लीलैक हिल, पर्थ (ऑस्ट्रेलिया) में वार्म-अप मैच खेल रही थी। अगले दिन उसने वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ खेला और पूरी टीम मात्र 64 रन पर सिमट गई। टीम ने अपना पहला तीन-दिवसीय मैच न्यू साउथ वेल्स से एक पारी से हारा। विदेशी दौरे पर पांच दिन की तैयारी पर्याप्त नहीं थी। भारतीय टीम ऑस्ट्रेलिया से टैस्ट श्रृंखला 0-4 से हारी। हमारे क्रिकेट प्रशासकों ने तय किया कि फिर कभी ऐसा नहीं होगा। लेकिन इसके बावजूद बिना पर्याप्त तैयारी समय, जल्दबाजी में यात्रा और पराजय का सिलसिला अक्सर जारी रहा। 2011 में यह इंग्लैंड में हुआ और उसी सत्र में ऑस्ट्रेलिया में हुआ जब भारत ने प्रत्येक टैस्ट हारा।अब यही दक्षिण अफ्रीका में भी हो सकता है, जहां एक भी वार्म-अप गेम के बिना भारत सीधा टैस्ट मैच खेलेगा। श्रीलंका सीरीज के तुरंत बाद भारत दक्षिण अफ्रीका जायेगा और पहुंचने के मात्र तीन दिन बाद ही केपटाउन में पहला टैस्ट मैच शुरू हो जायेगा। जो लोग इतिहास से सबक नहीं लेते वह अपनी गलतियां दोहराते रहते हैं। यह बात हर कोई जानता है, शायद बीसीसीआई के अधिकारियों को छोड़कर। श्रीलंका के साथ अर्थहीन श्रृंखला के दौरान भारतीय कप्तान विराट कोहली ने कहा था, ‘हमेशा की तरह हमारे पास (तैयारी करने के) समय का अभाव है। हमें भविष्य में इस बात पर ध्यान देना चाहिए। हम यह नहीं देखते हैं कि किसी विशेष स्थान पर खेलने से पहले हमारे पास कितना समय तैयारी का है।’ इसके बाद कोहली दौरा पूर्व के बहाने में धंसते हुए प्रतीत हुए, ‘जब टैस्ट मैचों के बाद नतीजे आते हैं तो हर कोई खिलाड़ियों पर निर्णय देने लगता है। फेयर गेम होना चाहिए, जहां हमें अपने अनुसार तैयारी करने का अवसर मिले और इसके बाद हमारी आलोचना की जा सकती है।’ इसलिए, अगर दक्षिण अफ्रीका में यह टीम हारती है तो इसकी आलोचना न की जाये या देर से पहुंचकर बिना तैयारी के भी अगर टीम जीत जाती है तो स्वीकार करें कि उसने कुछ अच्छा किया है। किसी भी भारतीय कप्तान को ऐसी विकट स्थिति में नहीं फंसाना चाहिए या टीम के भारतीय सीमा से निकलने से पहले ही यह नहीं सोचना चाहिए कि कप्तान को जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया जायेगा।बहरहाल, यह अकेले भारत की समस्या नहीं है। आधुनिक क्रिकेट वातावरण के अनुसार ढालने पर अधिक ध्यान नहीं देता है। बहुत ज्यादा मैच हो रहे हैं, अनेक फॉर्मेट हैं और इनके लिए बहुत कम अवसर हैं। खिलाड़ियों से इतने स्वस्थ व फॉर्म में तैयार होने की आशा की जाती है कि वह मुंबई में सोएं, केपटाउन में जागें और नाश्ते के बाद टॉस के लिए तैयार रहें। लेकिन वह मशीन या कॉमिक-बुक के सुपर हीरो नहीं हैं। यह टेलीविजन के ‘सुपरमैन’ का प्रभाव हो सकता है- जहां हीरोज को अक्सर एक्शन में देखा जा सकता है। कोई यह उम्मीद नहीं करता कि कोहली दांतों से बुलेट पकड़ेंगे या एक ही छलांग में बिल्डिंग पार कर जायेंगे, लेकिन कल्पनाओं में क्रिकेटर सुपर हीरो ही बन जाते हैं।टैलीविजन खिलाड़ियों को सुपर हीरो बना देता है, जिससे वह वास्तविकता से बहुत अलग और बड़े हो जाते हैं। तब यह भूलना आसान हो जाता है कि वह मानव नहीं हैं और यह भी कि जैसा अनजाने में कोहली ने शायलॉक की बात को दोहराया, चोट लगने पर उनको दर्द होता है। जो खिलाड़ी तीनों फॉर्मेट खेलते हैं, उन पर तिहरा दबाव पड़ता है। उन्हें न सिर्फ स्थितियों के अनुरूप अपने को ढालना होता है बल्कि अलग फॉर्मेट की जो अलग मांग है उसके अनुसार भी अपने को बदलना होता है। आज के क्रिकेट प्रशासन में ‘ढालना’ खराब शब्द प्रतीत होता है। 1971 में जब भारत ने इंग्लैंड में पहली बार टैस्ट श्रृंखला जीती थी तो पहला टैस्ट मैच खेलने से पहले उसने आठ फर्स्ट क्लास मैच खेले थे। 2014 में इनकी संख्या घटकर दो रह गई।