भारत पर विदेशी कर्ज का कसता शिकंजा

आखिरकार इस बात का खुलासा हो ही गया कि दुनिया में कच्चे तेल या क्रूड आयल की बहुत कम कीमतों के बाद भी आखिर हमारे यहां डीजल-पेट्रोल की कीमतें जरा भी कम क्यों नहीं हुईं ? जी हां,  इसका एक बड़ा कारण यही था कि हम पर ईरान के बढ़ते उधार का लगातार दबाव था और है, जो जाहिर है हमारे तेल आयात का ही है। मई 2016 में जब प्रधानमंत्री मोदी ईरान की यात्रा पर गए थे, तब तक हम ईरान के 43,000 करोड़ रुपये के कर्जदार हो चुके थे। जाहिर है यह कर्ज मोदी सरकार के दौर का नहीं था, लेकिन था तो देश का ही और कर्ज न अदा कर पाने के कारण ईरान का कई किस्म से दबाव हम पर बढ़ता जा रहा था। नतीज़तन जब प्रधानमंत्री मोदी ईरान की यात्रा पर गए तो चुपचाप 5,000 करोड़ रुपये की एक किस्त भी लेकर गए थे ? बहरहाल मार्च 2015 के अंत में हम पर जो अंतर्राष्ट्रीय कर्ज 475 अरब डॉलर था, वह अगले एक साल में कई किस्तें चुकाने के बाद भी बढ़कर 485.6 अरब डॉलर हो चुका था यानी साल भर में 10.6 अरब डॉलर या 2.2 प्रतिशत कर्ज एक साल के भीतर बढ़ गया था। अगर साल में कोई किस्त न चुकता की गयी होती तो यह बढ़कर करीब 11.4 अरब डॉलर पंहुच गया होता यानी 2016 में करीब 1 अरब डॉलर का कर्ज हर महीने बढ़ा। यह वाकई बहुत बड़ी धनराशि है। दुनिया के करीब 3 दर्जन  देशों का सकल घरेलू उत्पाद उतना नहीं है, जितना हम पर हर साल नया कर्ज लद रहा है। यह बात अलग है कि हमारी अर्थव्यवस्था जितनी बड़ी है उसको देखते हुए हमारा कर्ज प्रबंधन योग्य सीमा है। फि र भी यह बढ़ता विदेशी कर्ज इसलिए खतरनाक है; क्योंकि इसके कारण हम उन जगहों पर ज़रूरी खर्च नहीं कर पाते जहां करने की बहुत ज्यादा ज़रूरत है जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य। 
अगर हम हर साल जितना कर्ज और इस कर्ज पर जितना ब्याज अदा कर रहे हैं, वह न करना पड़े तो हम हर साल 100 मेडिकल कॉलेज, 50 आईआईटी और एम्स जैसे 20 हॉस्पिटल खोल सकते हैं। लेकिन यह सब इसलिए संभव नहीं हो पाता; क्योंकि हर महीने हम पर ब्याज पर मूल मिलाकर लगभग 1 अरब डॉलर का नया कर्ज चढ़ जाता है। पिछले साल मार्च तक देश में करीब 90.7 अरब डॉलर का सावेरन डेब्ट यानी प्रधान कर्ज था। जबकि गैर सरकारी ऋ ण करीब 395.5 अरब डॉलर था। ऐसा नहीं है कि भारत दुनिया का अकेला कर्जदार देश है। सच तो यह है कि आज की तारीख में विकास की परिभाषा ही बदल गयी है। विकास का मतलब ही खूब खर्च और बेफिक्री से कर्ज लेना हो गया है। यही कारण है कि दुनिया का हर वह देश जिसे ताकतवर समझा जाता है, वह कर्ज में गहरे तक धंसा है। किसी और की क्यों कहें भारत अपने जिस पड़ोसी को अपना दुश्मन नंबर वन समझता है या कहें प्रतिद्वंद्वी नंबर एक समझता है, वह चीन भी अच्छे खासे कर्ज में है। साल 2017 के अंत तक चीन पर कुल विदेशी कर्ज करीब 1437 अरब डॉलर था, जबकि भारत पर कर्ज 490 अरब डॉलर से थोड़ा ही ज्यादा था। लेकिन हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि चीन ने दूसरी तरफ  दुनिया को करीब 1100 अरब डॉलर का कर्ज खुद भी दे रखा है। ऐसे में जब हम उसके कुल कर्ज का निर्णायक विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि चीन का कर्ज उसकी अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने वाला और उसकी अधिसंरचना को बड़ा बनाने वाला है। जबकि भारत का कर्ज भारतीय अर्थव्यवस्था को कमजोर करने वाला या डर के जाल में फांसने वाला कर्ज है। हालांकि भारत ने भी चीन की तरह कुछ गरीब देशों को उनके विकास को, अधिसंरचनात्मक आधार देने वाला कर्ज दे रखा है लेकिन हम इससे न तो उपनिवेशवादी लाभ ले रहे हैं और न ही इसकी मंशा है। यही कारण है कि भारत का कर्ज भारत की अर्थव्यवस्था की हालत पतली करता है जबकि चीन का कर्ज चीन की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाता है। भारत पर बढ़ता विदेशी कर्ज इसलिए भी खतरनाक है क्योंकि यह हमारे नियंत्रण में नहीं है। यह हमारे न चाहने के बावजूद लगातार बढ़ रहा है। मसलन मार्च 2010 में हम पर विदेशी कर्ज रुपये में 1,178,638 करोड़ रुपये था जो मार्च 2015 में बढ़कर 3,223,020 करोड़ रुपये हो गया यानी 8.3 प्रतिशत बढ़ गया। यही नहीं हम पर यह विदेशी कर्ज हमारे सकल घरेलू उत्पाद के 23.7 प्रतिशत तक पंहुच गया है जबकि चीन का विदेशी कर्ज उसके जीडीपी के 2 प्रतिशत भी नहीं है। इसलिए हमें अपने विदेशी कर्जों को लेकर चिंतित होना चाहिए। यह भी खतरनाक है कि हमारे कर्ज में 37.3 प्रतिशत हिस्सा व्यापारिक कर्ज का है और 11.1 प्रतिशत निर्यात ऋ ण है जो हमारी अर्थव्यवस्था को डराता है। हमारे कर्ज की संरचना में 26 प्रतिशत कर्ज अनिवासी भारतीयों की जमा पूंजी है। यही वजह है आज हर वयस्क और सक्रिय भारतीय पर करीब 1.5 लाख रुपये का विदेशी कर्ज है और अगर हर व्यक्ति के हिसाब से देखें तो अभी-अभी पैदा हुए एक अबोध हिन्दुस्तानी के ऊपर भी करीब 42 हज़ार रुपए का विदेशी कर्ज है।
अगर हम इस आधार पर जांचे-परखें कि देश के किस प्रांत के लोगों पर कितना कर्ज है तो देश के सबसे ज्यादा कज़र्दार महाराष्ट्र के लोग हैं क्योंकि देश के किसी भी प्रांत से ज्यादा कर्ज महाराष्ट्र पर है। महाराष्ट्र पर 3.79 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है। जबकि सबसे कम कर्ज केरल के लोगों पर है। केरल पर सिर्फ  1.6 लाख करोड़ रुपए का कर्ज है। शायद कर्ज का यह प्रांतीय बंटवारा ही है कि केरल के पास शिक्षा पर खर्च करने के लिए महाराष्ट्र के मुकाबले कहीं ज्यादा बजट होता है। कुल मिलाकर लब्बोलुआब यह है कि बढ़ता विदेशी कर्ज हमारी जिन्दगी को तमाम तरह से प्रभावित कर रहा है।