अच्छे दिन? बढ़ने की जगह क्यों घट गई आर्थिक विकास दर ?

चावर्ष पहले जब मोदी सरकार ने शासन संभाला था, तब उसने जन-जन से वायदा किया था, अच्छे दिन आयेंगे। अच्छे दिन लेकर आने के वायदे में निहित था, देश की आर्थिक विकास दर और प्रति व्यक्ति आय को बढ़ाना। हर काम करने वाले हाथ को रोज़ी रोज़गार अर्थात् रोटी, कपड़ा और मकान मुहैय्या करना। काले धन के वर्चस्व को खण्डित करना, भ्रष्टाचार की नकेल कसना। महंगाई ने आम आदमी का हुलिया बिगाड़ रखा है, उस पर नियंत्रण करना। इसके अतिरिक्त नवम्बर दो के पैसे ही नहीं, बड़े स्तर पर नकली नोट छाप कर एक समानान्तर व्यवस्था का संचालन करने वाले आर्थिक माफिया की कमर भी तोड़नी थी। कश्मीर से लेकर मणिपुर और छत्तीसगढ़ सहित पूर्वी राज्यों तक आतंकी और नक्सलवाद तत्वों ने उपद्रव मचा रखा था, उनकी कमर तोड़नी थी।मोदी शासन के इरादे बहुत ऊंचे थे। इस बीच देश में सन् 1951 से शुरू योजनाबद्ध आर्थिक विकास की नाम लेवा पंचवर्षीय योजनाओं की सहायता से देश की आर्थिक विकास दर भी तेज़ करनी थी। देश इन योजनाओं की सहायता से अपने आपको विकासशील देशों की श्रेणी में गिनता था, लेकिन बारह पंचवर्षीय योजनाओं में से लगभग सब योजनाओं के लक्ष्य से पिछड़ जाने के कारण देश फिर अल्पविकसित देशों की कोष्ठक में आ गया है। चाहे मोदी शासन ने घोषणा की कि सन् 2022 तक देश विकास की इतनी मंज़िलें तय कर लेगा कि उसे अपने आपको विकसित अथवा स्वत: स्फूर्त अर्थव्यवस्था कहते हुए कोई झिझक महसूस नहीं होगी। इसके साथ ही बीते वर्ष के अंतिम दिनों में भारत को एक अन्तर्राष्ट्रीय सूचकांक में ‘अधिक सुविधा से व्यापार और निवेश करने वाले देश’ का दर्जा मिल गया और विकास सूचकांक में कई वर्षों के बाद देश का करम आगे बढ़ा। विकास और उपलब्धि के इस नक्कारखाने में वैश्विक भुखमरी सूचकांक का अध्ययन उपेक्षित हो गया कि अपना देश दुनिया से भुखमरी ग्रस्त देशों में और भी रसातल में चला गया है। अध्येतताओं के इस विवेचन की भी किसी ने परवाह नहीं की कि प्रजातांत्रिक समाजवाद के लक्ष्यों को प्राप्त करने के अभियान के तमुलनाद के बावजूद देश में चाहे अरबपतियों की संख्या विश्व में सबसे तेज़ गति से बढ़ रही है, लेकिन गरीब और भी गरीब हो गये हैं। 
पूंजीवाद और निजीकरण ने द्रुत आर्थिक विकास की आड़ में बड़े पैमाने पर देश के हर क्षेत्र में प्रवेश कर लिया। इसे एक नया नाम दिया गया है, पी.पी.पी.। अर्थात् सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की भागीदारी, जिसमें साधारण जन के कल्याण से अधिक धनी जनों का कल्याण लक्ष्य हो रहा है।परन्तु ऐसी हालत में अभी-अभी सन् 2017 की आर्थिक प्रगति के जो आंकड़े आये हैं, वह बहुत निराशाजनक हैं। अन्तर्राष्ट्रीय सूचकांकों के आशावादी संकेतों को झुठला कर अब लगभग सभी आर्थिक जानकारों ने मान लिया है देश में आर्थिक सर्जिकल प्रहार के रूप में लागू की गई नोटबंदी अपने तीन उद्देश्यों, काले धन और भ्रष्टाचार पर प्रहार, नकली नोटों का सफाया और देश में टैरर फंडिंग को रोकने में पूरी तरह से असफल रही। नोटबंदी के कारण कुछ मास के लिए देश की वितरण व्यवस्था लड़खड़ा गई। किसानों को फसल बीजने और बेचने, उद्यमियों को अपना काम धंधा चलाने और नौजवानों को रोज़गार तलाशने के असहय परेशानी हुई। इन सभी ने मिलजुल कर देश को आर्थिक मन्दी की वह कुसौगात दे दी कि सरकार के दावों के बावजूद अभी तक देश मन्दी के चक्रव्यूह से बाहर नहीं आ सका। एक करेला और दूसरा नीम चढ़ा के अन्दाज़ में अर्थव्यवस्था की धीमी प्रगति के लिए इसके बाद एक जुलाई से ‘एक कर, एक देश’ का सपना लेने वाली जी.एस.टी. की जटिल प्रक्रिया ने लागू होकर अर्थव्यवस्था की धीमी प्रगति के इस भंवर को और गहरा कर दिया। अभी आई अर्थव्यवस्था के विकास की रफ्तार पर रपट भी यह बताती है कि चलते चालू वित्त वर्ष में देश में कृषि और मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में खराब प्रदर्शन ने देश की विकास दर को सबसे धीमी गति अर्थात् 6.5 प्रतिशत दे दी है, जबकि पिछले वित्त वर्ष यह दर 7.1 प्रतिशत रही थी। मोदी काल की यह सबसे न्यूनतम विकास दर रही, इसके साथ प्रति व्यक्ति आय के बढ़ने की गति भी धीमी हो गई। इसलिए अगले वर्ष अगर निर्माण क्षेत्र की विकास दर या व्यापार और उद्यम को संभालना है और कृषि के धंधे को पतन में जाने से बचाना है तो अर्थव्यवस्था को बहुत से प्रोत्साहनों की ज़रूरत होगी। लेकिन यह प्रोत्साहन सबसिडियों, बिजली पानी की लागत माफी अथवा कज़र् माफी के रूप में नहीं होने चाहिए, बल्कि कृषि के बुनियादी ढांचे के नव-निर्माण के रूप में हो। ज़रूरी है कि खेती की उत्पादकता को संवारने के लिए फसलों के धान और गेहूं के परम्परागत माडल को बदला जाये, रोगी वितरण व्यवस्था को स्वस्थ किया जाये और फसलों के उचित प्रतिदान के लिए स्वामीनाथन कमेटी की रपट या उसके ही किसी विकल्प को तत्काल अपनाया जाये। आपदा के मारे हुए किसानों के लिए फसल बीमा योजना को पूरे देश में सुधरे हुए रूप में लागू करने की आवश्यकता है। इसमें गणना का आधार किसान की इकाई हो न कि गांव का औसत संकट। जब तक यह दृष्टि बोध नहीं बदला जाता तब तक आर्थिक विकास की गति सुधर कर भी नहीं सुधरेगी।