कहां चले गए चाचा चौधरी?

कॉमिक्स शायद ये शब्द अब अतीत के पन्नों में कहीं खो गया है। एक समय था जब बच्चों से लेकर बड़ों के हाथ में ये कॉमिक्स या कहानियों से भरी किताब नजर आती थी लेकिन आज जमाना इतना हाईटेक हो चुका है कि बच्चों के हाथों में इन किताबों के लिए तो वैसे जगह ही नहीं है। हाइटेक युग में बच्चों के लिए बाज़ार में बिकने वाली किताबें गायब हो गई हैं। दस-बीस साल पहले बच्चों के जुबान पर रहने वाले चाचा चौधरी कहीं खो गये हैं। जो हमारे बचपन की यादों में अभी भी है। वहीं किताबें अब अपनी पहचान खो चुकी हैं। घर हो या बाहर अब बच्चे मोबाइल गेम्स, घर में एल.सी.डी. से लेकर एलएसडी पर गेम्स खेलते तो हैं लेकिन पढ़ने की रुचि वाली किताबें अब उन्हें आती नहीं हैं। यही वजह है कि कहानी में लगाव कम होने के चलते आज के समय बच्चे पाठ्यक्रम में प्रकाशित कहानी व कविताओं मैं भी रूचि भी कम ले रहे हैं। टी.वी. चैनलों ने बच्चों की किताबों की दुनियां में इस तरह सेंध लगाई है कि बाज़ार में इनके खरीददार नहीं रहे हैं।
खो गये चाचा चौधरी
बड़ी-बड़ी मूंछें और सिर पर पगड़ी बांधे चाचा चौधरी, जिनकी कहानियों के एक समय में लोग दीवाने हुआ करते थे। वही आज के बच्चे उनका नाम नहीं जानते। हमारे बचपन की सबसे रोचक कॉमिक्स चाचा चौधरी और साबू की थी, लेकिन आज के बच्चे इनके बारे में कुछ नहीं जानते। अस्सी व नब्बे के दशक में बच्चों की किताबें, जिनमें पंचतंत्र की कहानियां कॉमिक्स आदि खूब बिकती थी लेकिन अब इसकी बिक्री कम हो गई। अब तो कॉमिक्स के स्थान पर कार्टून सी.डी. प्ले स्टेशन खूब बिक रहे हैं।
लद गये वो छुट्टी के दिन....
अब वो दिन कहां रहे, जब हम छुट्टी का इंतजार करते थे। ताकि कॉमिक्स या किताबें पढ़ने के लिए समय निकाल पाएं। मेरी बहन तो चाचा चौधरी की दीवानी थी, वो तो खुद दुकान पर नहीं जाती थी लेकिन इस छोटे भाई-बहनों से किताबें किराए पर या खरीद कर मंगवा लेती थी, उसको देखकर हम लोगों को भी खूब चस्का लगता था। लेकिन आजकल के बच्चों के लिए किताबें पढ़ना बोरियत का काम है। उन्हें तो बस वीडियो गेम या प्ले स्टेशन का ही भूत सवार है। अब आप ही सोचिए कि टैक्नोलॉजी इतनी एडवांस हो चुकी है तो क्या इन गेम के आगे आज के बच्चे किताबों या कॉमिक्स को पढ़ना पसंद करेंगे? पर जो हमारे ज्ञान में वृद्धि किताबें कर सकती हैं वो गेम्स नहीं। इन कहानियों में कुछ प्रेरणा ज़रूर दी जाती थी जो आज की गेम्स से कोसों दूर है।
— जी. के. खत्री