अतिथि कस्टमर भव

परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत एवं अटल नियम है। वक्त बदलने के साथ पुराना पीछे छूट जाता है और नया जुड़ता चला जाता है। एक जमाना था जब मेजबान अपने मेहमानों को स्वयं बड़ी मान मनुहार के साथ भोजन परोसता था। मेहमान के न-न करने पर ‘अरे साब, थोड़ा और लीजिये’ का बार-बार आग्रह करता था। वह सोचता था कि शर्म या संकोच के कारण मेहमान कहीं पेट भरने से पहले ही हाथ न खींच ले और उस पर मेहमान के आधे पेट रह जाने का पाप न लग जाये।लेकिन यह तो गुजरे जमाने की यादें हैं। आज का नजारा कुछ अलग हट के है। हर आदमी की लाइफ इतनी बिजी हो गयी है कि ऐसे टोटकों के लिये किसी के पास वक्त नहीं है। फटाफट कल्चर ने खड़े-खड़े भोजन करने की पद्धति को जन्म दे दिया। टेबलों पर भोजन बिल्कुल उसी स्टाइल में सजा दिया जाता है जैसे जानवरों के लिये नांद में चारा डाला जाता है।इस सिस्टम में मेजबान मेहमानों को खाना खिलाने की जिम्मेदारी से पूरी तरह आज़ाद हो गया है। खाना खाने की सारी जिम्मेदारी मेहमान की है। वह खाये या न खाये, इससे मेजबान को कोई मतलब नहीं। वह तो बेफिक्र होकर मेन गेट पर मेहमानों से लिफाफों के कलेक्शन के लिए जम जाता है।इस खड़े-खड़े सिस्टम में नयी पीढ़ी तो पूरी तरह फिट बैठती है क्योंकि उसके सामने कुछ मजबूरियां भी हैं।एक तो यही कि टाइट जींस पहनकर बैठना तो लगभग असंभव ही हो गया है। दूसरे बैठने पर उसकी क्रीज टूट जाने का भी खतरा है। तीसरे नयी पीढ़ी को यह भी लगता है कि पुराना तरीका निहायत ही गंवारू है जिसमें सभी लोग दरी या पट्टी पर पालथी मारकर बैठकर खाते थे। एक बड़ी समस्या भोजन परोसने की है। इतने फैशनेबल सूट-बूट पहन कर खाना कैसे परोसा जा सकता है? अत: इन सारी समस्याओं का बफे सिस्टम में पूरा समाधान हो गया है।आज तो सब कुछ खड़े-खड़े हो रहा है, खड़े-खड़े शादी हो जाती है और खड़े-खड़े ही तलाक। नेता खड़े-खड़े इस पार्टी से उस पार्टी में और उस पार्टी से इस पार्टी में आ जाते हैं। कितने सारे डाकू, माफिया, स्मगलर खड़े-खड़े माननीय हो जाते हैं और हमारी आपकी तकदीर लिखते हैं। आपके समय में सामाजिक संबंध दिल से संचालित होते थे आज बाज़ार से संचालित हो रहे हैं।आज मेजबान मेहमान को अपनी संपन्नता से इम्प्रेस करना चाहता है। वह जानता है कि जितना भव्य और आकर्षक समारोह होगा, मेहमान की जेब से उतना ही ज्यादा माल खींचा जा सकेगा। मेहमान भी सोचता है कि लिफाफा तो देना ही देना है, ऐसे में जितना ज्यादा से ज्यादा माल पेट के अंदर कर लिया जाये, उतना ही अच्छा है। जितना दिया है, कम से कम उसका पचास परसेंट तो वसूल हो ही जाए। मेहमान हो या मेजबान, दोनों की सोच बाज़ारू हो गयी है। मेजबान अपने स्टेट्स के रुतबे से मेहमान को मात देने की कोशिश करता है। मेहमान इसे दावत की जगह अदावत मानकर चलता है और कोशिश करता है कि इस अल्प अवधि में इस कोने से उस कोने तक जितने भी स्टाल लगे हैं सभी का स्वाद ले सके। इस तरह इस स्टैडिंग कल्चर में आदर सम्मान की बात सोचना फिजूल है क्योंकि पहले हमारे यहां अतिथि को देवता का दर्जा दिया जाता था। आज उसकी स्थिति एक कस्टमर की है। दोनों की सोच बदली हुई है। दोनों के संबंध किसी अंत: प्रेरणा से नहीं बल्कि बाज़ार की ताकत से संचालित हो रहे हैं। (अदिति)