क्या पारदर्शिता को प्राथमिकता देते हुए मजबूत न्यायपालिका उभर सकेगी ?

परम्परागत न्यायिक बुद्धिमत्ता यही रही है कि महत्वपूर्ण मामलों में गोपनीयता बनाई रखी जाये क्योंकि न्यायपालिका में जनता के विश्वास को बनाये रखने का यही आधार है। यही स्वीकृत परम्परा 12 जनवरी 2018 को खतरे में थी, जब सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायधीशों ने अपनी शिकायतों को प्रेस कांफ्रैंस में सार्वजनिक करते हुए विद्रोह का बिगुल बजाया। यह जानने के लिए कि यह कांफ्रैंस किस बारे में थी और इसके क्या नतीजे बरामद होंगे, बेहतर यह होगा कि यह विचार किया जाये कि यह कांफ्रैंस किस बारे में नहीं थी।इस कांफ्रैंस की आम व्याख्या यह की जा रही है कि यह सीबीआई जज बृजगोपाल लोया की रहस्यमय मौत की जांच की मांग करने के लिए गठित खंडपीठ या फि र मेडिकल कॉलेज भ्रष्टाचार मामले से है, जिसने पिछले साल न्यायपालिका को हिलाकर रख दिया था। कांफ्रैंस को केवल इन्हीं मामलों तक सीमित करना समस्या की गहराई की अनदेखी करना होगा।  न्यायाधीश जे. चेलमेश्वर, न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायाधीश मदन बी.लोकुर व न्यायाधीश कुरियन जोसफ । जिन्होंने प्रैस कांफ्रैंस आयोजित की थी, ने जो पत्र भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा को लगभग दो माह पहले लिखा था, वह किसी एक या दो मामलों के बारे में नहीं था बल्कि न्यायपालिका में उस समस्या को लेकर है जो स्वभाविक तौर पर संरचनात्मक है।
इसी तरह से यह विद्रोह साधरणत: भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ भी नहीं है, हालांकि पत्र में आरोप है कि वह बिना तार्किक आधार के और अपनी ‘पसंद व मर्जी’ के खंडपीठ का चयन करते हैं, लेकिन पत्र उनके व्यक्तिगत एक्शन पर अधिक फ ोकस नहीं करता है। ऐसा जानबूझकर किया गया है, जैसा कि कांफ्रैंस में न्यायाधीश गोगोई ने कहा कि इस प्रैस कांफ्रैंस को मुख्य न्यायाधीश की व्यक्तिगत जांच के रूप में न लिया जाये बल्कि उस संस्था की साख के संदर्भ में देखा जाये जिसके वह मुखिया हैं। अत: पत्र व कान्फ्रैंस दोनों अपने रूप व तात्पर्य में  न्यायपालिका के कामकाज करने के गोपनीय तरीके के खिलाफ  खुली चुनौती हैं, जो दुर्भाग्य से आज उसका प्रमाण-चिन्ह है। यह अलग बात है कि इस अप्रत्याशित विद्रोह का त्वरित कारण लोया मामला बना। गौरतलब है कि मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व वाली खंडपीठ ने 11 जनवरी को एक जनहित याचिका स्वीकार की थी जिसके तहत लोया की रहस्यमय मौत की जांच की मांग की गई थी। लोया विशेष सीबीआई जज के रूप में गैंगस्टर सोहराबुद्दीन शेख की फ र्जी मुठभेड़ मामले की सुनवाई कर रहे थे, जिसमें भाजपा अध्यक्ष अमित शाह आरोपियों में शामिल थे। लोया का जिस न्यायाधीश ने स्थान लिया उसने अमित शाह को आरोपों से मुक्त कर दिया।विद्रोह करने वाले चारों न्यायाधीश, जो वरिष्ठता के हिसाब से कॉलेजियम में दो से पांचवें स्थान पर हैं, ने 12 जनवरी को सुबह 10:15 पर मुख्य न्यायाधीश से मुलाकात की और लोया मामले को दूसरी खंडपीठ में शिफ्ट करने का आग्रह किया, जिसे ठुकरा दिया गया। फ लस्वरूप चारों न्यायधीशों ने 12:00 बजे प्रैस कांफ्रैंस का आयोजन किया जिसकी मुख्य न्यायाधीश को कोई भनक नहीं थी। वह तो अपनी अदालत में न्यायाधीश ए.एम. खानविलकर व डी.वाई. चंद्रचूड़ के साथ कार्यवाही शुरू कर चुके थे, जिसे बीच में रोक कर उन्होंने टीवी पर प्रैस कांफ्रैंस देखनी शुरू की। बहरहाल, भारत में गोपनीयता ही न्यायपालिका का आधार है और इसे ही चुनौती दी गई है? चाहे कॉलेजियम के ज़रिये सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट्स में न्यायाधीशों की बिना किसी स्थापित तरीके के नियुक्तियों का मामला हो या केस आवंटन की बात हो जिसमें मुख्य न्यायाधीश ही सर्वेसर्वा होते हैं,  गोपनीयता ही न्यायपालिका के कामकाज में हर तरह से हावी रहती है।इस गोपनीयता को न्यायाधीशों से लेकर वरिष्ठ वकीलों तक आवश्यक समझते हैं। इसलिए 2016 में फ ली एस. नरीमन ने बिना मांगे अपनी तरफ  से न्यायाधीश चेलमेश्वर को सुझाव दिया था कि पारदर्शिता के लिए संघर्ष करने की बजाय वह त्यागपत्र दे दें।  ऐसा पहली बार नहीं हुआ था, जब मेडिकल कॉलेज भ्रष्टाचार मामले में सुप्रीम कोर्ट की दो खंडपीठ लगभग टकराव की स्थिति में आ गई थीं तो उन्होंने कहा था इसके बारे में जितना कम बोला जाये, उतना ही बेहतर है। अनुमान यह है कि इस प्रैस कांफ्रैंस के बाद नरीमन व अन्य सीनियर वकील अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन लायेंगे, क्योंकि जो अदालत उन्हीं के ही अधिकतर प्रयासों से जनहित अदालत बन गई है और देश में दूरगामी महत्व के प्रश्नों का उत्तर दे रही है, उसके लिए जनता के विश्वास को बरकरार रखने हेतु गोपनीयता की चादर में लिपटे रहना व्यवहारिक विकल्प नहीं है।यह प्रैस कांफ्रैंस इसी के लिए एक सशक्त प्रयास थी। बहुत लम्बे समय तक न्यायपालिका लोकतंत्र के अन्य अंगों से केवल अपनी तरफ  से ही सच बोलती रही है, लोकतंत्र का तकाजा है कि वह सच सुने भी। प्रैस कांफ्रैंस में न्यायपालिका को बचाने के लिए चारों न्यायाधीशों ने यही प्रयास किया। यह लोकतंत्र से अपील थी कि उस चीज़ की मरम्मत की जाये जिसे व्यक्तिगत प्रयास और पत्र ठीक करने में नाकाम रहे हैं। इसलिए सरकार यह कहकर अपना दमन नहीं बचा सकती कि यह न्यायपालिका का अपना अंदरूनी मामला है, सरकार को इसमें कुछ नहीं कहना है और वह हस्तक्षेप भी नहीं करेगी। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि मुख्य न्यायाधीश कॉलेजियम की संतुष्टि के अनुरूप खंडपीठ वितरण विवाद को हल करने में असफ ल रहे हैं।  इससे कॉलेजियम के कामकाज में ब्रेकडाउन आ सकता है। यह संस्थागत कर्तव्यनिष्ठ और उचित प्रक्रिया के पालन का मामला है। अगर कॉलेजियम व्यवस्था को बचाए रखना है तो सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को इस अवसर के अनुरूप उठाना पड़ेगा और सरकार को भी अपनी ज़िम्मेदारी को स्वीकार करना होगा।अगले कुछ सप्ताह या माह न्यायपालिका के लिए कठिन होने जा रहे हैं क्योंकि ज़बरदस्त जन-बहस व संरचनात्मक सुधार का दौर रहेगा। लोकतंत्र ऐसे ही काम करता है, लेकिन इससे जो सुप्रीम कोर्ट उभरकर सामने आयेगा वह अधिक मज़बूत, अधिक पारदर्शी होगा और इस तरह से काम करेगा जैसे संविधानिक लोकतंत्र में अदालतें काम करती हैं ।