बेलगाम ध्वनि प्रदूषण; नियंत्रण ज़रूरी

हमारे देश में आम जनता स्वतंत्रता को कुछ अपने ही तऱीके से पारिभाषित करने में लगी रहती है। आज़ादी का अर्थ पराधीनता से छुटकारा और मानसिक, सामाजिक तथा राजनीतिक स्वतंत्रता के बजाए कुछ इस तरह समझा जाता है गोया हम इस कद्र आज़ाद हैं कि जब और जहां चाहें, जो चाहें कर सकते हैं। देश भर में होने वाले तरह-तरह के अपराध इसी मानसिकता का प्रमाण हैं। परंतु ऐसी स्वतंत्रता को स्वतंत्रता कैसे कहा जा सकता है जो दूसरों के लिए दु:ख-तकल़ीफ,परेशानी या द्वेष, वैमनस्य, हिंसा आदि का कारण बने। हमारे देश में धार्मिक स्वतंत्रता दुनिया के अन्य सभी देशों से अधिक हासिल है। 
प्रत्येक भारतवासी अपनी किन्हीं भी धार्मिक गतिविधियों को अपने धार्मिक व पारम्परिक रीति-रिवाज, श्रद्धा, विश्वास तथा पूरे उत्साह के साथ कभी भी कहीं भी मना सकता है। तो क्या इस आज़ादी का यह मतलब भी निकाल लेना चाहिए कि एक को मिलने वाली धार्मिक स्वतंत्रता दूसरों के लिए परेशानी का सबब बन जाए? क्या किसी धर्म या समुदाय के लोगों को यह अधिकार हासिल है कि वे अपनी धार्मिक स्वतंत्रता पर अमल करते हुए दूसरे लोगों को परेशान करें या उन्हें कष्ट पहुंचाएं? निश्चित रूप से स्वतंत्रता की परिभाषा यह ़कतई नहीं हो सकती। 
यदि आपको अपने किसी धार्मिक या सामाजिक आयोजन को करने की स्वतंत्रता है तो दूसरे देशवासी को भी सार्वजनिक मार्गों से सुचारू रूप से गुज़रने, चैन-सुकून से शांति के साथ जीने तथा प्रदूषण मुक्त वातावरण में सांस लेने की आज़ादी है। जब इसमें टकराव की स्थिति पैदा होती है तो समाज में बेचैनी भी बढ़ती है और यही बातें सामाजिक विद्वेष का कारण भी बन जाती हैं। इतना ही नहीं बल्कि ऐसी विवादित बातें कभी-कभी हिंसा का रूप भी धारण कर लेती हैं। 
बढ़ता ध्वनि प्रदूषण भी हमारे देश की ऐसी ही एक प्रमुख समस्या का रूप धारण कर चुका है। देश में कई प्रमाण ऐसे हैं जिनसे यह पता लगता है कि धार्मिक स्थलों में बजने वाले लाऊड स्पीकर्स की वजह से कई जगह तनाव एवं टकराव उत्पन्न हुए। क्या लोगों को यह जताना या चेताना ज़रूरी है कि भगवान, ईश्वर, अल्लाह या वाहेगुरु उन्हें पूजा-पाठ,नमाज़, प्रार्थना आदि के लिए आमंत्रित कर रहे हैं। क्या एक धार्मिक प्रवृत्ति के किसी भी व्यक्ति को स्वयं ही इस बात का एहसास नहीं होता कि उसे किस समय अपने धर्मस्थान में जाकर अपने प्रभु के समक्ष शीश झुकाना या अरदास करनी है? आ़िखर उसे च़ीख-च़ीख कर बताने की क्या ज़रूरत है कि अमुक धर्मस्थल में आओ या वहीं बैठकर ईश्वर की वाणी सुनो? 
देश के कई उच्च न्यायालय यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय भी ध्वनि प्रदूषण के विषय पर कई बार दिशा-निर्देश जारी कर चुके हैं। उनकी समय सीमाएं तथा आवाज़ की बुलंदी की सीमा आदि सब कुछ निर्रित किए जा चुके हैं। परंतु राज्य सरकारें ऐसे अदालती आदेशों को लागू करवाने में प्राय: असमर्थ रही हैं। संभवत: उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने पहली बार यह ज़िम्मा उठाया है कि वह ध्वनि प्रदूषण के संबंध में इलाहाबाद उच्च न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्देशों का स़ख्ती से पालन करे। 
आज की तेज़ ऱफ्तार ज़िंदगी में वैसे भी आए दिन सड़कों पर बढ़ते हुए लाखों वाहन,बढ़ती जनसंख्या तथा बढ़ता शहरीकरण व औद्योगीकरण ध्वनि प्रदूषण बढ़ाने के लिए ़खुद ही क़ाफी हैं। विकास संबंधी ऱफ्तार से जुड़े इस प्रदूषण को रोक पाना तो शायद संभव नहीं परंतु आम जनता यदि चाहे तो सरकार व अदालतों को सहयोग देकर ़गैर ज़रूरी प्रदूषण तथा स्वार्थपूर्ण अतिक्रमण से देश की जनता को मुक्ति दिला सकती है। आ़िखर किस घर-परिवार के बच्चे स्कूल या कॉलेज में नहीं जाते? किस घर में बुज़ुर्ग या बीमार संरक्षक नहीं होते? क्या इन लोगों को किसी भी धार्मिक अथवा सामाजिक किसी आयोजन में सारी रात होने वाला शोर शराबा पसंद आता होगा? स़ाफ है कि उसे ऐसे बेलगाम ़िकस्म के तथाकथित ‘आज़ाद’ लोगों से अपनी आज़ादी पर ़खतरा मंडराता दिखाई देता है। कितना बेहतर हो यदि स्वयं को धार्मिक कहलवाने का श़ौक पालने वाले यही लोग जागरूकता का परिचय देते हुए ़खुद ही धर्म स्थलों पर बजने वाले लाऊड स्पीकर्स की ऐसी व्यवस्था करे कि ध्वनि उसी धर्म स्थानों की चहारदीवारी तक ही सीमित रहे। 
ध्वनि प्रदूषण की सीमाएं,इसका समय तथा मापदंड निर्धारित होने चाहिएं। कभी-कभार होने वाले किसी भी आयोजन में भी प्रशासन की अनुमति के बिना तथा ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण वाले मापदंडों का पालन किए बिना अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।