ऋण माफी एक गम्भीर समस्या बनी

कैप्टन अमरेन्द्र सिंह की ओर से पिछले वर्ष चुनाव मुहिम के दौरान किसानों का ऋण माफ करने संबंधी किए वायदे सरकार के लिए गम्भीर समस्या बन गई है। दिन-प्रतिदिन यह और भी पेचीदा बनती जा रही है। मानसा से मालवा के पांच ज़िलों के 47,000 छोटे किसानों के 170 करोड़ रुपए के सहकारी सभाओं से लिए ऋणों की माफी के साथ अपने वायदे को पूरा करने की शुरूआत करने के उपरांत मुख्यमंत्री ने 1.15 लाख और किसानों के 580 करोड़ रुपए के ऋण माफ करने की स्वीकृति दे दी, जिसको 31 जनवरी से पहले-पहले व्यवहारिक रूप दिया जाना है। इसी तरह लगभग एक लाख साठ हज़ार छोटे और सीमित किसानों के 748 करोड़ रुपए के ऋण माफ होंगे। इन किसानों के केवल वही ऋण ही जो उन्होंने सहकारी सभाओं से लिए हुए हैं, माफ होंगे। इन किसानों ने जो आढ़तियों या किसी निजी क्षेत्र के अन्य व्यक्तियों या व्यापारिक बैंकों से ऋण लिया हुआ है, वह इस माफी के घेरे में नहीं आयेंगे। फिर 5500 के करीब आत्महत्या करने वाले किसानों के ऋण हैं, जिनके संबंध में ऋण माफी का ऐलान सरकार की ओर से किया जा चुका है। इन किसानों के परिवारों को 163 करोड़ रुपए की राहत पहले ही दी जा चुकी है। आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवारों को अब 5.5 लाख रुपए की राहत सरकार की ओर से दी जाती है। इसके अलावा 10 लाख के करीब खेत मजदूर भी अपने ऋणों की माफी की मांग कर रहे हैं। सरकार की ओर से इनके ऋणों की माफी खज़ाने की हालत में सुधार आने पर किए जाने का ऐलान किया गया है। परन्तु कृषि मजदूरों ने निजी क्षेत्र के व्यक्तियों से ऋण लिए हुए हैं, क्योंकि कृषि ऋण बैंकों और कृषि सहकारी सभाओं से लेने के लिए यह योग्य नहीं। अगर सरकार निजी क्षेत्र से लिए ऋण कृषि मज़दूरों के माफ करती है तो किसानों की ओर से भी यह मांग उठेगी। किसानों पर 73,000 करोड़ रुपए का कज़र्ा है। फिर सवाल पैदा होता है कि आत्महत्या करने वाले किसानों और भूमिहीन मज़दूरों के किस तिथि के बाद लिए ऋण माफ किए जाएं। यह समस्या भी सरकार के समक्ष आयेगी। सरकार की ओर से बनाई गई सूचियों में भी कई त्रुटियां सामने आई हैं, जो आलोचना का कारण बन रहा है। सरकार का सारा स्टाफ तथा अधिकारी ऋण माफी के लिए सूचियां और कई अन्य कार्रवाइयां करने में लग गए हैं। विकास का सारा काम ठप्प होकर रह गया है। सहकारी सभाओं को माफ किए गए ऋणों का पैसा गांव विकास फंड में से दिए जाने का प्रस्ताव है। इसके साथ लिंक सड़कों की मरम्मत, नया निर्माण और विकास के अन्य काम रुक जायेंगे। सरकारी खज़ाने में कोई इस ऋण माफी के लिए पैसा नहीं क्योंकि पिछली अकाली-भाजपा सरकार से सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार ने खाली खज़ाना ही विरासत में लिया था। ऋण माफी से इन सारी समस्याओं से सहकारी सोसायटियों का कारोबार और सहकारी ढांचा भी बिखर जायेगा। आज़ादी मिलने के बाद पिछली शताब्दी के 50वें दशक में गांवों में कृषि सहकारी सभाएं गांव के किसानों को कृषि के लिए आर्थिक सहायता देने के तौर पर तथा गांवों के लोगों की अमानतें रखकर यह काम पूर्ण करने के उद्देश्य से स्थापित की गई थीं। इन सोसायटियों के कारोबार से हुए नुक्सान और फायदे के लिए सोसायटियों के सदस्य ही ज़िम्मेदार थे, जिस कारण वह किसी को कृषि के कामों के लिए ज़रूरत से अधिक ऋण नहीं देते थे। उसके बाद को-आपरेटिव विभाग (जो सरकारी विभाग था) ने इन सोसायटियों का आकार बड़ा करके इनको बैंकों का रूप दे दिया। जिससे सहकारिता लहर के सारे उद्देश्य खत्म हो गए और इन सभाओं पर सरकार का कंट्रोल हो गया। ऋण माफी के चक्रव्यूह में फंसी यह सहकारी सभाएं अब क्या रूप धारण करती हैं, यह भविष्य में ही पता चलेगा।
ऋण माफी की सूचियों में शामिल डिफाल्टर किसानों को इन सोसायटियों ने फसली ऋण देना हाल के समय तो बंद ही कर दिया है। बैंक भी इन डिफाल्टर किसानों को ऋण देने से दूर ही रहेंगे। निजी क्षेत्र के आढ़ती तो इन किसानों को कोई ऋण या आर्थिक सहायता देने के लिए तैयार ही नहीं। इसी तरह इन छोटे और सीमित किसानों को कृषि करना ही असम्भव हो जायेगा। घरेलू और बिमारी आदि संबंधी अचानक खर्चे चलाना भी मुश्किल हो जायेंगे। जिस उपरांत यह अपनी ज़मीनें बेचने या ठेके पर देने के लिए मजबूर हो जायेंगे। भूमिहीन कृषि मज़दूरों की संख्या बढ़ने की सम्भावना है। यही नहीं, कई किसान दु:खी हैं कि जो गांवों में सूचियां बनाकर उनका नाम डिफाल्टरों में दर्ज करके प्रदर्शित किया गया है, वह चाहे सोशल एडिट के दृष्टिकोण के साथ किया गया है, लेकिन उनकी साख को गम्भीर चोट लगी है। उनको अपने लड़के-लड़कियों के रिश्ते करने में भी मुश्किल आएगी।कृषि क्षेत्र में जो ऋण वसूलने योग्य नहीं, वह बैंकों के कुल एन.पी.एज़ के 8.3 फीसदी ही हैं। किसानों पर ऋणों का 6 फीसदी ही डिफाल्ट में है, जबकि नॉन-प्रायरटी क्षेत्र में डिफाल्ट की दर 20.83 फीसदी है। किसान डिफाल्टर इसीलिए हुए कि उनको महंगाई होने के उपरांत फसल का योग्य मूल्य नहीं मिला, क्योंकि सरकार की ओर से एम.एस.पी. सूचकांक के आधार पर नहीं बढ़ाई गई। इसलिए नि:संदेह किसान ऋणों की माफी के हकदार हैं। लेकिन कई अर्थशास्त्र वैज्ञानिकों का यह कहना है कि जब तक सरकारी खज़ाने की हालत में सुधार नहीं आता या केन्द्र सहायता देने के लिए आगे नहीं आता, ऋण माफी का यह काम शुरू करना उचित ही नहीं था। चाहे सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार की ओर से चुनाव के समय ऋण माफी संबंधी ऐलान किए गए थे, परन्तु जब तक माफी के लिए खज़ाने में पूरा प्रबंध न होता माफी की शुरूआत ही नहीं करनी चाहिए थी। किसानों को उनके नेताओं की बैठकें करके इस संबंधी सही जानकारी देकर समझाया जा सकता था। ऋण माफी की अपेक्षा छोटे और सीमित किसानों की उपज एम.एस.पी. से अधिक कीमत (चाहे बोनस की सूरत में होती) देकर उनकी सहायता की जा सकती थी। उनकी फसल की खरीद के लिए यह प्रणाली भविष्य में भी जारी रखकर उनको संतुष्ट किया जा सकता था। सभी राजनीतिक पार्टियां ही चुनाव के समय ऐसे वायदे और ऐलान करती हैं, परन्तु उनको तभी पूरा करती हैं, अगर सरकार के पास साधन और समर्था हो। कुछ अर्थशास्त्र वैज्ञानिकों के अनुसार ऋण माफी के साथ बैंकों और वित्तीय संस्थाओं का आर्थिक ढांचा प्रभावित होता है। आमदनी-खर्च के ढांचे खराब होते हैं और ऋण लेने वालों को भविष्य में ऋणों की वापसी न करने के लिए उत्साह मिलता है।

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