समाजवादी विचारधारा की 100वीं वर्षगांठ के संदर्भ मेंक्या था मार्क्स का सिद्धांत ?

7नवम्बर, 1917 को जब सोवियत संघ में समाजवाद अस्तित्व में आया था तो उसके बाद दुनिया शासन की एक वैकल्पिक किस्म का तजुर्बा कर सकती थी। लेकिन करोड़ों मनुष्यों की अतुल कुर्बानियों के बावजूद समाजवाद ज़रूरी परिणाम न दे सका और जल्द ही यह ग्रहण का शिकार हो गया। समाजवाद की असफलता के लिए बहुत सारे कारण ज़िम्मेवार रहे हैं। समाजवाद के 100 वर्ष पूरे होने के मौके पर इस लेख में समाजवाद के मुख्य चिंतक कार्ल मार्क्स और उनके सिद्धांत पर झलक डाली जा रही है। साथ ही समाजवाद के खत्म होने के एक मूलभूत कारण को भी समझने का प्रयास किया गया है।‘द कम्यूनिस्ट मैनीफैस्टो’ (1848) के शुरुआती शब्दों में कार्ल मार्क्स और फरैर्डिक ऐंज्लस ने कहा था  कि ‘अब तक के पूरे समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है।’ मार्क्स और उनके सहयोगियों का मानना था कि वर्ग-संघर्ष ही सामाजिक-आर्थिक बनावटों की सृजना को अंजाम देने वाला सामाजिक क्रमगत विकास की मुख्य संचालक ताकत होता है। कार्ल मार्क्स का जन्म 5 मई, 1818 को जर्मनी के शहर ट्राइर में हुआ था। उनके पिता एक प्रसिद्ध वकील थे। वह चाहते थे कि कार्ल भी उनके पेशे को अपना कर एक सफल वकील बने। लेकिन कार्ल अपने बचपन के शुरुआती दिनों से ही एक अलग किस्म का बच्चा था जो हमेशा शानदार किस्म की कहानियां बनाने में रुचित रहा था। वह बहुत प्यारा और अपने मीठे और मज़ेदार व्यवहार के ज़रिए सभी से बड़ा अपनापन हासिल करता था। वह बहुत सादा और नेकदिल था, जिसके दिल में हमेशा गरीबों और शोषितों के लिए बड़ा दर्द रहता था। इसी तरह वह बचपन से ही शरारती तो था पर बुरी आदतों वाला और कठोर किस्म का नहीं था।जब मार्क्स अपने बचपन से आगे बढ़ा तो मध्य वर्ग के लोगों की गम्भीर मुश्किलों, मुसीबतों का पता चला, जो लोगों को पूंजीवाद के हो रहे विस्तार के कारण भुगतनी पड़ रही थी। उनको यह एहसास होना शुरू हो गया कि नई व्यापारिक व्यवस्था से प्रबावित लाखों लोगों की त्रासदियों को खत्म करने के लिए कुछ किए जाने की ज़रूरत है। औद्योगिक श्रमिक वर्ग की स्थापित जर्मनी बस्तियां बड़ी दयनीय तस्वीर पेश करती थीं, क्योंकि इन लोगों को दूसरे दर्जे के मनुष्यों वाला जीवन व्यतीत करना पड़ रहा था। वह यह भी जानते थे कि पश्चिम यूरोप के अन्य देशों में रह रहे इस वर्ग की महिलाओं और पुरुषों की हालत भी कोई बेहतर नहीं है। औद्योगिक श्रमिक वर्ग के दुख-दर्द को देख-रेख कर उन्होंने उनकी भलाई के लिए कुछ करने का मन बनाना शुरू किया और जल्द ही उन्होंने पूंजीवादी वैश्विक व्यवस्था को बदलने के लिए निरन्तरता के साथ काम करने का पक्का मन बना लिया। परिणामस्वरूप उन्होंने अपने पिता वाले वकालत के पेशे को अपनाने से इन्कार कर दिया और कार्ल हिगल के कट्टर समर्थक बन गए।19वीं सदी के मध्य तक हिगल जर्मनी के नवयुवकों में एक आदर्श शख्सियत बन चुके थे। इसका कारण हिगल की विचारधारा थी। उसका कहना था कि सामाजिक क्रमगत विकास का हर एक पड़ाव अपने बीच नकारात्मकता की ताकत के कारण अंत का शिकार हो जाता है। यह नकारात्मकता हर एक सामाजिक बनावट के भीतर मौजूद होती है। अपने प्रसिद्ध ‘द्वंद के सिद्धांत’ के अनुसार हिगल कहते थे कि मानवीय इतिहास आरम्भ से ही समय के किसी भी पड़ाव के भीतर के उसके समर्थक पक्ष और विरोधी पक्ष के आपसी द्वंद और फिर उन दोनों पक्षों के अच्छे पहलुओं के सम्मिश्रण द्वारा निर्धारित होता आया है। इसी तरह प्रत्येक एक सामाजिक बनावट का बनना या पतन होना नई सामाजिक बनावट को जन्म देता है। पुरानी  के मलबे में से नई सामाजिक बनावट का जन्म होता है। लेकिन यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि नई सामाजिक बनावट में पिछली बनावट के भी कुछ तत्व होते हैं। इसी तरह कोई भी नई बनावट और द्वंदात्मक और पदार्थवाद को मार्क्स सामाजिक विचार का आधार माना जाता है। अपने सभी चिंतन में मार्क्स ने विरोधाभास को तबदीली की जननी मानते हुए इसकी  आवश्यकता पर ज़ोर दिया। मार्क्स की अपनी शुरुआती ज़िन्दगी का बड़ा समय हिगल आन्दोलन के साथ जुड़ा रहा है, जो इस बात पर ज़ोर देता है कि सामाजिक बनावट का हर एक चरण हमेशा तबदीली के प्रवाह में रहता है। निरन्तर तबदीली एक सर्व-व्यापक सिलसिला है। मार्क्स पूरी तरह इस बात के हक में थे, क्योंकि उन्होंने समझ लिया था कि अगर ऐसा पिछली बनावट के प्रभावों से पूरी तरह मुक्त नहीं होता। इस क्रांतिकारी और बिल्कुल अलग चिन्तन ने दर्शन शास्त्र के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया और जर्मन नवयुवकों की एक बड़ी संख्या ‘द यंग हिगलीयन सर्कल’ नामक लहर के द्वारा हिगल के साथ जुड़ गई। मार्क्स भी कोई अपवाद नहीं था और वह भी हिगल के सिद्धांत के कड़े कट्टर पैरोकार बन गए। वह तो सर्कल के प्रसिद्ध आयोजकों में भी एक थे।परन्तु हिगल के साथ मार्क्स की चिन्तक साझ कुछ समय के लिए ही साबित हुई। जल्द ही उन्होंने स्वयं को हिगल की विचारधारा से यह कहते हुए दूर कर लिया कि यह तस्वीर के सिर्फ एक ओर ही ज़ाहिर करती है। मार्क्स का कहना था कि हिगल ने अपना पूरा ध्यान तबदीली के लिए चिंतकों और समाज में बड़ा रुतबा रखने वालों की तरफ दिया है। उन्होंने असली लोगों, जीवित मनुष्यों, जोकि समाज के दबे-कुचले हुए वर्ग हैं, की ताकत की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया। मार्क्स इस परिणाम पर पहुंचे कि हिगल का सिद्धांत सिर के भार खड़ा है और मेरा काम इसको पैरों पर खड़े करने का है। हिगल से संबंध तोड़ने के बाद मार्क्स ने अपने समय के एक और महान जर्मन फिलॉस्फर लुडविंग फ्यूरबैच के साथ पदार्थवादी वस्तुपरक संबंध जोड़े है। उन्होंने हिगल के सामाजिक सिद्धांत में से वस्तुपरकपक्ष को छोड़ दिया। इसी तरह उसने हिगल से द्वंदवाद और फ्यूरबैच से पदार्थवाद उधार लेकर नया सिद्धांत विकसित किया।द्वंदात्मक और पदार्थवाद को मार्क्स सामाजिक विचार का आधार माना जाता है। अपने सभी चिंतन में मार्क्स ने विरोधाभास को तबदीली की जननी मानते हुए इसकी ज़रूरी आवश्यकता पर ज़ोर दिया। मार्क्स के अपने शुरुआती जीवन का बड़ा समय हिगल के सिद्धांत के साथ जुड़ा रहा है, जो इस बात पर ज़ोर देता है कि सामाजिक निर्माण का प्रत्येक पड़ाव हमेशा तबदीली के प्रवाह में रहता है। निरन्तर तबदीली एक सर्व-व्यापक सिलसिला है। मार्क्स पूरी तरह इस बात के हक में था, क्योंकि उन्होंने समझ लिया था कि अगर ऐसा हो तो पूंजीवाद का विनाश होना निश्चित है, क्योंकि इसके अपने अंदर ही इसकी तबाही के बीच समाए हुए हैं। तथ्य यह है कि सामाजिक बनावट के प्रत्येक पड़ाव में ही यह लक्षण शामिल होता है और इसी तरह अपने आंतरिक विरोध के साथ खत्म होने की बात समाजवाद पर भी उतनी ही लागू होती है।