तीन तलाक, कष्ट और भी हैं!

तीन तलाक पर मीडिया में खूब बहसें हो चुकी हैं। इन बहसों का स्तर इतना गया गुज़रा था कि ‘तू तू, मैं मैं’ के सिवाय कुछ पल्ले पड़ता नहीं। परन्तु इस बहस की नक्कारखाने में तूती की आवाज़ इतनी ज़रूर रही स्त्री समाज में जिन बहनों ने पुरुष वर्ग के फालतू के अहंकार और जुल्मोसितम को झेला है, उनके आंसुओं से हमारी उंगलियों के पोर ज़रूर गीले हुए हैं। हालांकि मुद्दे की बात यह है कि मुसलमानों से इतर समाजों की स्त्रियों को पुरुष वर्ग की बेरुखी, लापरवाही, निर्ममता के कारण काफी कुछ झेलना पड़ता है। दिक्कत की बात यह है कि जब मुस्लिम समाज की पुरानी सोच रखने वाले चंद नियामक तीन तलाक के बचाव में परम्परा को पुख्ता बना रहे थे और इस आवाज़ को मजहब पर हमला समझ कर पुरानेपन का बचाव कर रहे थे, तब भी महिलाओं के हक में आवाज़ ज्यादा ज़ोर से उठायी जा सकती थी। वर्तमान दौर उस विलम्ब को उजागर करेगा ही जो मौलवियों की ‘मैं न मानूं’ से हुई है। जबकि उनमें भी एक उदार वर्ग ज़रूर रहा है जो महिलाओं के दर्द से भीगा रहा, जिन्हें फोन पर ही विदेश से ‘तलाक’ ‘तलाक’ ‘तलाक’ कह कर पल्ला झाड़ लिया जाता रहा, बिना यह सोचे, यहां तक किस की परिव्यक्ता जाएगी कहां, खायेगी क्या, पहनेंगी क्या, बच्चों की परवरिश कैसे होगी? पश्चाताप अगर हो भी तो उसके लिए न तो कोई जगह थी, न कोई व्यस्थित ढंग। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, को लगता रहा होगा कि शाहबानो केस के निपटारे के साथ ही सारा तूफान शांत हो गया होगा क्योंकि वह एक चाय के कप से उठे तूफान से ज्यादा नहीं था परन्तु कोई व्यक्ति या संस्था जो व्यक्तियों के एक समूह द्वारा संचालित हो, अपनी ज़िम्मेदारी से भाग नहीं सकती। देर-सवेर जवाबदेही के लिए सामने आना ही होता है। उन सम्मानित सदस्यों की प्रगतिशीलता, इस बात में भी कि वे पीड़ित महिला वर्ग के दर्द का सामना करते, उन्हें समझाने की कोशिश करते। पति-पत्नी के बीच पैदा हुई गांठ को सुलझाने का प्रयत्न करते। इसके लिए जगह-जगह संवेदनशील लोगों को तैनात करते अहं की दीवार नहीं टूटने पर तलाक के लिए माकूल शर्तनामा तैयार करते, जिससे स्त्री को असुरक्षित रह जाने का खतरा नहीं उठाना पड़ता। अगर ऐसा सम्भव होता तो इतनी ज़िन्दगियां तबाह न होती, जो शून्य के कारण हुई हैं। मुस्लिम भाई ज़रूर मानते होंगे कि अल्लाह के नज़दीक अगर कोई गुनाह है तो वह बिना किसी बड़ी वजह के मासूम स्त्री को तीन बार तलाक कह कर छुटकारा पा जाता ही है। तलाक से कोई कयामत नहीं टूट पड़ती। अगर दो इन्सान एक सुंदर बंधन में बंध सकते हैं और फिर अगर वही बंधन जटिल स्थितियों में आकर जी का जंजाल बन जाए, दिन रात कलह क्लेश में गुज़रने लगे और झुकने की समझौतों की कोई जगह न बन रही हो तो तलाक ज़रूरी हो सकता है, बशर्ते कि स्त्री के लिए सामाजिक सुरक्षा, आर्थिक सुरक्षा की जगह बची रहे और दोनों के लिए एक नई शुरुआत का अवसर बना रहे, यदि वे जीवन को एक और अवसर देना चाहते हों।तीन तलाक के मुद्दे पर अगर अब कुछ सही रास्ता दीखने लगा है, तो इसका राजनीतिकरण करने जैसी कोई ज़रूरत नहीं है। हम भारत में हैं तो हमें भारतीय परिस्थितियों में ही इसका या किसी अन्य समस्या का हल निकालना चाहिए। न तो इसे भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच की तरह किसी फालतू के जुनून में बदलना चाहिए। न ही एक वर्ग को छोटा और दूसरे को बड़ा साबित करने की ज़रूरत है।जहां तक स्त्री अस्मिता या स्त्री के सम्मान के सामाजिक प्रश्न हैं तो यह समझ लेना ज़रूरी है कि स्त्री समाज की राह में और भी कई कांटें हैं जिन्हें निकालने के लिए व्यापक सूझबूझ और गहरी संवेदना की ज़रूरत है। मुस्लिम बहनों के लिए तीन तलाक बड़ा मसला था। मसला है परन्तु उनके सम्मान की लड़ाई लम्बी है और कई हिस्सों में बंटी है। आंकड़ों के अनुसार बीस लाख तीस हज़ार महिलाएं ऐसी हैं जिन्हें उनके पतियों ने छोड़ दिया और तलाक भी नहीं हुआ। वे बच्चियां, जिन्हें जन्म लेने से पहले ही कत्ल कर दिया जाता है। देश के विकास के आगे बड़ा प्रश्न चिन्ह है। इतने दुष्कर्म, इतनी अपमान करने की घटनाएं क्या हमारा सिर शर्म से झुका नहीं देती? एक ही जैसे काम के लिए उन्हें कम मेहनताना क्यों दिया जाता है? आश्रमों, मठों में धर्म के नाम पर जो अत्याचार होता है, उसका हिसाब कौन देगा?