समय के साथ बदल जाती है न्याय और अन्याय की परिभाषा

ईश्वर को संसार की रचना करते समय कदाचित यह विचार कभी नहीं आया होगा कि मनुष्य प्राणियों में भेदभाव की नीति को क्रूरता की हद तक अपनाएगा। उसने नहीं सोचा होगा कि जिन्हें वह नर और नारी के रूप में रच रहा है वे उसकी तीसरी रचना जो नर है न नारी उनका जीवन नरक बनाने में कोई कसर नहीं रखेंगे। ये व्यक्ति बहुत कम संख्या में पाए जाते हैं लेकिन फि र भी उनके अस्तित्व से इन्कार नहीं किया जा सकता। इनमें जन्म से ही पुरुष और स्त्री दोनों के भाव होते हैं और किसी एक लिंग के समान सभी अंग न होने से तिरस्कार का पात्र बन जाते हैं।प्रकृति के जितने भी रूप हम देखते हैं, वे प्राणी, पशु, पक्षी, पेड़-पौधे, वनस्पति, नदी, जलप्रपात से लेकर बर्फ  से ढकीं पर्वत शृंखलाएं सभी के योग से संसार चक्र निरंतर चलता है। सबके लिए प्रकृति की ओर से नियम निर्धारित हैं जिनका उल्लंघन प्राकृतिक प्रकोप को दावत देना होता है, यह हम सब जानते हैं। नर और नारी के साथ एक तीसरे लिंग की भी उत्पत्ति करने में ईश्वर की कुछ तो मंशा रही होगी तो फिर उसे स्वीकार करने में किसी को क्या आपत्ति। परिवार से लेकर समाज तक में उनके साथ भेदभाव होता है। इस रूप में हुए जन्म का दंड उन्हें आजीवन भोगना पड़ता है जबकि सत्य यह है कि जन्म लेने पर उसका रूप निर्धारित करना किसी के वश में नहीं होता। इस अवस्था में उस जीव को स्वीकार करने या न करने का अधिकार उसके जन्मदाता या समाज या फिर सरकार के पास कहां से आ गया ?पिछले काफी समय से इस समाज को संविधान में दिए गए मनुष्यता का मूलभूत अधिकार देने की वकालत की जाती रही है। समाज में इनका स्थान सुरक्षित रखने की बात होती है, लेकिन अच्छी पहल होते हुए भी इन सभी प्रयासों की सराहना तो दूर उन्हें रोकने के हर संभव प्रयत्न किए जाते हैं। इन्हें अपराधी तक समझने की सोच में कोई बदलाव नहीं होता। इनकी पढ़ाई-लिखाई, नौकरी या व्यवसाय में इनकी भागीदारी को पाप से लेकर अधर्म तक समझा जाता है। अक्सर देखा गया है कि अपने साथ हुए अन्याय का बदला लेने के लिए कभी-कभी ये क्रूरता की हद तक पार कर जाते हैं। इसके लिए ये ज़िम्मेदार नहीं बल्कि हमारा समाज और कानून है जो इन्हें जीवन जीने का अधिकार तक देने से कतराता है।
इसी से जुड़ा एक और विषय है और वह है एक ही लिंग या विपरीत लिंग के व्यक्तियों द्वारा प्राचीन काल से स्थापित और प्रचलित सामाजिक मान्यताओं से अलग हटकर किसी अन्य प्रकार से आपसी सम्बंध बनाना। यह मामला जहां बहुत नाजुक है और निजता के अधिकार तक जाता है वहां इसे कानून के उल्लंघन से भी जोड़ दिया गया है। वास्तविकता यह है कि इसे दो व्यक्तियों के आपसी विचार-विमर्श और सहमति तक ही सीमित रहना चाहिए। इसमें कानून का दखल केवल उस स्थिति में होना चाहिए जब इसे सार्वजनिक करने और सामाजिक ताना-बाना बिखेरने के कुत्सित उद्देश्य से किए जाने का अंदेशा हो। उच्चतम न्यायालय ने इन विषयों को एक बड़ी न्यायिक पीठ के सामने रखकर निर्णय किए जाने में जो पहल की है वह जहां सराहनीय है वहां दोधारी तलवार पर चलने से कम भी नहीं है। देखना होगा कि समाज में किसी तरह का बिखराव या मनभेद पैदा किए बिना इस समस्या का क्या हल निकाला जाता है।बालिका दिवस बनाम बालिका सुरक्षा यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत में महिलाओं का इतिहास काफी गतिशील रहा है। आधुनिक भारत में महिलाएं राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष जैसे शीर्ष पदों पर आसीन हैं। लेकिन वहीं किसी महिला कलाकार ने कुछ बोल्ड सीन या छोटे कपड़े पहने तो कुछ लोग उसका विरोध करने और उसे अपशब्द बोलने में पीछे नहीं हटते। आज भी 90 प्रतिशत परिवारों में पहले बच्चे के रूप में बेटे की ही इच्छा होती है फिर वह परिवार चाहे पढ़े-लिखे हों या अनपढ़ ।24 जनवरी, 2008 से महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय बालिका शिशु दिवस मनाने की शुरुआत हुई जिसका उद्देश्य देश में लड़कियों को समर्थन और नये मौके देना था, लेकिन बालिकाओं  के साथ भेद-भाव आज भी किया जा रहा है फिर चाहे वह शिक्षा हो, पोषण हो, कानूनी अधिकार हों, उनकी सुरक्षा की बात हो या उनके सम्मान की। हमारे देश की 35 प्रतिशत महिलाएं शिक्षा से कोसों दूर हैं। दहेज के कारण हर दिन कम से कम एक दर्जन महिलाएं जान-बूझकर रसोई घर की आग में जलाकर मार दी जाती हैं। 
दहेज परम्परा कहीं न कहीं कन्या भू्रण ह्त्याओं का मुख्य कारण है। 12 बिलियन लड़कियों में से एक लाख लड़कियां अपना पहला जन्मदिन नहीं देख पातीं। लगभग दो करोड़ से भी ज्यादा मामले अदालतों में लंबित हैं, जिसमें महिलाओं से घरेलू हिंसा, छेड़छाड़, दहेज और दुष्कर्म जैसे आपराधिक मामले शामिल हैं। इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों के केवल 50 प्रतिशत मामले ही दर्ज होते हैं बाकी समाज के डर से या खुद की बदनामी के चलते दबा दिए जाते हैं। आजादी  का  महानायक 23 जनवरी 1897 वह दिन था जब एक महानायक का जन्म हुआ जिसने अपना पूरा जीवन भारत देश को समर्पित कर दिया। सारी उम्र वह देश की गरिमा और उसके अधिकारों के लिए लड़ता रहा। वो कोई और नहीं भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के सिपाही सुभाष चन्द्र बोस थे। उड़ीसा के कटक में जन्मे बोस युवाओं के लिए एक मिसाल थे। आज वह जीवित होते तो 120 वर्ष पूरे कर चुके होते।भारत का राष्ट्रीय नारा ‘जय हिन्द’ उनके द्वारा ही दिया गया। उनका मानना था कि सबसे बड़ा अपराध अन्याय सहना और गलत के साथ समझौता करना है।  यह बात तो हर कोई जानता है कि जब ट्रेन से गांधी जी को सामान सहित डिब्बे से बाहर फेंक दिया गया था तब वह प्लेटफ ार्म पर धरने पर बैठ गए थे, लेकिन इसके विपरीत सुभाष की शालीनता और बुद्धिमत्ता का परिचय इस घटना से पता चलता है। एक बार वह ट्रेन के फ र्स्ट क्लास डिब्बे में बैठे थे तभी एक अंग्रेज महिला डिब्बे में चढ़ी और बोस जी को देख कर चीखने लगी। उसने कहा कि तुम काला आदमी इसमें कैसे आया, अगले स्टेशन पर उतर जाना, सुभाष बाबू चुपचाप बैठे रहे, वो फिर चिल्लाई अगर तुम डिब्बे से नहीं उतरोगे तो मैं चिल्लाऊंगी कि तुमने मेरे साथ दुर्व्यवहार करने की कोशिश की। सुभाष बाबू ने उसको इशारों में बताया कि वह सुन नहीं पाते हैं, बोल नहीं पाते हैं, गूंगे और बहरे हैं इसलिए जो वह कह रही है उसे लिखकर दे। उसने लिखकर दिया। नेताजी ने उसे पढ़ा भी नहीं और जेब में रख लिया। वह फिर चिल्लाई, अरे इसे पढ़ो तो, तब नेताजी ने कहा मैडम अब आप बताइये कि अगले स्टेशन पर कौन उतरेगा? वह महिला अगले स्टेशन पर चुपचाप उतर गई।हम आज के वक्त में यह बात करते हैं कि महिलाओं को उचित सम्मान देना चाहिए, लेकिन यह बात सुभाष के मन में उस वक्त भी थी जब हम गुलाम थे। आजाद हिन्द फ ौज के साथ उन्होंने एक महिला बटालियन भी गठित की, जिसका प्रमुख उन्होंने एक महिला को ही बनाया। 18 अगस्त, 1945 को टोक्यो जाते समय ताइवान के पास नेता जी की मौत हवाई दुर्घटना में होने की खबरें आईं, लेकिन उनका शव नहीं मिला। इस महान क्रांतिकारी की मौत भी दुनिया के लिए पहेली बन कर रह गई। सुभाष चन्द्र बोस भारतीय स्वतंत्रता को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले नेता थे। गांधी से उनका हमेशा मतभेद हो जाया करता था, लेकिन वह उनका इतना सम्मान करते थे कि महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता की उपाधि उन्होंने ही दी। हिटलर जैसा शासक भी उनकी नेतृत्व क्षमता का कायल था। उनमें साहस, चक्रव्यूह रचने की क्षमता और कठिन परिस्थितियों से अपने साथियों सहित बाहर निकले की अद्भुत योग्यता थी।‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ के नारे के जन्मदाता सुभाष चन्द्र बोस को  उनके  120वें जन्मदिन पर  शत्-शत्  नमन।