भारत बातचीत करे तो पाकिस्तान में किस से ?

जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री मोहतरमा महबूबा मुफ्ती कई बार कह चुकी हैं कि भारत को पाकिस्तान से बात करनी चाहिए। यही बात नैशनल कान्फ्रैंस के सर्वेसर्वा जनाब फारूक अब्दुल्ला ने भी बार-बार कही। अब प्रश्न उठता है कि पाकिस्तान में जब सत्ता के तीन केन्द्र है तो भारत बात करना भी चाहे तो किस से? एक है जनता द्वारा चुनी गई सरकार दूसरे हैं फौजी हुकुमरान और तीसरे हैं कट्टरवाद की सोच पाले आतंकवादी। हालत यह है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहिद खाकान अब्बासी कहते हैं कि हाफिज़ सईद पर कोई आरोप लगता ही नहीं यानि वह दूध का धुला है। फौज भी हाफिज़ सईद, अज़हर मसूद और सईद सलाहुद्दीन जैसे लोगों को पूरा संरक्षण एवं सिखलाई दे रही है। आज भी पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर में तीन दर्जन से अधिक आतंकवादियों के सिखलाई कैम्प चल रहे हैं। यहां तक कि भारत-पाक संबंधों में बार-बार आती दरार और उसे भरने की कोशिश भी होती रही। गत 70 साल से बार-बार बातचीत ही तो हो रही है, लेकिन नतीज़ा फिर वही ढाक के तीन पात। महबूबा मुफ्ती साहिबा और फारूक अब्दुल्ला साहिब इतने भोले भी नहीं कि वह इतिहास को न जानते हों। सन् 1965 में भारत-पाक में जो युद्ध हुआ वह पाकिस्तान ने उस समय शुरू किया जब भारत चीन द्वारा परेशान किया जा चुका था। सन् 1962 में भारत पर चीन ने जो आक्रमण किया उससे यह बात जग-जाहिर हो गई कि भारत के पास हथियार बहुत कम थे, परन्तु पाकिस्तान यह बात भूल गया कि कई बार जंगें हथियारों से नहीं हौसलों से जीती जाती हैं और भारत ने पाकिस्तान को यह दिखा भी दिया कि भारतीय सेना इच्छोगिल नहर जो लाहौर के बहुत नज़दीक है, उसके करीब पहुंच गई थी। तब पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल आयूब खां रूस की शरण में गए। जंगबंदी हुई। ताशकंद में 11 जनवरी, 1966 को एक समझौता हुआ जिसके अनुसार पाकिस्तान कभी भी भारत के विरुद्ध हथियार नहीं उठायेगा। क्या पाकिस्तान ने इस समझौते का पालन किया? सन् 1971 में पाकिस्तानी फौज ने पश्चिमी पाकिस्तान (वर्तमान का बंगलादेश) में साधारण जनता पर अत्याचारों की झड़ी लगा दी। लाखों शरणार्थी जान बचाकर भारत में आ गए। इस पर ही बस नहीं, उसने अन्तर्राष्ट्रीय सीमा पर भारतीय क्षेत्र पर हमला कर दिया। पाकिस्तान के 93000 सैनिकों ने भारतीय सेना के सामने हथियार डाल दिए। शिमला में 2 जुलाई, 1972 को एक समझौता हुआ जिसमें जनरल याहिया खां और जनाब जुल्फिकार अली भुट्टो उस समझौते पर भी पूरे न उतरे। उस समझौते पर भी भारत के खिलाफ कभी भी हथियार न उठाने की बात कही गई थी।पाकिस्तान में 34 वर्ष जनतक सरकार रही और 36 वर्ष फौजी हुकूमत। जनरल जिया-उल-हक ने भारतीय फौज की शक्ति को समझ कर छद्दम युद्ध का सहारा लेना पाकिस्तान के हित में समझा। उसी समय से दहशतगर्दों की नई फसल उगने लगी। हद तो तब हुई जब यह बात ज़िया-उल-हक ने एक प्रैस वार्ता में मान ली थी कि वह भारत से सीधी जंग नहीं कर सकते। इसीलिए दहशतगर्दी को पालने-पोसने वाला रास्ता अपनाया। ज़िया-उल-हक की एक हादसे में मृत्यु के पश्चात् पाकिस्तान में जब पुन: लोकतंत्र आया तब नवाज़ शरीफ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान से बातचीत का रास्ता खोला और एक बस लेकर लाहौर गए। यहीं पर 21 फरवरी, 1999 को जो समझौता हुआ उसे लाहौर घोषणा-पत्र कहा गया। इस समझौते की अभी सियाही भी नहीं सूखी थी कि कारगिल पर पाकिस्तान ने हमला कर दिया। उस वक्त पाकिस्तानी फौज के चीफ थे जनरल परवेज़ मुशर्रफ। इस समझौते का भी पाकिस्तान ने वही हाल किया जो उसने पहले समझौतों का किया। नवाज़ शरीफ ने कहा भी कि जनरल मुशर्रफ ने अमन-शांति की पीठ में छुरा घोंपा है। भारत के 550 के करीब सैनिक शहीद हुए और पाकिस्तान में राज पलटा हो गया। जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने पाकिस्तान की सत्ता संभाल ली और पिछली कड़वाहट को नज़रअंदाज़ करके तत्कालीन प्रधानमंत्रीअटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार फिर भारत पाकिस्तान के रिश्तों को पटरी पर लाने का मन बनाया। 14 जुलाई, 2001 जनरल परवेज़ मुशर्रफ को भारत आने का निमंत्रण दिया और आगरा शिखर वार्ता आरम्भ की। दो दिन तक बातचीत का यह सिलसिला चलता रहा परन्तु हुआ वही जो पाकिस्तान के शासक पहले से करते रहे, बातचीत विफल रही। फिर भी सार्क सम्मेलन में जब अटल जी 6 जनवरी, 2003 में पाकिस्तान गए तो वहां जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने सीज़ फायर के लिए अटल जी से कहा जिस पर एक समझौता हुआ, जिसके मुताबिक पाकिस्तान के कब्ज़े वाले किसी भी क्षेत्र को भारत के खिलाफ इस्तेमाल करने की इजाज़त नहीं दी जायेगी। हुआ क्या? पाकिस्तानी फौज ने सीज़ फायर का उल्लंघन करना आरम्भ कर दिया और आतंकवादियों की घुसपैठ शुरू हो गई। घाटी का अमन-शांति वाला माहौल बर्बाद किया जाने लगा। पाकिस्तान से स्नेह रखने वाले कुछ लोग बिगड़ते हालात को हवा देने लगे। क्या महबूबा मुफ्ती साहिबा और फारूक अब्दुल्ला इस सबसे अनजान हैं? पाकिस्तान भारत में अलगाववाद को बढ़ावा देने लगा। हवाला के पैसे के बूते पाकिस्तानी परचम लहराए जाने लगे। हड़तालें आरम्भ हो गईं। पंडितों की निकासी और पत्थरबाज़ी देखने को मिलने लगी। बातचीत करने की कोशिश तो डा. मननमोहन सिंह ने भी की परन्तु पाकिस्तान की हस्ती भारत के साथ घृणा पर ही खड़ी है।जब नरेन्द्र मोदी 26 मई, 2014 में देश के प्रधानमंत्री बनने के लिए शपथ ले रहे थे तो इस अवसर पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ भी मौजूद थे। उन्हें इसी गज़र् से बुलाया गया ताकि बातचीत के लिए कोई रास्ता तलाश किया जा सके। नरेन्द्र मोदी एक बार अफगानिस्तान से जब दिल्ली लौट रहे थे, तब उन्होंने लाहौर हवाई अड्डे पर उतर कर राजनीतिक हलकों में अजीब-सी हलचल पैदा कर दी। उस दिन नवाज़ शरीफ साहिब की सालगिरह थी और उनके नवासे की शादी। मोदी जी नवाज़ शरीफ के साथ उनके निवास तक हैलीकाप्टर में गए। नवाज़ शरीफ की माता को सम्मान दिया जोकि भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग है, क्योंकि भारतीय समाज में वयोवृद्ध लोगों का सम्मान करना एक परम्परा भी है। बातचीत भी तो हुई होगी, परन्तु हम जानते हैं कि वहां किसी भी जन तक लीडर की कोई हस्ती नहीं है, वहां दहशतगर्दों और फौज का प्रभाव ही है, जिसे आई.एस.आई. नामक संस्था बनाए रखती है। अब ऐसे में महबूबा जी और अब्दुल्ला जी यह भी तो बताएं कि बात किससे की जाए और क्यों की जाए? पठानकोट और उड़ी पर हुए आतंकवादी हमले क्या आंख ओझल किए जा सकते हैं? भारत की नीति के अनुसार दहशतगर्दी और बातचीत एक साथ नहीं चल सकती और कुछ लोग यह भी कहते हैं कि यदि बात करनी हो तो पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर के बारे में ही की जाए, क्योंकि कश्मीर भारत का अटूट अंग है। मोहतरमा महबूबा मुफ्ती जी और शेख फारूक अब्दुल्ला हकीकत से वाकिफ हैं, तो फिर अपनी राजनीति को उस तरफ मोड़ें, जिस तरफ भारत की प्रभुसत्ता, अखण्डता और विकास हो।