शिक्षा व्यवस्था में सुधार की ज़रूरत

लगभग दो-अढ़ाई दशक पूर्व निजी स्कूलों का जो व्यवसाय शुरू हुआ था, वह आज अपने चरम पर है। प्राइवेट स्कूलों के इस मकड़जाल में हम सब बुरी तरह फंस चुके हैं। निजी विद्यालयों का बढ़ता कारोबार और सरकारी स्कूलों का कम होता आकर्षण चिंता का और शोध का विषय है। सरकारी स्कूलों की लगातार हो रही अनदेखी, इनकी धीमी प्रक्रिया और ढुलमुल सरकारी रवैय्या इस सबके लिए ज़िम्मेदार है। कुछ समय पूर्व इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक स्वागत योग्य और बेहद अहम सुझाव दिया था जिसके अनुसार सभी सरकारी अफसरों के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ें। अगर ये वास्तव में हो जाता है तो निश्चित रूप से सरकारी स्कूलों की स्थिति आश्चर्यजनक रूप से सुधर जाएगी।
यूं तो सरकारी स्कूल अपने आप में सक्षम हैं। देश का उज्जवल भविष्य तैयार करने में, परन्तु इसमें बरती जा रही लापरवाही के चलते यह सब सम्भव नहीं हो पा रहा है। वर्तमान में देश में ही नहीं, विदेशों में भी उच्च पदों पर बैठे तमाम डाक्टर, वैज्ञानिक, वकील, व्यवसायी सभी इन्हीं स्कूलों में अध्ययन किये हुए हैं परन्तु वर्तमान में इन स्कूलों में विद्यार्थियों की संख्या उंगलियों में गिनी जा सकती है। क्योंकि इन स्कूलों में सिर्फ वही बच्चे पढ़ने आते हैं, जो निजी स्कूलों की फीस देने में सक्षम नहीं हैं। वास्तव में समाज का सबसे गरीब तबका ही इन स्कूलों में अध्ययन करने को मजबूर है।गौरतलब है कि सरकारी विद्यालयों के शिक्षक/शिक्षिकाएं उच्च शिक्षा प्राप्त कर ही प्रवेश पाते हैं। परन्तु फिर भी विद्यार्थियों की संख्या नाममात्र है। कारण क्या हैं? शिक्षकों का अभाव, जागरूकता की कमी या फिर हमारे तंत्र की खामी। कुछ समय पूर्व एक निजी टी.वी. चैनल द्वारा प्राइमरी स्कूल के अध्यापकों का स्टिंग आपरेशन किया गया जिसमें इनकी योग्यता पर प्रश्नचिन्ह खड़े किए। ऐसे में शिक्षा व्यवस्था में सुधार की ज़रूरत सबको महसूस होती है। समय-समय पर यह ज़रूरत बड़े-बड़े नेताओं के चुनावी भाषणों में स्पष्ट देखी जा सकती है परन्तु चुनाव परिणाम आते ही ये वायदे, ये इच्छाशक्ति मात्र चुनावी जुमले बनकर रह जाते हैं।इन सब खामियों के चलते ही निजी स्कूलों का व्यवसाय पोषित हो रहा है। मैं व्यवसाय शब्द इसलिए इस्तेमाल कर रही हूं कि वास्तव में अध्ययन के साथ-साथ ये स्कूल व्यवसाय का मुख्य अड्डा बन गए हैं। मार्च-अप्रैल का महीना आते ही सारे अभिभावकों का बजट एकाएक गड़बड़ा जाता है। इन स्कूलों में हर साल नई किताबें, नई यूनिफॉर्म और फिर से एडमिशन शुल्क के रूप में ली जाने वाली मोटी रकम माता-पिता की जेब ढीली करने में कसर नहीं छोड़ती है। प्रत्येक वर्ष बदलता पाठ्यक्रम परेशानी का अलग सबब है। दरअसल  पाठ्यक्रम लगभग वही होता है, बस बाहर से कवर और प्रस्तुति का ढंग बदल जाता है, जिससे एक बार इस्तेमाल हुई किताबें अगले साल फिर से प्रयोग में न लाई जा सकें। क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो निश्चित रूप से फलते-फूलते इस कारोबार पर असर पड़ेगा। यह सिलसिला यहीं खत्म नहीं हो जाता। स्कूल की किताबें, यूनिफॉर्म या तो स्कूल में ही मिलती हैं या फिर स्कूल द्वारा चिन्हित  की गई किसी दुकान में। यह सब जानते हुए भी हम खामोश हैं। इनकी मनमानी रोकने के लिए कठोर कदम उठाए जाने की आवश्यकता है।यह सब जानते हुए भी हम मजबूर हैं और एक मोटी फीस अदा कर रहे हैं। क्योंकि सरकारी तंत्र की कमज़ोरी के चलते  सरकारी स्कूलों की दशा और दिशा दोनों ही बिगड़ी हुई हैं। देश की राजनीति सिर्फ कुछ विश्वविद्यालयों तक ही उलझी हुई है। कुरुक्षेत्र बन चुके चंद विश्वविद्यालय वर्तमान में राजनीति का गढ़ बने हुए हैं। अगर संबंधित मंत्रालय दृढ़-निश्चय कर ले तो हमारी शिक्षा व्यवस्था को सुधारा जा सकता है। जिस देश में चाणक्य, आर्य भट्ट, पूर्व राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन, डा. भीमराम अम्बेदकर, डा.  कलाम जैसे महान शिक्षाविद् और विद्वान हुए जिन्होंने हमें नये रास्ते तलाशने में मदद की है, वहां शिक्षा की हो रही दुर्दशा वास्तव में चिंता का विषय है। 
हमारे प्राइमरी स्कूलों की स्थिति तो बेहद चिंताजनक है। इनमें न विद्यार्थी हैं और न ही अध्यापक। अगर हैं भी तो इनकी ज़िम्मेदारी ही तय नहीं है। आने-जाने का निश्चित समय नहीं, न पढ़ने का न पढ़ाने का तरीका। बस स्कूल के रजिस्टर पर उपस्थिति दर्ज की जाती है। इसके विपरीत प्राइवेट स्कूलों में सभी शिक्षिकाओं/शिक्षकों की ज़िम्मेदारियां तय की गई हैं, जिससे स्कूलों का प्रदर्शन भी अच्छा होता है। निश्चित रूप से शिक्षा में व्याप्त भ्रष्टाचार, कमियों को दूर कर इसके स्तर को सुधारने की ज़रूरत है। सरकारी स्कूलों में थोड़ा सख्ती की जाए, तो इसका स्तर निश्चित रूप से बदल सकता है। खस्ताहाल हो रहे विद्यालयों के भवन, शौचालयों का अभाव, लगातार हो रही अनदेखी हमें निजी स्कूलों की ओर धकेल रहे हैं, जिससे इनकी मनमानी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।