कृषि को लाभकारी बनाया जाना ज़रूरी

किसानों का कर्ज़ माफ किये जाने की सरकारी घोषणाओं एवं दावों के बावजूद पंजाब में कर्ज़ के बोझ तले दबे किसानों द्वारा आत्महत्या किये जाने के समाचार पूर्ववत् जारी हैं। समस्या का त्रासद पक्ष यह भी है कि एक ओर सरकारी तंत्र निरन्तर ऐसी घोषणाएं कर रहा है, उधर किसानों के सिर पर कर्ज़ की गठरी अभी भी भारी होती जा रही है। एक गैर-सरकारी रिपोर्ट के अनुसार पंजाब में प्रतिदिन औसत तीन किसान आत्म-हत्या करते हैं, जबकि एक सरकारी आंकलन में दर्ज आंकड़ों के अनुसार वर्ष ख् के बाद के क्भ् वर्षों के प्रदेश ने ख्ख् ज़िलों में क्म् हज़ार किसानों ने खुदकुशी की। ये आंकड़े सचमुच चिन्ताजनक हैं। ये आंकड़े यह भी सिद्ध करते हैं कि सरकारी प्रशासनिक योजनाओं, घोषणाओं और कृषि धरातल के सत्य के बीच कहीं न कहीं तो ऐसा कोई अन्तराल है, जो समस्या के वास्तविक पक्ष को पृष्ठभूमि में ले जाता है। प्रदेश में किसानों की कर्ज़-माफी योजना लागू हो जाने के बावजूद यदि इसका लाभ सही और पात्र लोगों तक नहीं पहुंचा तो निःसंदेह योजनाओं के क्रियान्वयन में कहीं न कहीं त्रुटि रह गई है।देश में कृषि व्यवसाय वैसे भी कभी लाभ का सौदा नहीं रहा है। आज़ादी के बाद यदि कृषि क्षेत्र में दुरावस्था थी, तो स्वतंत्र भारत में भी कृषि पर बाज़ारवाद का अजगरी संकट मौजूद है। पंजाब में कृषि की स्थिति देश के अन्य प्रांतों से कहीं कम दुष्कर और चिन्ताजनक तो कदापि नहीं है। किसान की फसल के मंडीकरण के बाद, उसकी पूरी लागत भी यदि उसकी जेब में आ जाए, तो यह ग़नीमत की बात होती है। कृषि उपकरणों और खाद-बीज के मूल्यों में वृद्धि बाज़ार के उतार-चढ़ाव के साथ होती है, परन्तु कृषि जिन्सों के दाम प्रायः सरकार की इच्छा पर निर्भर करते हैं, और सरकारें अपना राजनीतिक लाभ-हानि पहले सामने रखती हैं। किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य न मिल पाने के पीछे भी इसी बाज़ारवाद का तर्क भारी रहता है। किसानों के उत्पादन के लाभ की अधिकतर मात्रा मंडी की बिचोलगी की भेंट चढ़ जाती है। द्वि-फसली चक्र भी किसानों की इस दुर्दशा के लिए उतना ही उारदायी है। सरकार आज़ादी के बाद के विगत सात दशक के समय में भी कृषि आधारित औद्योगिक इकाइयों की स्थापना ग्रामीण धरातल पर नहीं कर सकी। इसका परिणाम यह सामने आता है कि फसल पक जाने के बाद किसान किसी न किसी एक अथवा दूसरे कारण से उसे औने-पौने दाम पर बेचने को विवश हो जाता है। गेहूं और धान के मौसम में यदि ऐसा होता है तो आलू की फसल के साथ इससे भी बुरा व्यवहार होता है। सरकार की ओर से फसलों के विविधिकरण हेतु ग्रामीण धरातल पर कभी कोई मदद नहीं मिली। सरकार की मदद के बिना इस पक्ष से किसानों के पास कोई अधिक विकल्प हैं भी नहीं।पंजाब में बेशक मौजूदा सरकार ने कर्ज़ माफी की प्रक्रिया शुरू हो जाने की घोषणा कर दी है, परन्तु घोषणा के बाद से ही इसके क्रियान्वयन में किसी न किसी कारण से और किसी न किसी धरातल पर अड़चन आती रही है, और आज भी इसे बेलाग और बेदाग तरीके से लागू नहीं किया जा सका है। इसका परिणाम यह भी निकल रहा है कि योजना का लाभ सही और पात्र लोगों तक पहुंच नहीं रहा है, जबकि अपात्र लोग लाभान्वित हो रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार पंजाब के कृषि क्षेत्र पर लगभग फ्भ् करोड़ रुपए का कर्ज़ है। वर्ष  में यह कर्ज़ लगभग भ्स्त्र करोड़ रुपए था जबकि किसानों में आत्महत्या का रुझान भी इसी दौर में सामने आया बताया जाता है। तब से सरकार की ओर से कई बार इस प्रकार की ऋण-माफी की घोषणाएं की गई हैं, परन्तु समस्या का परनाला कभी भी जस से तस नहीं हुआ। इससे यह भी संकेत मिलता है कि केवल कर्ज़ माफी ही इस समस्या का सही हल नहीं है। किसानों को इस नाग-पाश से मुति दिलाने के लिए कृषि धंधे को लाभकारी पथों पर मोड़ना बहुत ज़रूरी है। सरकारी ऋण से माफी का एक जूला यदि किसान के गले से उतरता है तो साहूकारा सूद की दूसरी पंजाली तैयार पड़ी होती है। होना तो यह चाहिए कि अन्य किसी भी उद्योग-धंधे की भांति कृषि को भी लागत से जोड़ा जाए। ऐसा भी हो सकता है कि किसानों की उपज को सरकार उसकी लागत में लाभ का प्रतिशत जोड़ कर स्वयं खरीद करे, और फिर उसे स्वयं वितरित करे। देश में यह भी एक बड़ी समस्या है कि कुल उत्पादन का दो-तिहाई हिस्सा बिना समुचित रख-रखाव के नष्ट हो जाता है। इसका खमियाज़ा भी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से किसान को ही भोगना पड़ता है।हम समझते हैं कि निःसंदेह कृषि को ऋण मुत बनाया जाना बहुत ज़रूरी है, परन्तु यह ऋण माफी टुकड़ों में बट कर नहीं होनी चाहिए। सरकारों को अपने योजना विभाग के साथ मिल-बैठ कर इस प्रकार की दूरगामी योजनाएं तैयार करनी होंगी, जिनके तहत एक ओर जहां कृषि व्यवस्था घाटे में परिवर्तित न हो, वहीं सरकार इस बात को भी यकीनी बनाए कि किसान को उसका लागत-मूल्य हर हालत में हासिल हो। इसके साथ ही , उसका लाभांश भी, अन्य किसी भी व्यवसाय की भांति तय होना चाहिए। हम समझते हैं कि जब तक सरकारें अथवा उनके योजनाकार नियोजित तरीके से कृषि व्यवसाय को कर्ज़ के चंगुल से मुति दिला कर, इसे लाभकारी नहीं बनाते, किसानों की आत्म-हत्या की वृिा पर पूर्ण-रूपेण अंकुश लगाना संभव नहीं हो सकता।