चैम्पियनों की दर्द भरी गाथा

खिलाड़ी किसी देश या राष्ट्र की पूंजी हुआ करते हैं। यह पूंजी हीरों के समान सम्भालनी है या व्यर्थ गंवानी है, यह समय की सरकारों और खेल तंत्र के ताने-बाने पर निर्भर करता है। इसी संदर्भ में कभी-कभार खिलाड़ियों के कई दर्द भरे किस्से सामने आते रहते हैं, जिस कारण सिर शर्म से झुक जाता है, जो कभी वक्त के बादशाह के तौर पर जाने जाते हैं और उनके नाम बड़ी सुर्खियां लिखी जाती हैं। पिछले दिनों ऐसा ही एक किस्सा मुक्केबाज़ कौर सिंह की दर्द कहानी बन कर सामने आया। 1982 के एशियन खेलों सहित अंतर्राष्ट्रीय मुकाबलों में 6 स्वर्ण पदक विजेता, महान मुक्केबाज़ मोहम्मद अली के साथ रिंग में दो-दो हाथ करने वाले, अर्जुन अवार्ड, पद्मश्री और विशिष्ट सेवा मैडल के साथ सम्मानित, सरकारी बेरुखी के शिकार, किसी नामुराद बीमारी के साथ अस्पताल में उपचाराधीन, सेना से सेवानिवृत्त पंजाब का यह अनमोल हीरा अपना इलाज करवाने में असमर्थ है और अब वह वक्त की मार सहन करते हुए टूट गया है।यह त्रासदी सिर्फ कौर सिंह की ही नहीं, बल्कि ऐसे और भी कई महान खिलाड़ी हैं, जो सरकारी बेरुखी का संताप भोग चुके हैं। कितनी निराशा वाली बात है कि जिस देश के एशियन चैम्पियन खिलाड़ी को सब्ज़ी की रेहड़ी लगा कर गुज़ारा करना पड़ रहा हो, खेल जगत का कोई बेताज बादशाह जब झोंपड़ियों में अपने दिन बिताये किसी राष्ट्रीय खिलाड़ी को रोजी-रोटी के कारण ट्रक ड्राइवरी करनी पड़े, किसी समय सुर्खियों में रहे सरताज को चपड़ासी तक बनना पड़ा हो, तो उस देश और समाज का सिर शर्म से झुक जाना चाहिए। वर्ष 1962 के एशियाई खेलों में मक्खन सिंह ने रिले दौड़ में स्वर्ण पदक जीता लेकिन ज़िन्दगी के लम्बे संघर्ष में उनको ट्रक ड्राइवरी भी करनी पड़ी। हादसे में टांग कट जाने के बाद वह चब्बेवाल (होशियारपुर) में किताबें-कापियां बेचने के लिए मजबूर हुए।वर्ष 1973 के विश्व बिलियार्ड के उप-विजेता सतीश मोहन खेलने के बाद गरीबी की ज़िन्दगी व्यतीत कर रहे हैं। एक बस के फुट बोर्ड से गिर कर वह ज़िन्दगी की आखिरी बाज़ी हार गए। लेकिन पोस्टमार्टम से पता चला कि पिछले तीन दिनों से उनको रोटी नहीं थी मिली। टी.सी. जोहानन 1974 एशियाड के लम्बी छलांग के स्वर्ण पदक विजेता और रिकार्ड होल्डर (8.07 मी.) थी। 1976 की ओलम्पिक तैयारी करते चोट लग गई। आर्थिक मदद के लिए निजी दफ्तरों सहित सरकार की भी मिन्नतें कीं, किसी ने भी कोई मदद नहीं की और उनका खेल करियर समाप्त हो गया। होशियारपुर ज़िले का फुटबालर गुरकृपाल सिंह जो मोहन बागान और ईस्ट बंगाल के लिए भी खेले, ढलती उम्र में बिजली बोर्ड के दर्जा चार की नौकरी के लिए भी हाथ पांव मारे, लेकिन अफसरों की ओर से साफ इन्कार कर दिया गया और आज यह खिलाड़ी गांव में कृषि करता गुमनामी की ज़िन्दगी व्यतीत कर रहा है। पंजाब के भगता भाई कस्बे के प्रदुमण सिंह ने एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीते लेकिन जब लकवा ग्रस्त होकर चारपाई पर पड़े, सरकारी फरियाद आगे फरमान आया कि आप तो सेना के लिए खेलते थे। 1960 रोम ओलम्पिक में पांचवें नम्बर पर रहे माधो सिंह ने स्कूल में छोटी-सी नौकरी मांगी तो बोल दिया गया कि आप तो अनपढ़ हैं। एशियाई और ओलम्पिक मुकाबलों में फुटबाल खेलने वाले नूर मोहम्मद ने ज़िन्दगी के अंतिम दिन मधुमेह की बीमारी से लड़ते हुए गुज़ारे। 1962 के एशियाई खेलों में फुटबॉल में स्वर्ण पदक जीतने वाले हैदराबाद के मोहम्मद यूनस खान के समय की सभी अलमारियों में जंग खाए कप और धूल में ़गुम हुए उनके पदक उनकी ज़िन्दगी का आप इस बात से सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है, जब वह कहते हैं, ‘मैं अपने खर्चे कैसे पूरे करता हूं, यह बताते हुए मुझे शर्म आती है।’वर्ष 1978 में अर्जन्टीना  विश्वकप में खेलने वाले बिहार के खिलाड़ी गोपाल भेगड़ा को पत्थर तोड़ने की मजबूरी करते देख कोई भी तय कर सकता है कि भारत के लिए हॉकी नहीं खेलनी चाहिए। सेना से सेवानिवृत्त होने के बाद छोटी-मोटी नौकरी के लिए मंत्रियों, नौकरशाहों, व्यापारियों तक के दरवाज़े खटखटाने से मायूस होने वाले इस शख्स ने दर्द भरी आवाज़ में कहा, ‘यह हाथ हॉकी, गेंद खेलने के लिए बने थे, न कि 50 रुपए के 100 पत्थर तोड़ने के लिए।’खैर, यह तो कुछ गिने-चुने नाम हैं जो सामने आए हैं, पता नहीं और कितने खिलाड़ी गुमनाम होकर मंदहाली का जीवन बिता रहे हैं।