जापानियों के जुल्म की दर्दनाक दास्तान

काले पानी की धरती भारत के स्वतंत्रता संग्राम में बहुत पवित्र स्थान रखती है। यह वह धरती है, जहां हज़ारों देश-भक्तों ने बे-इंताह ज़ुल्मों को सहन करते हुए अपनी जानें देश की आज़ादी के लिए कुर्बान कर दीं। हैरानीजनक पहलू यह है कि इस धरती ने अपने सीने पर जो ज़ुल्म सहन किए, उसका बहुत सारा हिस्सा इतिहास के पन्नों में वह स्थान हासिल नहीं कर सका जो इसको मिलना चाहिए था। ऐसी ही एक दर्दनाक कहानी है जापानियों द्वारा अंडेमान की इस धरती पर किए गये कहर की जिसको लेखक द्वारा, सैलूलर जेल का मुआयना करने के लिए शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के एक डैलीगेशन सदस्य के तौर पर अंडेमान की यात्रा के समय, उस यातना के चश्मदीद गवाह गौरी शंकर पांडे की जुबानी सुनने का मौका मिला।दूसरे विश्व युद्ध के दौरान मार्च 1942 में अंडेमान-निकोबार द्वीप समूह पर जापानियों का कब्ज़ा हो गया था और अंग्रेज़ उस स्थान को छोड़ कर चले गए। वहां रह गए स्वतंत्रता सेनानियों ने अप्रैल 1943 इंडियन इंडीपेडैंस लीग की शाखा स्थापित कर ली। जिसका मुख्य उद्देश्य भारत की आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लेकर देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्ति दिलवाना था। डा. दीवान सिंह कालेपानी को इसका प्रधान, श्री लक्षमण दास को सचिव और गौरी शंकर पांडे के पिता श्री प्रेम शंकर पांडे को इसका सहयोगी सचिव बनाया गया। इस लीग के कार्यकर्ता गांव-गांव जाकर लोगों में देश-भक्ति का जज्बा भरते थे, उनको देश की आज़ादी की लड़ाई के लिए प्रेरित करते और फंड एकत्रित करते थे। इस लीग के लगभग 100 सदस्यों को मिलिट्री की ट्रेनिंग दी गई और परिणामस्वरूप इंडियन नैशनल आर्मी का भी लीग के तौर पर इस द्वीप समूह में गठन कर दिया गया। यह कार्य भारत पर शासन कर रहे अंग्रेज़ों को रास नहीं था और वह इसको चुनौती के तौर पर ले रहे थे और जापानियों के साथ-साथ भारतीय स्वतंत्रता सेनानी भी उनकी आंखों में खटकने लगे। अंग्रेज़ों ने अपने जासूस इस द्वीप समूह पर छोड़ दिए और उनकी सूचना पर वह जापानियों पर हमले करने लगे। इन जासूसों में कुछ भारतीय भी थे।
जापानियों को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने बजाय अंग्रेज़ों के जासूसों को काबू करने के आज़ादी लीग के सदस्यों को पकड़ना शुरू कर दिया और ऐसा होने से अमानवीय यातनाओं का सिलसिला शुरू हो गया। यातनाओं का सिलसिला शुरू हो गया। पहला जासूसी केस 23 जनवरी, 1943 को शुरू हुआ और 30 मार्च, 1943 को सात व्यक्तियों को ऐबरदीन गांव में लाकर गोलियों से उड़ा दिया गया। और उनकी लाशें उनके घर वालों को दे दी गईं। इन सभी व्यक्तियों को अंग्रेज़ों के जासूस घोषित कर दिया गया। इस शृंखला के तहत दूसरा जासूसी केस शुरू किया गया और 18 अक्तूबर 1943 को लीग सदस्यों की बड़े स्तर पर गिरफ्तारी शुरू की गई और इनमें लीग के कार्यकारी सदस्य भी शामिल थे। गिरफ्तार किए गए सदस्यों को सैलूलर जेल में बंद कर दिया गया। यह सिलसिला चल ही रहा था कि लगभग 10 दिनों के बाद लीग के प्रधान डा. दीवान सिंह काले पानी और पंडित गौरी शंकर के पिता श्री प्रेम शंकर पांडे को भी गिरफ्तार कर लिया गया और सैलूलर जेल भेज दिया गया। इस जासूसी केस को डा. दीवान सिंह जासूसी केस का नाम दिया गया और 1944 तक लगभग 630 व्यक्तियों को कैद किया गया। इनका अमानवीय यातनाएं दी गइर्ं और इनको यह मानने के लिए मजबूर किया गया कि यह अंग्रेज़ों के जासूस हैं। जबकि सच्चाई यह थी कि यह सब इंडियन इंडीपैंडैंस लीग के ज़रिए इन द्वीप समूहों से भारत की आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे थे। लेकिन इनके वचनों को सुनने वाला कोई नहीं था और इनके साथ और इनके परिवारवालों के साथ इस किस्म का अत्याचार किया गया तो शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। यह भी उल्लेखनीय है कि इस समय के दौरान 29 दिसम्बर, 1943 को इंडियन नैशनल आर्मी के सुप्रीम कमांडर नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने भी अंडेमान-निकोबार में सैलूलर जेल का दौरा किया, लेकिन जापानी अधिकारियों ने वह सभी कैदी किसी भी तरीके से सामने नहीं आने दिए। नेता जी ने अंडेमान में लीग सदस्यों के साथ मुलाकात भी की, लेकिन पंडित गौरी शंकर के अनुसार यह बात समझ से बाहर थी कि उपरोक्त गिरफ्तारियां नेता जी सुभाष चंद्र बोस के ध्यान में क्यों नहीं आईं। बल्कि नेता जी के जाने के बाद गिरफ्तारियों का सिलसिला और भी तेज हो गया और अत्याचार बढ़ गया। 13 जनवरी, 1944 की रात को लगातार यातनाओं के कारण डा. दीवान सिंह काले पानी जेल में ही भगवान को प्यारे हो गए और उनका संस्कार जेल अधिकारियों की ओर से ही कर दिया गया। कई और सेनानी भी यातनाओं के कारण स्वर्ग सिधार गए। फिर शुरू हुई अगले कहर की गाथा। गिरफ्तार किए सदस्यों में 44 सदस्यों को चुन कर उनके पारिवारिक सदस्यों और जनता की उपस्थिति में जेल में से बाहर लाया गया। इनके पारिवारिक सदस्य जापानी बलों के आदेश पर सैलूलर जेल के बाहर इकट्ठे किए गए थे।