मानववादी सिनेमा के पैरोकार वी. शांताराम

 संबंधित मुश्किल विषयों को रजतपट पर पेश करने का शांताराम का विशेष शौक था। इसका मुख्य कारण यह था कि ऐसा करके वह अपनी फिल्मों को बहुत ही आसानी के साथ स्नातकीय दर्जे पर शामिल करवा देते थे। इसलिए ‘गीत गाया पत्थरों ने’ (1964) में उन्होंने एक शिल्पकार की मेहनत या प्रतिबद्धता के बारे में दर्शकों को जानकारी दी थी। इसके नायक (जतिन्द्र) को उन्होंने एक कठिन भूमिका में उतारा था जबकि नायिका उनकी बेटी राजश्री ही थी। भिन्न-भिन्न कलाओं की सृजना से संबंधित इन विषयों के अलावा शांताराम ने अपना सुधारवादी दृष्टिकोण भी जारी रखा था। इस दृष्टिकोण से उन्होंने ‘सेहरा’ और ‘बूंद जो बन गई मोती’ का निर्माण-निर्देशन भी किया था। ‘तीन बत्ती चार रास्ते’ भी उनकी एक सामाजिक फिल्म ही थी। महान हस्तियों के साथ जुड़े हुए प्रसंगों पर फिल्में बनाने में भी शांताराम ने कई प्रयोग किए थे। ‘डा. कुटनिस की अमर कहानी’ में उन्होंने एक ऐसे ज़िम्मेवार डाक्टर की जीवनी दिखाई थी, जोकि अपनी जान खतरे में डाल कर मरीज़ों की सेवा करता है। लेकिन ‘जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली’ और ‘सेहरा’ को पर्याप्त सफलता न मिलने के कारण शांताराम ने धीरे-धीरे फिल्म निर्माण से पांव पीछे खींचने शुरू कर दिए थे। हां, उन्होंने दूसरे फिल्म निर्माताओं को प्रेरणा देने और निर्माण सुविधाओं में वृद्धि करने के लिए अपने स्टूडियो को आधुनिकता प्रदान करने के प्रति ही अधिक ध्यान देना शुरू कर दिया। इस दृष्टिकोण से उन्होंने अनेकों ही निर्माताओं को अपने स्टूडियो में आफिस खोलने की अनुमति दे दी। इस संदर्भ में यश चोपड़ा का करियर बनाने में शांताराम का विशेष हाथ था। यश चोपड़ा ने जब अपने भाई (बी.आर. चोपड़ा) से अलग होने का फैसला किया तो उन्होंने राज कमल के एक छोटे से कमरे में ही अपना आफिस खोला था। चाहे बाद में उनका अपना भी स्टूडियो बन गया। लेकिन वह कभी भी शांताराम की फराखदिली और सहयोग को भुला नहीं सके थे। यहां तक कि यश राज की पहली फिल्म ‘द़ाग’ के फाइनैंस का प्रबंध भी वी. शांताराम ने ही किया था। इस महान फिल्म निर्माता की यह भी एक देन है कि उन्होंने जतिन्द्र जैसे लोकप्रिय नायक और राजश्री जैसी प्रतिभाशाली नायिका फिल्म जगत की नज़र की। महीपाल को भी सबसे पहले उन्होंने ही मौका दिया था। दरअसल महीपाल आये तो फिल्मों में गीत लिखने के लिए थे परन्तु वी. शांताराम की पारखी नज़र ने उनमें एक बढ़िया कलाकार की झलक देख ली थी। क्योंकि शांताराम ने फिल्म निर्माण की सभी ही विधियों के बारे में पूरी जानकारी हासिल की हुई थी, इसलिए उनकी फिल्मों का संगीत भी बहुत ही सुरीला और सदा बहार होता था। इस संदर्भ में उनकी फिल्मों के कई गीत उनकी फिल्मों के विषय को  प्रतिबिंबित करते थे। 
(शेष अगले रविवारीय अंक में)
उदाहरण के तौर पर जब उन्होंने ‘दो आंखें बारह हाथ’ फिल्म बनाई तो इसके विषय को लेकर लोग आश्चर्यचकित हो गए थे। इसमें उन्होंने जेल में सजा काट रहे कैदियों को मानववादी दृष्टिकोण के साथ बदलने की सलाह दी थी। जब यह विषय गीतकार भगत व्यास ने सुना तो उनको इस रचना में गीतों का कोई भी स्थान नज़र नहीं आया था। लेकिन वी. शांताराम ने अपने ढंग के साथ जब उनको कहानी सुनाई तो परिणाम आश्चर्यजनक निकले थे। इसी फिल्म का एक गीत ‘ए मालिक तेरे बंदे हम’ तो बाकायदा देश के कई स्कूलों में रोज़ाना प्रार्थना के समय विद्यार्थियों के द्वारा गाया जाने लगा था। इसी तरह ‘कौन हो तुम कौन हो’ (स्त्री), गीत गाया पत्थरों ने (गीत गाया पत्थरों ने), जा रहे नटखट (नवरंग) और ‘पंख होते तो उड़ आती रे’ (सेहरा) आदि फिल्मों के गीत पटकथाओं में प्रासंगिक होने के अलावा संगीतक तौर पर मधुरता से भी भरपूर थे। इन गीतों का फिल्मांकन भी जिस कल्पनाशील ढंग से उन्होंने किया उससे सिनेमा के विद्यार्थी शिक्षा ले सकते हैं। ‘नवरंग’ का गीत ‘आधा है चंद्रमा, रात आधी और गीत गाया पत्थरों ने का टाइटल गीत और ‘मंडले तल गरीब’ वाला गीत उनकी शिल्पकला को बाखूबी प्रतिबिंबित करते हैं। यह जानकर और भी खुशी होती है कि वी. शांताराम के समय के बहुत से स्टूडियो बंद हो चुके हैं, लेकिन राजमकल अभी भी फिल्म निर्माण का केन्द्र है। नहीं तो फेम्स स्टूडियो, रूपतारा स्टूडियो, श्री साऊंड स्टूडियो, आशा स्टूडियो और रणजीत स्टूडियो आदि के तो नामो-निशान ही मिट गए हैं। राजकमल को समय के अनुसार प्रासंगिक बनाने के पीछे वी. शांताराम की सिनेमा प्रति निष्ठा ही थी। उन्होंने अपने स्टूडियो के पहले फ्लोर पर ही अपना आराम करने और सोने का कमरा बनाया हुआ था। कहने का भाव यह है कि उनका सारा ही समय राजकमल में ही व्यतीत होता था। वैसे उनका मैनवल के नज़दीक पन्हाला में अपना अलग शानदार बंगला था। लेकिन वह वहां बहुत कम रहते थे। आजकल इस बंगले को उनकी बेटी सरोज ने ‘होटल वैली व्यू’ में बदल दिया है।
वी. शांताराम के आखिरी दिन बहुत ही एकांत में बीते थे। उनको एहसास हो गया था कि उनके दिन कम रह गए हैं। इसलिए उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारियां अपने बेटे किरण को सौंप दी थीं।