बजट के वायदे और चुनौतियां

मोदी सरकार के पांचवें और वर्तमान कार्यकाल के अंतिम पूर्णकालिक बजट तथा देश के 25वें वित्तमंत्री के 88वें आम बजट के बारे में हर किसी का यही अनुमान था कि बजट लोक लुभावन होगा किन्तु पेश किए गए बजट को लोकलुभावन नहीं बल्कि काफ ी हद तक चुनावी बजट माना जा सकता है, जो पूरी तरह से किसानों, गांवों, गरीबों, कमजोर वर्गों व युवाओं पर केन्द्रित है, जिसमें इन वर्गों के लिए कई बड़ी-बड़ी घोषणाएं करके इस साल होने वाले 8 राज्यों के विधानसभा चुनावों तथा 2019 के लोकसभा चुनाव के दृष्टिगत देश के बहुत बड़े मतदाता वर्ग को साधने की कोशिश की गई है और इसका सीधा सा अर्थ स्पष्ट है कि सरकार इन्हीं वर्गों को खुश करके चुनावी वैतरणी पार करने की योजना बना रही है। तात्कालिक रूप से बजट को स्पष्ट रूप से ‘अच्छा’ या ‘बुरा’ कहना बड़ा मुश्किल है, हां यदि इसे ‘सपनीला बजट’ कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस बजट को देश की सवा करोड़ से अधिक आबादी की आशाओं और अपेक्षाओं के अनुरूप हरगिज नहीं माना जा सकता। एक तरफ  जहां किसान, मजदूर, सैनिक, बुजुर्ग इत्यादि कुछ वर्गों के लिए ढ़ेर सारी राहतों और योजनाओं की बौछार कर दी गई, वहीं कुछ वर्गों की झोली पूरी तरह से खाली ही रही। खासकर शहरी आबादी, मध्यम वर्ग, नौकरीपेशा वर्ग तथा उच्च वर्ग के हाथ इस बजट से कुछ खास नहीं लगा बल्कि लगातार सुरसा के मुख की भांति बढ़ती महंगाई के दौर में पिछले 4 साल से आयकर स्लैब में बदलाव होने और आयकर में छूट की बाट जोह रहे मध्यम वर्ग को एक बार फि र बड़ा झटका लगा है। भले ही नौकरीपेशा वर्ग को 40 हजार की मानक कटौती का लोलीपॉप देने की कोशिश की गई है किन्तु दूसरे दरवाजे से इसमें से अधिकांश छूट को चिकित्सा बिल व परिवहन भत्ते पर छूट बंद कर वापस ले लिया गया है, वहीं शिक्षा व स्वास्थ्य पर सेस एक प्रतिशत बढ़ाकर 3 से 4 फीसदी करके करदाताओं पर बोझ और बढ़ा दिया है, जिसका असर शिक्षा और स्वास्थ्य के अलावा अन्य सभी क्षेत्रों पर भी पड़ने से इन्कार नहीं किया जा सकता। याद करें कि इससे पहले मोदी सरकार ने ‘स्वच्छ भारत’ के नाम पर भी इसी प्रकार सेस लगाया था, जिससे करदाताओं की जेबें तो खूब ढ़ीली की गई किन्तु ‘स्वच्छ भारत सेस’ देश के स्वच्छता अभियान में कितना उपयोगी साबित हुआ, सच्चाई सबके समक्ष है। बजट में रेलवे की हालत सुधारने के लिए 1.48 लाख करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है जबकि रक्षा क्षेत्र का बजट पिछली बार से 7.8 फीसदी बढ़ाकर 2.95 लाख करोड़ कर दिया गया है। ग्रामीण विकास पर 14.34 लाख करोड़ खर्च करने की योजना है, जिसके बारे में कहा गया है कि इससे गांवों में चौतरफा विकास के रास्ते खुलेंगे और रोजगार के अवसर भी पैदा होंगे। एक लाख ग्राम पंचायतों को हाईस्पीड ब्रॉडबैंड से जोड़ने, दो करोड़ शौचालय बनाने, हर तीन संसदीय क्षेत्र पर एक मेडिकल कॉलेज खोलने, 8 करोड़ गरीब महिलाओं को उज्जवला योजना के तहत मुफ्त गैस कनैक्शन देने, 4 करोड़ घरों को सौभाग्य योजना के तहत मुफ्त बिजली कनैक्शन देने, बुजुर्गों को विभिन्न राहत इत्यादि बजट के महत्वपूर्ण प्रावधान हैं, जिनका स्वागत किया जाना चाहिए। दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना के रूप में देश के 10 करोड़ गरीब परिवारों यानी करीब 50 करोड़ लोगों को पांच लाख रुपये के स्वास्थ्य बीमा के दायरे में लाना भी नि:संदेह एक प्रशंसनीय कदम है।
बजट को पूरी तरह से ग्रामीण एवं किसान केन्द्रित रखे जाने के पीछे अहम कारण आसानी से समझा जा सकता है। दरअसल पिछले दिनों गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा भले ही 99 सीटें जीतकर सत्ता बचाए रखने में जैसे-तैसे सफल हो गई किन्तु खासकर गुजरात के ग्रामीण इलाकों में पार्टी को जो फ जीहत झेलनी पड़ी, उससे पार्टी के समक्ष यह आईने की तरह साफ  हो गया था कि देश में ग्रामीण समाज और किसानों की अनदेखी कर भविष्य में चुनावी वैतरणी पार करना उसके लिए बेहद मुश्किल होने वाला है, संभवत: इसी कारण बजट के माध्यम से यह बड़ा दांव खेला गया है। अगर बात करें किसानों के लिए की गई लुभावनी घोषणाओं की तो किसानों को उनकी लागत का 150 फीसदी समर्थन मूल्य देने का वादा किया गया है, जो खरीफ  की फसल से लागू होगा। हालांकि पहली दृष्टि में यह कदम सरकार की किसान हितैषी सोच को इंगित करता है किन्तु तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि चूंकि यह खरीफ  फ सल से लागू होगा और इस साल की खरीफ  फ सल की खरीदारी हो चुकी है, इसलिए यह अब इस साल नवम्बर के आसपास लागू होगा और जैसी चर्चा है कि यदि समय से पहले अर्थात् अक्तूबर-नवम्बर के आसपास सरकार चुनाव का फैसला लेती है तो यह वादा पूरा करने की नौबत ही नहीं आएगी। दूसरी ओर पूर्व प्रधानमंत्री एवं जाने-माने अर्थशास्त्री डा. मनमोहन सिंह का कहना है कि इसका बजटीय प्रावधान कैसे होगा, यह विचारणीय है। इसी कड़ी का सबसे बड़ा और अहम पहलू यह है कि हमारे देश में 85 फीसदी से भी अधिक किसान बेहद छोटे किसान हैं, जो अपनी फ सलों को मंडियों तक ले जाने में ही सक्षम नहीं हैं और इनमें भी 50 फीसदी से अधिक ऐसे किसान हैं, जो वास्तव में किसान न होकर कृषि मजदूर के रूप में कार्यरत हैं, जिनका इस तरह की योजनाओं से कोई सरोकार ही नहीं है। इस दृष्टि से देखा जाए तो सरकार की इस योजना का लाभ सही मायनों में ‘समृद्ध’ किसानों के एक छोटे से तबके को ही मिलेगा। बजट में किसानों की आमदनी वर्ष 2022 तक दोगुनी करने और उनकी फ सल का उत्पादन बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है। देखा जाए तो इस सरकार के गठन के बाद से ही यह लक्ष्य बार-बार दोहराया जा रहा है लेकिन धरातल पर अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ, जिससे इस लक्ष्य की पूर्ति होती दिखे और न ही बजट में ऐसा कोई खुलासा किया गया है। पिछली सरकारों से लेकर मोदी सरकार के 4 साल के कार्यकाल के दौरान किसानों की हालत में कोई सुधार नहीं आया है। वो आज भी सालभर मौसम की मार से जूझते हुए टकटकी लगाए कातर नजरों से सरकारों की ओर मदद की आस में निहारते रहते हैं। आज भी किसान जगह-जगह आत्महत्या के लिए विवश हो रहे हैं। खाद-बीज की कालाबाजारी की चर्चाएं आम हैं। ‘नेशनल सैंपल सर्वे’ के अनुसार एक साधारण किसान की सालाना आमदनी महज 36000 रुपये है जबकि उस पर सालाना 47000 रुपये का कर्ज है। अब इन हालातों में सरकार ऐसे किसानों की आमदनी बढ़ाने और उनके हालात सुधारने के लिए कौन से उपाय करेगी, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। विभिन्न किसान संगठनों द्वारा किसान ऋण माफी की मांग की जाती रही है लेकिन इस पर सदैव खामोशी का लबादा ओढ़ लिया जाता है।जहां तक रोजगार की बात है तो सरकार अब तक इस मोर्चे पर पूरी तरह से असफल दिखी है। बजट में रोजगार के अधिक से अधिक अवसर प्रदान करने पर बल दिया गया है। 70 लाख नए रोज़गार पैदा करने के साथ-साथ हर ज़िले में स्किल सेंटर खोलकर 50 लाख लोगों को रोजगार संबंधी प्रशिक्षण देकर रोजगार योग्य बनाने की बात कही गई है किन्तु विडम्बना यह है कि हमारे यहां सरकारें इस तरह के वादे करके बड़ी आसानी से भूल भी जाती हैं। 
स्मरण रहे कि 4 साल पहले स्वयं प्रधानमंत्री ने प्रतिवर्ष एक करोड़ युवाओं को रोजगार उपलब्ध कराने का वादा किया था किन्तु उस वादे का क्या हुआ, सब भली-भांति जानते हैं। एक तरफ  70 लाख नए रोज़गार पैदा करने की बात कही जा रही है, वहीं हाल ही में सरकारी विभागों में पिछले पांच साल से खाली पड़े लाखों पदों को समाप्त करने की बात सरकार द्वारा ही कही गई है। देश के सबसे बड़े रोज़गार प्रदाता ‘भारतीय रेल’ के पास लंबे अरसे से 2 लाख से अधिक पद रिक्त पड़े हैं, किन्तु उन्हें नहीं भरा जा रहा है। ऐसे हालातों में सरकार कैसे रोज़गार के अधिक से अधिक अवसर प्रदान करने के लक्ष्य को हासिल कर पाएगी, यह आने वाला समय ही बतायेगा। बहरहाल, दिनों-दिन बढ़ती महंगाई और भ्रष्टाचार पर लगाम कसने के साथ-साथ सही मायनों में कृषि, कृषक, स्वास्थ्य, शिक्षा और देश के बुनियादी ढ़ांचे की सूरत बदलना सरकार के लिए सबसे बड़ी 
चुनौती होगी।
मो. 9416740584, 9034304041.