उत्तर-पूर्वी राज्यों में चुनाव : ऊंट किस करवट बैठेगा ?

उत्तर पूर्व के तीन राज्यों- त्रिपुरा, नगालैंड व मेघालय- में इसी फ रवरी के मध्य में विधान सभा चुनाव होने जा रहे हैं। इन तीनों ही राज्यों में राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की प्रकृति विविध है, इसलिए यह कहना कठिन होगा कि मतदान की सम्पूर्ण दिशा किस प्रकार की रहेगी। हालांकि अनेक क्षेत्रीय पार्टियों के साथ कांग्रेस व भाजपा भी चुनावी दंगल में उतरी हुई हैं, लेकिन फोकस  भाजपा पर ही रहेगा। ऐसा अकारण नहीं। मिजोरम व गोआ के विधानसभा चुनावों में भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में भी नहीं उभरी थी, लेकिन केंद्र में अपनी सत्ता, जिसके कहने पर अक्सर राज्यपाल निर्णय लेते हैं, के बल पर वह इन दोनों ही राज्यों में जोड़-तोड़ से सरकार बनाने में सफ ल हो गई। अब इन तीनों राज्यों में भी त्रिशंकु विधानसभाएं आने की प्रबल संभावनाएं हैं, इसलिए भाजपा की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। अकेले अपने दम पर इन तीनों राज्यों में से किसी में भी भाजपा सरकार में आने की स्थिति में नहीं है, लेकिन वह अपनी उपस्थिति को बड़े पैमाने पर दर्ज करने के प्रयास में है, इसलिए छोटी-छोटी क्षेत्रीय पार्टियों से गठबंधन कर रही है और इस सम्भावना को भी तलाश रही है कि नतीजों के बाद कौन उसका संभावित साथी हो सकता है। यह तो स्पष्ट है कि उत्तर पूर्व राज्यों में भाजपा अपनी मौजूदगी का एहसास कराना चाहती है, यह इसलिए नहीं है कि भविष्य में लोकसभा में उसकी गिनती में इजाफ ा हो जायेगा क्योंकि इन राज्यों से कुल मिलाकर केवल पांच ही लोग लोकसभा में सदस्य बनते हैं, बल्कि इसलिए है कि भाजपा यह सन्देश देना चाहती है कि उसकी पहुंच हिंदी पट्टी से बाहर भी है। हालांकि उत्तर पूर्व में भाजपा प्रभावी राजनीतिक बल नहीं है, लेकिन गठबंधन के जरिये वह विधानसभा चुनावों में कोई आश्चर्य उत्पन्न करने में सक्षम है। मेघालय में लगभग 75 प्रतिशत ईसाई हैं। भाजपा ने यहां नेशनल पीपल्स पार्टी के साथ गठबंधन किया है, इस उम्मीद में कि वह सशक्त बल के रूप में उभर सकेगी। त्रिपुरा में दशकों से वामपंथ की सरकार है और जाहिर है सत्तारूढ़ दल के खिलाफ  जो जनता की नाराजगी होती है, वह भी है। फि र त्रिपुरा में कांग्रेस ने पुन: मजबूत होने का कोई संकेत नहीं दिया है। इस पृष्ठभूमि में भाजपा वामपंथ को चुनौती देने के प्रयास में है और उसने छोटी क्षेत्रीय पार्टियों जैसे इंडिजेनस पीपल्स फ्रंट ऑफ  त्रिपुरा से गठजोड़ किया है। नगालैंड में स्थिति अनिश्चित है। 11 राजनीतिक पार्टियों, जिनमें सत्तारूढ़ नागा पीपल्स फ्रंट भी शामिल है, ने चुनाव बहिष्कार का आह्वान किया है, जब तक नागा समस्या का समाधान नहीं हो जाता। 
गौरतलब है कि अगस्त 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘नागा समझौते’ पर हस्ताक्षर करके इतिहास रचने का दावा किया था, लेकिन फ रवरी 2018 में भी मुद्दे का समाधान कहीं नहीं है। भाजपा को उम्मीद है कि सत्तारूढ़ दल को कमजोर करके वह इस राज्य में अपनी घुसपैठ बनाने में सफ ल हो जायेगी। नागा पीपल्स फ्रंट ने 2013 का विधानसभा चुनाव आसानी से जीत लिया था, उसे 47.1 प्रतिशत मत मिले और उसने 60 में से 38 सीटें अपने नाम कीं। लेकिन गुटबाजी की वजह से अब यह पार्टी कमजोर हो गई है। अब वह नगालैंड की असरदार पार्टी नहीं है और उसकी अंदरूनी लड़ाई से भाजपा फायदा उठाना चाहती है। पूर्व मुख्यमंत्री फिर इस पार्टी को छोड़कर नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी में शामिल हो गये हैं। भाजपा नगालैंड में अकेले चुनाव लड़ने की योजना बना रही है और उम्मीद कर रही है कि जो राज्य केवल केंद्र अनुदान पर निर्भर करता है, उसमें वह केंद्र में अपने सत्ता में होने का लाभ उठा लेगी। अगर भाजपा को बहुमत नहीं भी मिलता है, तो भी वह त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में गठबंधन सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगी। त्रिपुरा में भाजपा कभी मौजूद ही नहीं थी। लेकिन कांग्रेस विधायकों के उसमें शामिल होने से उसने अपनी उपस्थिति राज्य में मजबूत की है। कांग्रेस के 10 में से 8 विधायक भाजपा में शामिल हो गये हैं, इसलिए कांग्रेस को जो 2013 के चुनाव में 36.5 प्रतिशत मत मिले थे, वह अब प्रतीकात्मक ही प्रतीत हो रहे हैं। विधायकों के साथ कांग्रेस के समर्थक भी भाजपा की तरफ  खिसक गये हैं। फि लहाल यह अनुमान लगाना तो कठिन है कि इस समय भाजपा के पास कितना वोट शेयर है, लेकिन वह निश्चित रूप से 2 प्रतिशत से तो अधिक ही होगा जो उसे पिछले चुनाव में मिला था। 1993 से त्रिपुरा में वामपंथ ने लगातार प्रभावी जीत दर्ज की हैं, लेकिन सत्तारूढ़ दल से जनता को जो शिकायतें होती हैं उसके कारण वामपंथ के वोट शेयर में कमी आई है। बेरोजगारी महत्वपूर्ण मुद्दा है, जिसे भाजपा भुनाना चाहती है। भाजपा ने इंडिजेनस पीपल्स फ्रंट ऑफ  त्रिपुरा से गठजोड़ किया है, जिससे उसे आदिवासी मतदाताओं में घुसने का अवसर मिल सकता है, जो राज्य में एक तिहाई मतदाता हैं। मेघालय में राजनीतिक बिखराव है, इसलिए यह कहना कठिन है कि कौन-सी पार्टी सरकार बना सकती है। पिछले 18 वर्ष में इस राज्य में 8 सरकारें बनी हैं और बीच में कुछ समय के लिए राष्ट्रपति शासन भी रहा। राज्य में दल-बदल का इतिहास है। अब भी चुनाव से पहले विधायक इस पार्टी से उस पार्टी में गये हैं। कुछ दिन पहले कांग्रेस के पांच विधायक नेशनल पीपल्स पार्टी में शामिल हुए, जिसका भाजपा से गठबंधन है। इस समय ऐसा प्रतीत होता है कि इस राज्य में कांग्रेस, जो पिछले दो दशक से सबसे बड़ी पार्टी है, और कोनार्ड संगमा के नेतृत्व वाली नेशनल पीपल्स पार्टी के बीच सीधा मुकाबला होगा। कांग्रेस को आशा है कि उसके नेता मुकुल संगमा ने जो राज्य को राजनीतिक स्थिरता प्रदान की है, उससे उसे लाभ मिलेगा। लेकिन फि लहाल कोई भी भविष्यवाणी करना जल्दबाजी होगा।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर