स्व-रोज़गार के लिए उपयुक्त माहौल बनाया जाए

कांग्रेस भी अजीब पार्टी है। उसके नेताओं के मुख से अक्सर ऐसी बातें निकल जाती हैं जो सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में हो जाती हैं। जरा सोचिए अगर मणिशंकर अय्यर ने 2014 के चुनाव से पहले नरेन्द्र मोदी को कांग्रेस अधिवेशन में चाय का स्टॉल देने की पेशकश नहीं की होती तो क्या कांग्रेस के प्रति मतदाताओं का इतना मोह भंग होता? अय्यर की कड़ी में ही अब चिदम्बरम आगे आ गए। उन्होंने मोदी और अमित शाह के पकौड़े प्रेम को भुनाते हुए कह दिया कि अगर पकौड़े बेचना रोज़गार है तो भीख मांगना भी रोज़गार होना चाहिए। नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस के पक्ष में फि र से उल्टी गंगा बहने लगी। देश भर से पकौड़े बेचने वालों के ही नहीं बल्कि इस तरह के अन्य काम-धंधा करने वाले दुकानदार या व्यापारी इसे अपना अपमान समझकर प्रतिक्रिया देने लगे। अपनी तुलना एक भिखारी से करना किसे गंवारा हो सकता था। असल में हमारे देश में दो तरह के लोग बसते हैं। एक तो वो जो सोने-चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए हैं और दूसरे वो जो साधारण परिवार में जन्मे हैं, जिन्हें गरीब कहा जाता है। अक्सर यही लोग अपनी मेहनत और दूर-दृष्टि के बल पर पहली श्रेणी वालों से आगे निकलने में कामयाब हो जाते हैं। उदाहरण के लिए हल्दी राम ब्रांड के हल्दी राम एक बहुत ही साधारण परिवार में जन्मे थे। भुजिया बनाने का पुश्तैनी काम था जिसे पुड़िया में भरकर लोगों के घर तक पहुंचाते थे। परिवार के सभी सदस्य इसमें लगे थे। आज हजारों लोगों को इसमें रोजगार मिल रहा है। मसाला बेचने वाले एमडीएच के महाशय जी भी ब्रांड बन चुके हैं। अपने बाबा रामदेव को ही देख लीजिए। उनके पास ही कौन सी पैतृक धन-दौलत थी लेकिन आज पतंजलि ने दुनिया भर के नामी-गिरामी ब्रांडों की नाक में दम कर रखा है। हम यह बात भूल जाते हैं कि भारत में खेती बाड़ी को सबसे उत्तम कहा गया है। हम अपने आप को कृषि प्रधान देश भी मानते हैं। इसके बाद अपना व्यवसाय या रोज़गार का महत्व है। नौकरी को अधर्म माना गया है और भीख मांगना तो वर्जित ही है। इतिहास क्या कहता है तथ्य है कि अंग्रेजों को जब भारत के ज्यादातर लोग व्यवसाय करते दिखे और उन्हें अपनी सेवा या नौकरी करने के लिए लोग नहीं मिले तो लॉर्ड मैकाले ने ऐसी बदनाम शिक्षा चलाई कि लोग नौकरी को प्रमुखता देने लगे और वही काबलियत का पैमाना बन गया। तब से आज तक नौकरी का ही बोलबाला है। नौकरी भी कौन सी, सरकारी। किसी सरकारी विभाग में चपरासी या क्लर्क की भी नौकरी परिवार की सुख समृद्धि से लेकर शादी विवाह तक में अपनी धाक जमा देती है। सरकारी नौकरी होने से विवाह प्रस्तावों की कोई कमी नहीं रहती। चाहे अपना काम-धंधा करने वाला उससे कई गुना कमाता हो, शादी के बाज़ार में सरकारी नौकरी करने वालों को ही प्राथमिकता दी जाती है। राहुल गांधी भी मोदी जी की आलोचना सिर्फ  इसलिए करते हैं कि चुनाव के समय जो उन्होंने नौकरी देने का वादा किया था वह पूरा नहीं किया। जरा सोचिए, नौकरी करना क्या इतना जरूरी है कि चाय-पकौड़ा बेचने वाला या ऐसा ही कोई काम करने वाला हमारे पूर्व वित्त मंत्री को भीख मांगना नजर आता है। अपना काम करने को न तो छोटा समझना चाहिए और न ही शर्म करनी चाहिए। सामन्ती मानसिकता, विलासिता का जीवन जीने वाले इसका महत्व क्या समझेंगे? नौकरी का विकल्प भारत की अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा हाथ उन लोगों का है जो गली, मुहल्ले, बाज़ार, हाट, फेरी लगाकर सामान बेचने वाले हैं। साप्ताहिक बाज़ार या हाट किस दिन लगेगा इसका इंतजार सभी को रहता है क्योंकि वहां घरेलु उपयोग की चीजें बहुत सस्ते दाम पर मिल जाती हैं। एक और हकीकत समझनी ज़रूरी है। जो दुकानदार होता है वो अपने यहां काम करने के लिए दो-चार सहायक भी रखता है। यह सहायक दुकानदारी के गुर सीखने के बाद कुछ समय में अपना काम करने के काबिल हो जाते हैं और वह सीधे अपनी दुकान खोल लेते हैं। जरा गौर करिए, जिससे उसने दुकानदारी की कला सीखी वह इस बात का बुरा नहीं मानता कि उसके यहां काम करने वाला नौकर उसका प्रतिद्वन्दी बन गया है बल्कि ज़रूरत पड़ने पर व्यापार जमाने में उसकी मदद भी करता है। वह जानता है कि उसकी चलती दुकान में से तो कोई न कोई काम करने वाला या सीखने वाला मिल ही जाएगा। उसे गर्व होता है कि उससे यहां काम करने वाला भी एक कारोबारी बन चुका है। अब इसकी तुलना उससे करिए जो दफ्तर में परमानेंट नौकरी करता है। उस व्यक्ति को हमेशा डर लगा रहता है कि  यदि उसकी नौकरी चली गई तो उसका और उसके परिवार का क्या होगा? असल में अंग्रेजों से लेकर हमारी सरकारों खासकर कांग्रेस सरकार ने नौकरी का लालच देकर हमारे युवाओं की सोच को ही कुंठित कर दिया है। वह यह सोचते रहते हैं कि नौकरी नहीं रही तो क्या होगा, जबकि दुकानदार कभी नहीं सोचता कि यदि उसका माल नहीं बिका तो क्या होगा ? वह उसे कम दाम में बेच कर अपनी दुकान में कोई अन्य चीज बेचने लगता है। हमारे पिछड़ने का कारण  हमारे देश के साथ आज़ाद हुए या द्वितीय विश्व युद्ध में बर्बाद हुए देश आज हमसे इसलिए आगे हैं क्योंकि उन्होंने स्वरोज़गार को महत्व दिया। चीन, जापान को ले लीजिए। वहां के लोग नौकरी के लिए बाहर जाना तो दूर अपने ही देश में नौकरी करने को नहीं बल्कि छोटे-छोटे रोज़गार खोलने को प्राथमिकता देते हैं। आज उनके उत्पाद पूरे विश्व में छाए हुए हैं और दुनिया भर में टेक्नोलॉजी से लेकर सभी चीजें मुहैया करा रहे हैं। मतलब यह है कि नौकरी इतनी ज़रूरी नहीं है कि उस पर इतना जोर दिया जाए बल्कि इस बात पर बल देना चाहिए कि लोगों को स्वरोजगार की आदत पड़े। अब जरा ये देखिए कि जो लोग भारत से बाहर नौकरी करने के लिए जाते हैं वो इसलिए क्योंकि वहां अच्छी तनख्वाह मिलती है, सुख सुविधाएं ज्यादा होती हैं। हमारे देश के युवा वैज्ञानिक और प्रतिभाशाली लोग ज्यादा पैसों के लालच में अमरीका और यूरोप जैसे देशों में नौकरी करने चले जाते हैं। अब जरा उन्हें नौकरी देने वाले देशों के बारे में सोचिए। क्या उनके यहां नौकरी करने वाले लोग नहीं हैं? हकीकत यह है कि वहां के लोग नौकरी नहीं करना चाहते क्योंकि नौकरी से ज्यादा वह इस बात को समझते हैं कि अगर स्वरोजगार करेंगे तो ज्यादा फायदा होगा। नौकरी के लिए तो वह हमारे जैसे देशों से लोगों को उधार ले ही लेते हैं।यदि भारत से पलायन करने वाले प्रतिभाशाली लोगों को रोकना है तो उन्हें रोज़गार देना होगा और जो लोग पलायन कर चुके हैं उन्हें यदि वापस बुलाना है तो उनके लिए स्वरोज़गार की व्यवस्था करनी होगी। हालांकि इसके लिए स्किल इंडिया या मेक इन इंडिया योजनाएं चलाई गईं लेकिन इनका क्रियान्वयन इतना खराब रहा है कि लोगों का इनसे मोह भंग होने लगा है। सरकार की जितनी भी घोषणाएं हैं, अमल करने का वक्त आते ही दम तोड़ देती हैं। हकीकत यह है कि आज भी बैंक में युवाओं को स्वरोज़गार के लिए ऋ ण मिलना किसी पहाड़ पर चढ़ने से कम नहीं है। बैंक कहता है कि सरकार तो योजनाएं बनाती ही रहती हैं, हम तो आपको ऋ ण तभी देंगे जब आप जमीन-जायजाद, ज़मानत या कोई चीज गिरवी रखेंगे। अगर देश में स्वरोज़गार को बढ़ावा देना है तो नियमों को बदलना ही होगा, जागरूकता फैलानी होगी और यह बताना होगा कि स्वरोज़गार के लिए कौन से कदम उठाने जरूरी हैं, उसके लिए क्या क्या मशीनरी चाहिए और कितना धन चाहिए। इन संसाधनों को मुहैया कराना सरकार और बैंकों की जिम्मेदारी होनी चाहिए। जब तक यह नहीं होगा सरकार ढपोरसंख की तरह अपनी तुनतुनी बजाती रहेगी, और देश में बेरोज़गारी बढ़ती जाएगी। क्योंकि केवल नौकरी देकर इस समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता।