चीन की चालबाज़ियां हमेशा से भारत के लिए चुनौतियां बनी रहीं

चीन इन दिनों भारत को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा। जल, थल और आकाश तीनों ओर से भारत को परेशान करने के इरादे बना रहा है। मालदीव जो कभी भारत के संरक्षण में था, उसमें भी खट्टास पैदा करने में लगा है। इससे पूर्व श्रीलंका, नेपाल और बांग्लादेश में भी चीन कुछ ऐसे ही कुकृत्य करने का प्रयास करता रहा जिससे भारत को नीचा दिखाया जा सके। चीन के महान नेता माउत्से तुंग ने एक बार कहा था कि वे स्थायी क्रांति के सिद्धांत के पक्षधर थे। यह ट्रॉट्स्की वाला स्थायी क्रांति का सिद्धांत नहीं है। वे कहते थे कि क्रांति में प्रहार उसी समय करना चाहिए जब लोहा गर्म हो-एक क्रांति के बाद दूसरी होनी चाहिए, क्रांति लगातार हमेशा आगे बढ़ती रहनी चाहिए। शायद माओ के कथनानुसार चीन की विस्तारवादी नीति के रूप में वह क्रांति पग-पग आगे बढ़ने में विश्वास रखती है। आज चीन के अपने सभी पड़ोसियों से सीमा विवाद है, परन्तु भारत से उसकी नीति और नीयत बहुत शातिर चालों पर आधारित है। पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर से बलोचिस्तान तक उसने एक रास्ता बना लिया है और पाकिस्तान को हर उस कदम पर समर्थन देता रहता है जो भारत के खिलाफ पाकिस्तान उठाता है। भारत की मजबूरी समझिये कि उसे चीन की चालबाज़ियों की जानकारी होते हुए भी कोई कठोर पग उठाने से परहेज़ करना पड़ रहा है। सन् 1962 में मैकमोहन लाइन जो भारत और चीन के मध्य अंग्रेज़ी शासन के समय सीमा निर्धारित की गई थी, उसे नज़रअंदाज़ करके उसने भारत पर आक्रमण कर दिया और भारत की हज़ारों किलोमीटर धरती अपने कब्ज़े में कर ली। चीन की आज़ादी सन् 1949 में प्राप्त हुई और सन् 1950 में उसने तिब्बत पर अपना अधिकार जमा लिया। तिब्बत जिसे ‘बफर’ स्टेट होने का दर्जा प्राप्त था वह चीन के अधीन चला गया और उसके शासक दलाईलामा अपने हज़ारों अनुयायियों के साथ भारत में आ बसे। यहां आकर दलाईलामा ने तिब्बत की निर्वासित सरकार गठित कर ली। भारत के विरुद्ध चीन के जाने का यह भी एक कारण बना। चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई ने भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू पर अपनी मित्रता का ऐसा प्रभाव डाला कि शान्त युद्ध जिसे साधारणत: ‘कोल्ड वार’ कहा जाता है जो रूस और अमरीका के मध्य दिन-प्रतिदिन तीखी होती जा रही थी। उस समय पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा पंचशील की रचना  करवा कर निर्गुट देशों का एक समूह खड़ा कर लिया, जिसमें माशल टीटो, कर्नल नासिर, निकरोमा जैसे नेता महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। पंडित जी इस बात पर खुश थे कि वह तीसरी दुनिया के सर्वमान्य नेता बनते जा रहे थे। परन्तु चीन ने अक्तूबर सन् 1962 में भारत पर जो आक्रमण किया, उससे पंचशील के सारे बखिये उखड़ गए और निर्गुट संस्था भी बिखर गई। सन् 1964 में पंडित जी शारीरिक रूप से संसार से विदा ले गए। उसके बाद भारत और चीन एक दूसरे से कोई संबंध नहीं रख रहे थे। सन् 1966 में लेह-लद्दाख के समीप भारत चीन-बार्डर पर हथियारबंद संघर्ष हुआ, जिसमें दोनों तरफ के कई सैनिक वीर-गति को प्राप्त हुए परन्तु उसके पश्चात् एक अघोषित निर्णय हुआ कि सीमा पर जब तक विवाद है, तब तक हथियार का न तो प्रदर्शन किया जायेगा और न ही कोई गोली-सिक्के का प्रयोग होगा जो आज तक लागू है। पिछले दिनों डोकलाम नामक स्थान पर जो सड़क निर्माण चीन करना चाहता था और भारत ने उसे भूटान के लिए खतरा समझा और उसे रोक दिया गया। परन्तु इससे भी चीन अपनी चालबाज़ियों से भला पीछे हटने वाला कैसे था। उसने डोकलाम से थोड़ी दूरी पर हैलीपैडों का निर्माण करा लिया। कुछ सड़कों को भी इस काबिल बनाया, जिस पर जंगी जहाज़ उड़ान भर सके या उतर सकें। तिब्बत में भी उसने हवाई पट्टी बना ली, जिससे बमबार जहाज़ों का उड़ना और उतरना सुगम हो जाए। चीन कोई ऐसा काम नहीं छोड़ना चाहता, जिससे भारत अपनी अर्थव्यवस्था पर पूर्ण ध्यान दे सके। एक तरफ चीन उत्तरी कोरिया को समर्थन दे रहा है और दूसरी तरफ जापान को परेशानी में डालने के लिए एक-आध शरारत करता ही रहता है। रूस और अमरीका से अधिक सुपर पावर बनने की लालसा पाले चीन भारत को पाकिस्तान के साथ उलझाए रखने में अपनी विदेश नीति की सफलता मानता है। सन् 2003 में बीजिंग स्थित चाइनीज़ अकैडमी ऑफ सोशल साइंसिज़ में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार चीन में उपभोग और निवेश के उफान से दुनिया में किसी भी दूसरे देश के मुकाबले अधिक नए करोड़पति उभर रहे हैं और देश में ऐसे लोगों की तादाद, 1,00000 से अधिक हो गई है, जिनकी हैसियत 10 लाख डालर से अधिक है। यह तब की बात है जब भारत भी चीन के लिए कोई बहुत बड़ा बाज़ार नहीं था। अब चीन के लिए भारत के अतिरिक्त कई यूरोपीय देश चीन के माल के खरीदार बन चुके हैं। इसलिए अब चीन में अरबपतियों की संख्या बहुत बढ़ गई है। चीन में आर्थिक सुधारों में जबरदस्त विकास हुआ है और गरीबी में भी कमी आई है, लेकिन इससे देश में जबरदस्त असमानता पैदा हो गई है। वर्गों का संघर्ष भी संभव है, क्योंकि आर्थिक सुधारों का सबसे अधिक लाभ शहरी कुलीन वर्ग को हो रहा है। अब चीन में तथाकथित कामरेड कहे जाते लोग दोनों हाथों से धन-बटोर रहे हैं। यहां तक कि पीपल्स लिबरेशन आर्मी भी कारोबार की बहती गंगा में हाथ धो रही है। वह ज़माना बहुत पीछे छूट गया जब तिनमिन चौक में चीन के छात्रों ने लोकतंत्र के लिए संघर्ष किया था, जिसमें उनके नसीब में भयानक मौत प्राप्त हुई।भारत ने चीन के साथ अच्छे संबंधों को बनाए रखने के लिए कई प्रयास किए। सन् 1978 में अटल बिहारी वाजपेयी जब देश के विदेश मंत्री थे तब उन्होंने चीन की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया। उसके बाद जब अटल जी प्रधानमंत्री बने तब सन् 1998 में उन्होंने एक राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर चीन की यात्रा की और चीन ने भारत से जो सहमति व्यक्त की, उसके अनुसार भारत और चीन के रिश्तों में बहुमुखी विकास के रास्ते में इतिहास की ग्रंथियों का रोड़ा नहीं बनने देना और न ही एक-दूसरे को शक की नज़र से देखना। इसके पश्चात् स्वर्गीय राजीव गांधी ने भी चीन के प्रति भारत की मित्रता दर्शाने के लिए चीन की यात्रा की परन्तु चीन भारत के साथ अपने संबंधों के प्रति कभी भी ईमानदार नहीं रहा और भारत को हमेशा चीन से मित्रता पर मलाल ही प्राप्त हुआ, क्योंकि चीन ने हमेशा यही नीति बनाए रखी कि शेख जी भी खुश रहे, राजी रहे शैतान भी।