संघ पर हावी हो गई है भाजपा 

सात साल बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की उम्र सौ साल की हो जाएगी। अगर भारत की राजनीति मौजूदा दिशा में ही आगे बढ़ती रही (अर्थात् अगर ़गैर-भाजपा ताकतों ने किसी बड़े और भरोसेमंद चुनावी गठजोड़ का शीराजा न खड़ा किया) तो शायद उस समय यह संगठन अपनी सफलता के शिखर पर होगा। विभिन्न हिंदू समुदायों के बीच हिंदुत्व की बहुसंख्यकवादी विचारधारा के आधार पर राजनीतिक एकता कायम करने की परियोजना उस समय तक कम से कम उत्तर भारत में सफल हो चुकी होगी। दक्षिण भारत को हिंदुत्व के झंडे तले आने में अभी थोड़ा और समय लगेगा, लेकिन उत्तर भारत के दम पर हिंदुत्व की राजनीतिक भुजा भारतीय जनता पार्टी मुल्क पर हुकूमत करती रह सकती है। लेकिन, प्रश्न यह है कि संघ की उस सफलता की क्वालिटी क्या होगी? क्या अपने सौवें वर्ष का संघ वही संघ होगा जिसकी स्थापना 1925 में डॉ. हेडगेवार ने की थी? क्या यह वही संघ होगा जो अपने परिवार के विभिन्न संगठनों को पूरी तरह नियंत्रित करता था? या स्थिति कुछ बदल चुकी होगी?  अगर राजनीति-शास्त्र के विद्यार्थियों से सामान्य-ज्ञान का यह सवाल पूछा जाए कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारतीय जनता पार्टी और उसकी सरकार को नियंत्रित करता है, या भाजपा की सरकार संघ को नियंत्रित करती है- तो जवाब क्या होगा? दिलचस्प बात यह है कि इस सवाल के एक नहीं, दो जवाब हो सकते हैं। चार साल पहले यानी नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने से पहले के संदर्भ में अगर इसे पूछा जाता तो उत्तर होता कि निर्विवाद रूप से संघ के हाथ में भाजपा की कमान रहती है। लेकिन मोदी के उदय के बाद की स्थितियों में यह जवाब पूरी तरह से पलट जाएगा। आज के हालात में यह बेहिचक कहा जा सकता है कि कभी संघ भाजपा को चलाता था, पर अब भाजपा की सरकार तय करती है कि संघ को उसके बारे में क्या फैसला लेना चाहिए। संघ, भाजपा और सरकार के बीच के रिश्ते की इस बदली हुई संरचना का सबसे ताज़ा और मुखर सबूत यह है कि संघ परिवार के भीतर विश्व हिंदू परिषद्, भारतीय मज़दूर संघ और स्वदेशी जागरण मंच जैसे संगठनों के उन नेताओं को हटाने की तैयारी चल रही है जो मोदी, भाजपा और केंद्र सरकार के साथ लगातार टकराव की मुद्रा अपनाने के लिए जाने जाते हैं। इनमें विहिप के प्रवीण तोगड़िया और राघव रेड्डी के साथ-साथ भामसं के बृजेश उपाध्याय के नाम प्रमुख हैं। संघ की अगली प्रतिनिधि सभा की बैठक से पहले अगर इन लोगों ने अपने आप इस्तीफा नहीं दिया तो इन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा। हटाए जाने वालों में ऐसे नेता भी हैं जिनकी नरेंद्र मोदी से पुरानी अदावत मानी जाती है। मसलन, तोगड़िया ने 2002 के विधानसभा चुनाव में एक हैलिकॉप्टर के ज़रिये दौरा करते हुए सौ जनसभाएं करके मोदी को मुख्यमंत्री बनाने में प्रमुख भूमिका निभाई थी, पर शपथ लेते ही नये मुख्यमंत्री ने सबसे पहले तोगड़िया का ही सरकारी हलकों में प्रवेश वर्जित कर दिया था। उसके बाद से न केवल विहिप और तोगड़िया बल्कि पूरा का पूरा संघ परिवार गुजरात की भाजपा सरकार में हस्तक्षेप करने की हैसियत खो बैठा था। मोदी का बारह साल लम्बा शासन हिंदुत्ववादी तो था, पर ‘संघ मुक्त’ भी था। प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी भी मोदी ने संघ की मज़र्ी के ़िखल़ाफ जा कर हासिल की, क्योंकि संघ प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किये बिना चुनाव लड़ने के पक्ष में था। चर्चा है कि जब 2014 का असाधारण चुनाव जीत लिया गया और संघ की तऱफ से जब यह प्रस्ताव रखा गया कि सरकार और संघ के बीच समन्वय होना चाहिए तो मोदी का जवाब था कि सरकार के साथ संघ का कोई समन्वय नहीं होगा, बल्कि होगा तो पार्टी के साथ होगा। यानी संघ सीधे हस्तक्षेप करने के बजाय भाजपा के ज़रिये सरकार तक अपने अनुरोध पहुंचा सकता है। यह स्थिति नब्बे के दशक की उस स्थिति से पूरी तरह अलग है जब संघ ने दबाव डाल कर लालकृष्ण अडवानी को उप-प्रधानमंत्री बनवा कर ‘टायर्ड और रिटायर्ड’ होने से इन्कार करने के बावजूद अटल बिहारी वाजपेयी की सत्ता के पर कतर दिये थे।  हिंदुत्व की राजनीति में संघ के घटते हुए वर्चस्व और भाजपा व सरकार के बढ़ते हुए प्रभुत्व का एक बड़ा नमूना पिछले दिनों गोवा की राजनीति में देखा गया था, जब कोंकण प्रदेश के संघ-मुखिया सुभाष वेलिंगकर की अंग्रेज़ी बनाम कोंकणी भाषा के प्रश्न पर मनोहर पार्रिकर से टक्कर हो गई थी। उस समय संघ के मुख्यालय ने अपने सबसे वरिष्ठ पदाधिकारी का साथ न दे कर परिक्कर का ही साथ देना पसंद किया था (यह अलग बात है कि किसी ज़माने में वेलिंगकर ही पार्रिकर के गुरु थे)। ज़ाहिर है कि तोगड़िया की भांति यहां मसला जाती नहीं था। वेलिंगकर तो संघ की स्थापित भाषा नीति ही गोवा की भाजपा से मनवाना चाहते थे। इस प्रकरण का नतीजा संघ परिवार के इतिहास में पहली ब़गावत के रूप में निकला और नतीजे के तौर पर भाजपा इस प्रदेश में सीटें जीतने के मामले में कांग्रेस से पिछड़ गई। 
इसी तरीके से भारतीय मज़दूर संघ, भारतीय किसान संघ और स्वदेशी जागरण द्वारा की जाने वाली केंद्र सरकार की आलोचनाएं भी नीतिगत हैं, न कि व्यक्तिगत। संघ इन आलोचक नेताओं को इसलिए दंडित करना चाहता है कि वे मोदी सरकार के कामकाज में रोड़े अटका रहे हैं। मतलब स़ाफ है कि आज की ताऱीख में संघ भाजपा सरकार के आंतरिक आलोचक की भूमिका निभाने की स्थिति में नहीं रह गया है। नीति-निर्देशन के मामले में आज वह भाजपा का मोहताज है, न कि भाजपा उसकी। मोदी सरकार बनने के कुछ दिन बाद ही संघ के नेतृत्व ने एक आंतरिक हिदायत जारी करके अपने सभी संगठनों से कह दिया था कि वे कम से कम एक साल के लिए अपना मुंह बंद रखें। उस वक्त इसका मतलब यह निकाला गया था कि मोदी के कामकाज पर एक साल तक निगाह रखने के बाद संघ अपने इस फैसले की पुन: समीक्षा करेगा। लेकिन तीन साल गुज़र चुके हैं, पर घड़ी कभी नहीं आई। संघ के सभी संगठन मोटे तौर पर आज तक चुपचाप ही बने हुए हैं। जब उन्हें किसी बात (जैसे भूमि अधिग्रहण कानून, विमुद्रीकरण, जीएसटी, विदेशी पूंजी का बढ़ता हुआ प्रभाव और शिक्षा से संबंधित मसले आदि) पर आपत्ति होती है, तो पार्टी और सरकार के पास वह बात पहुंचाई जाती है। सरकार का मन होता है तो वह किसी सुझाव का कोई एक हिस्सा मान लेती है, वरना सुझाव ठुकरा दिये जाते हैं। इसका मतलब यह कतई नहीं निकाला जाना चाहिए कि मोदी की सरकार कुछ कम हिंदुत्ववादी या कम बहुसंख्यकवादी है। न ही इसका मतलब यह है कि केंद्र की सरकार के वरिष्ठ मंत्रीगण काली टोपी लगा कर और पेटी बांध कर संघ के कार्यक्रमों में जाने से परहेज करेंगे। बस फर्क इतना पड़ गया है कि संघ स्वदेशी जागरण मंच को जब चाहे भंग कर सकता है, पर भाजपा को नहीं। एक बार भारतीय जनसंघ के बारे में गुरु गोलवलकर ने कहा था कि जनसंघ तो गाजर की पुंगी है, जब तक बजेगी तो बजाएंगे, और जब नहीं बजेगी तो उसे खा जाएंगे। आज मोहन भागवत का संघ ऐसा वक्तव्य देने की कल्पना भी नहीं कर सकता। भाजपा का राष्ट्रीय प्रचार-प्रसार इतना अधिक हो चुका है कि संघ अपने प्रचार-प्रसार के लिए उस पर निर्भर हो गया है। भाजपा संघ के नियंत्रण से आज़ाद हो चुकी है, और वह संघ परिवार के भीतर की राजनीति में अपने खिल़ाफ खड़े तत्वों को पदच्युत करवा सकती है। कभी अटल बिहारी वाजपेयी ने नाराज़ हो कर गोविंदाचार्य के साथ अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके ऐसा ही सुलूक करवाया था, पर वह अपवाद था। मोदी के ज़माने में वह अपवाद अब नियम बन गया है।