पुरुष क्यों न स्त्री-सम्मान के लिए आगे आएं !

आंकड़ों के अनुसार पांच साल तक के बच्चों में कुपोषण 34 प्रतिशत के भयावह स्तर पर बना हुआ है और पचास प्रतिशत स्त्रियां अल्पपोषित हैं। गालिबन एक साल पहले महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी का एक बयान उस समय तीखी आलोचना का केन्द्र बना जब उन्होंने भारत को उन चार देशों में रखा, जहां सबसे कम दुष्कर्म होते हैं। उनका बयान उनके दृष्टिकोण से सही हो सकता है कि प्रति एक लाख जनसंख्या पर होने वाले दुष्कर्म कांडों की बात करें तो भारत में इसकी दर 2.6 है। जबकि 29 मुल्क ऐसे हैं जहां यह दर इससे भी कम है।
आंकड़ों के खेल से बाहर आकर सोचें तो मानवता की पुकार का अर्थ यही है कि एक भी दुष्कर्म का मामला पूरे मुल्क में नहीं होना चाहिए। दुष्कर्म का सीधा मतलब पशुता है। सांस्कृतिक मूल्यों वाला यह देश किसी भी पशुता को क्यों वहन करे?यदि आंकड़ों पर ही लौटना अर्थगर्भित है तो 95.5 प्रतिशत इस बीच दुष्कर्म से पीड़ित महिलाएं दुष्कर्मियों से परिचित पाई  गईं। क्योंकि वे अपने ही संबंधी, परिचित, दोस्त, रिश्तेदार होते हैं जो विश्वास की हत्या कर धार्मिक, सामाजिक हालात को अंध स्वार्थ में बदल कर या तो अनुकूलित करते हैं या किसी लोभ, आतंक का शैल्टर लेकर हिंसात्मक क्रूरता का पालन करते हैं। घरों में जब स्त्रियां इस बात की सावधानी बरत रही होती हैं कि घर के भीतर का क्लेश बाहर गली की बात न बन जाए, पुरुष अपनी ऊंची आवाज़ से स्त्री की आवाज़ को दबा कर हावी होना चाहता है। दोनों उत्पीड़न की बात पर पीड़ित स्त्री का उपहास, संदेह अथवा निंदनीय दृष्टि से आहत करना पितृसत्तात्मक समाज का एक हिस्सा है। पितृसत्ता अदृश्य होकर भी अपना साम्राज्य चलाती है और आलोचना के अवसर को मिटाती चली जाती है। 18वीं सदी में रुसो असमानता पर काफी चिंतित थे। उन्होंने लिखा कि लोहे और अनाज के अन्वेषण ने ‘मनुष्य को सभ्य बना दिया और मनवता का विनाश कर दिया।’ इस बात में तर्क यह था कि लोग ज़रूरत से ज्यादा पैदा करने लगे। उनमें अतिरिक्त उत्पाद पर अधिकार की होड़ मच गई। वे अपने वर्तमान के लिए ही चीज़ें नहीं चाहते थे बल्कि रखने के लिए भी। अब उन्हें ज़रूरत की नहीं अज्ञात भविष्य के लिए चीज़ों की ज़रूरत थी। रूसो यहां सारा दोष उस व्यक्ति को देते हैं जिसने निजी सम्पत्ति का इज़ाद किया। परिणाम स्वरूप समाज में असमानता का प्रसार हुआ।
स्त्री पर दबाव, मानसिक या शारीरिक दुष्कर्म के पूरे आंकड़े उपलब्ध नहीं हो सकते क्योंकि लोक लाज जुबान पर ताला लगाये रखने का काम करती है। हमारे समाज में विवाह पूर्व  स्त्री का यौन संबंध पूरी तरह से वर्जित और भयानक अपराध माना जाता है। लड़की को विवाह  तक अपने कौमार्य की हर हालत में सुरक्षा अनिवार्य समझी जाती है। विवाह के दिन पुरुष इस नैतिक सुरक्षा को एक गारंटी बना कर मान कर चलते हैं। ऐसे में उससे कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वह अपनी घुटन, अपने अंधकार, अपनी निराशा, अपने अपमान को शब्द रूप में व्यक्त कर अपराधी को सज़ा दिलाने के लिए कानून की शरण ले। अनेक मामलों में अभिभावक भी बात पता चलने पर उसे दबाने की चेष्टा ही करते हैं ताकि दुर्घटना की हवा तक बाहर न आए। पुरुष समाज के लिए यह बर्बरता शर्मिन्दगी, उपहास या पश्चाताप का कारण नहीं बनता क्योंकि स्त्री के प्रति संवेदना, आदर भाव, मानवता का पहले ही हनन हो चुका होता है।