अंतर्राष्ट्रीय तैराक धर्मेन्द्र अहीरवार

धर्मेन्द्र अभी दो वर्ष के ही थे कि तेज बुखार हुआ, चाहे डाक्टर की लापरवाही कहें या धर्मेन्द्र की बुरी किस्मत, बुखार का टीका क्या लगाया, धर्मेन्द्र का पूरा शरीर ही सुन्न हो गया। परिणामस्वरूप उनका सारा शरीर ही ठंडा पड़ गया और ठंडे पड़े शरीर के बाद धर्मेन्द्र हमेशा के लिए दोनों पैरों और एक हाथ से विकलांग हो गया। घर में दुख की लहर दौड़ पड़ी लेकिन हालात ही ऐसे थे कि कुछ नहीं किया जा सकता था। धर्मेन्द्र माता-पिता का बहुत ही लाडला था। अपने बच्चे के ठीक हो जाने की बहुत कोशिशें कीं लेकिन सभी कोशिशें नाकाम साबित हुईं और अब धर्मेन्द्र सदा के लिए विकलांग की ज़िन्दगी जीने के लिए मजबूर था। बचपन में कदम रखा तो स्कूल पढ़ने के लिए डाला। कभी मां, कभी पिता उनको गोद में लेकर स्कूल छोड़ने जाते। वहां धर्मेन्द्र को उस समय एहसास हुआ कि वह विकलांग है, जब उसके साथी छात्र उसको विकलांग होने के ताने देते और धर्मेन्द्र के लिए हालात ऐसे बन जाते कि उनका स्कूल छोड़ने को मन करने लगता और घर आकर रोता रहता तो माता-पिता से विकलांग बेटे का यह दर्द देखा नहीं जाता था।आखिर में उनके माता-पिता ने उनको विकलांग स्कूल में दाखिल करवा दिया, जहां धर्मेन्द्र ने देखा कि वह अकेला विकलांग नहीं है, बल्कि उस जैसे और बच्चे भी विकलांग हैं और धर्मेन्द्र ने अपनी इस विकलांगता को खुशी से कबूल ही नहीं किया बल्कि उन्होंने इसको एक बड़ी चुनौती के तौर पर लिया, क्योंकि जिस स्कूल में उनको विद्यार्थियों के तानों का शिकार होना पड़ा था, अब धर्मेन्द्र ने यह पक्का इरादा बना लिया कि वह विकलांग होकर भी वह करेगा, जो वह विद्यार्थी भी नहीं कर सकेंगे, जो उनको ताने देते थे और मज़ाक उड़ाते थे। स्कूल में ही विकलांगों के लिए फिजियोथैरेपी के विशेषज्ञ डा. बी.के. डबास जो स्कूल में धर्मेन्द्र जैसे विद्यार्थियों को फिजियोथैरेपी करवाने के साथ-साथ उनके अंदर कुछ नया कर सकने का जज्बा भी भरते और प्रो. बी.के. डबास की ओर से मिले हौसले और लोगों के तानों की चोट ने धर्मेन्द्र के अंदर ऐसा हौसला भरा कि उनका मन उड़ने लग पड़ा। डा. बी.के. डबास ने धर्मेन्द्र में ऐसी लगन देखी तो उन्होंने धर्मेन्द्र को तैराकी करने की सलाह दी लेकिन धर्मेन्द्र सोचता था कि वह तो विकलांग है, तैराकी कैसे कर सकता है? लेकिन डा. बी.के. डबास की चाहे पारखी आंखें कहें या फिर धर्मेन्द्र की कुछ कर सकने की चाहत। उन्होंने विकलांग होकर ऐसा गोता लगाया कि आज वह अंतर्राष्ट्रीय गोता तैराक हैं। वर्ष 2009 में पहली स्टेट चैम्पियनशिप में हिस्सा लिया तो 50 मीटर फ्री स्टाइल तैराकी में कांस्य पदक अपने नाम करके अपने राज्य का नाम ही नहीं चमकाया, अपितु बचपन में ताने मारने वालों के लिए उन्होंने यह साबित कर दिखाया कि उन्होंने वो कर लिया है, जो वह सम्पूर्ण होकर भी ज़िन्दगी में ऐसा नहीं कर सकेगा और धर्मेन्द्र अहीरवार ने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा और वह आगे ही बढ़ते गये। धर्मेन्द्र अहीरवार अब तक नैशनल स्तर पर पैरा ओलम्पिक में अपनी चौथी कैटागरी में 50 मीटर, 100 मीटर फ्री स्टाइल और ब्रेक स्ट्रोक में 12 स्वर्ण पदक, 5 रजत और एक कांस्य पदक अपने नाम कर चुके हैं।मध्य प्रदेश के ऐतिहासिक शहर ग्वालियर में 22 अप्रैल, 1992 को पिता बलराम अहीरवार के घर माता रेखा अहीरवार की कोख से जन्मे धर्मेन्द्र अहीरवार की इस बहुमूल्य उपलब्धियों के कारण प्रदेश सरकार ने उनको दिसम्बर 2017 में बहुत ही प्रतिष्ठित अवार्ड विक्रमस्टेट अवार्ड से सम्मानित किया। मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने उनको सम्मानित करने के साथ-साथ एक लाख की नकद राशि और एक नौकरी के लिए भी चुना। धर्मेन्द्र अहीरवार ने वर्ष 2009 में बंगलौर में हुए आई.वास वर्ल्ड खेलों में 50 मीटर बैक स्ट्रोक में अपनी कैटागरी में स्वर्ण पदक जीत कर पूरे भारत का नाम ऊंचा किया है और धर्मेन्द्र अब आने वाले एशिया खेलों और पैरा ओलम्पिक में भारत का तिरंगा लहराने की तैयारी में जुटे हैं। धर्मेन्द्र कहते हैं कि एक वह विकलांग थे और एक वह घर से बेहद गरीब लेकिन उनके हौसले और दलेरी ने कभी उनको डगमगाने नहीं दिया और उनकी इच्छा है कि वह अपने क्षेत्र में पूरे भारत का नाम चमकाएंगे। धर्मेन्द्र के जज्बे को सलाम।