मंगल पर बस्ती बसाने की ओर दुनिया

अमरीका ने फॉल्कन हेवी नामक सबसे बड़ा रॉकेट अंतरिक्ष की यात्रा पर भेजा है। यह शक्ति और आकार के साथ ज्यादा भार उठाने में भी समर्थ है। अमरीकी स्पेस निजी कंपनी ‘स्पेसएक्स’ का यह रॉकेट दुनिया को यह दर्शाता है कि मंगल ग्रह की यह यात्रा व्यावसायिक रूप ले रही है। हालांकि फिलहाल यह उड़ान बतौर परीक्षण है, लेकिन सफल हो जाती है तो इससे कारोबारी दिशा का तय हो जाना संभव है। इसीलिए इस रॉकेट में टेस्ला कंपनी की इलेक्ट्रिक स्पोर्टस कार भेजी गई है। वरना, तेज गति से चलने वाली ‘रोडस्टर’ मॉडल कार का उपग्रह की तरह मंगल ग्रह पर भेजने का कोई और औचित्य नहीं है। मंगल का रंग लाल माना जाता है, इसलिए कार भी लाल रंग की भेजी गई है। इसके की-बोर्ड पर लिखा है, ‘डोंट पैनिक’ यानी ‘डरें नहीं’। साथ ही यह भी लिखा है कि ‘इसे धरती पर मनुष्यों ने बनाया है।’ संभव है, यह इसलिए लिखा हो कि कोई पराग्रही (एलियन) इसे देखे, पढ़े और जवाब दे। किंतु इसकी संभावना कम ही है। दरअसल अब तक जितने भी रेडियो संदेश एलियन के लिए भेजे गए हैं, उनमें से किसी का उत्तर नहीं आया है। यह जरूरी नहीं कि एलियन अंग्रेज़ी जानते हों, इसलिए हिंदी, संस्कृत एवं तमिल में भी संदेश भेजे गए, लेकिन उत्तर नहीं मिले।    मंगल अभियान प्रकृति के खगोलीय रहस्य के बंद दरवाजों को खोलने के अभिनव प्रयास हैं। इसे नई धरती पर मानवीय जीवन की संभावनाओं की तलाश के रूप में देखा जा रहा है, जिससे धरती पर जगह कम पड़ने पर नई आबादियां मंगल ग्रह की पृथ्वी पर बसाई जा सकें। वैसे भी स्पेसएक्स और टेस्ला निजी कंपनियां हैं। ये नासा, इसरो या फिर रूस की रॉसकॉस्मॉस की तरह सरकारी धन से चलने वाली कंपनियां नहीं है। इस लिहाज़ से स्पेसएक्स का मकसद अंतरिक्ष में बस्ती बसाना और उसकी सैर कराना ही हो सकता है। यह इसलिए भी संभव है, क्योंकि फिलहाल दुनिया की अबादी 6 अरब 7 करोड़ है। संयुक्त राष्ट्र के एक आकलन के अनुसार 2050 तक दुनिया की आबादी 9 अरब 20 करोड़ हो जाएगी। ऐसे में इस जन-समुद्र का वर्तमान पृथ्वी की गोद में समाना मुश्किल होगा। यथा, भारत समेत दुनिया के वैज्ञानिक मंगल व चन्द्रमा समेत ब्रह्माण्ड के अन्य ग्रहों पर मानव जीवन के अनुकूल वायुमण्डल के शोध में लगे हैं,जिससे बड़ी आबादी को नई धरती पर आवास और आहार की अतिरिक्त सुविधाएं हसिल हो सकें।हालांकि भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के पूर्व प्रमुख जी माधवन मंगल पर मानव बस्तियां बसाए जाने की उम्मीदों को कोरी कल्पना की उड़ान मानकर चल रहे हैं। उनका कहना है कि मार्स रोवल के आकलन के आधार पर नासा की ओर से सार्वजनिक तौर पर यह दावा किया जा चुका है कि मंगल पर पानी और मीथेन गैंसें न होने के कारण जीवन की रत्ती भर भी उम्मीद नहीं है। लिहाजा ये कोशिशें मूखर्तापूर्ण हैं। नए वैज्ञानिक अनुसंधानों का उपहास उड़ाना कोई अनहोनी बात नहीं है। गैलिलियों ने अपने प्रयोगों से जब यह सिद्ध किया कि पृथ्वी आयताकर न होकर गोल आकृति में है,तब यह बात ईसाई धर्मावलंबियों को नहीं पची और उन्हें नास्तिक ठहराकर अपमानित किया गया। यही हश्र महान वैज्ञानिक कोपरनिक्स का हुआ। 
दरअसल ईसाई धर्मावलंबियों की मान्यता थी कि पृथ्वी घूमती नहीं है और न ही सूर्य की परिक्रमा करती है। अलबत्ता सूर्य ही पृथ्वी की परिक्रमा करता है। नव खगोल शास्त्री कोपरनिक्स ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया था कि पृथ्वी पूरब से पश्चिम की ओर भ्रमण करती हुई सूर्य का चक्कर काटती है। तब जैसे आसमान टूट पड़ा। इस सिद्धांत का जबरदस्त विरोध हुआ। कोपरनिक्स पर मान्यता बदलने का दबाव डाला गया। किंतु वे अपनी मान्यता पर अडिग बने रहे। हालांकि कोपरनिकस से पूर्व भारतीय खगोल वैज्ञानिक आर्य भट्ट ने इसी सिद्धांत की खोज कर ली थी। और भारत ने इसे कमोवेश स्वीकार भी कर लिया था।
 सक्षम दूरबीनों का आविष्कार होने के बाद ग्रहों का अवलोकन किया गया तो पता चला कि ग्रह अजूबे रहस्य नहीं हैं और न ही ये देवताओं के आवास स्थल हैं, बल्कि धरती के समान तत्वों वाले हैं। ये जानकारियां हासिल होने के बाद खगोलविज्ञानी नई दिशा की ओर प्रेरित हुए। फलस्वरूप 1784 में ब्रिटिश खगोल शास्त्री विलियम हरशेल ने मंगल पर मौजूद श्वेत-शाम धब्बों का अघ्ययन किया और उन्हें बादल तथा वाष्प बताया। हरशेल ने निष्कर्ष निकाला कि मंगल पर वायुमण्डल था और यदि यहां लोग रह रहे हैं तो वे हमारी ही परिस्थितियों जैसे हालात में रह रहे होंगे ? इस कड़ी को 1877 में इतावली खगोल विज्ञानी जिओवानो शिआपारेली ने आगे बढ़ाया। उन्होंने अपनी नवीनतम दूरबीन में मंगल ग्रह का परीक्षण करके परिणाम दिए कि मंगल पर जो छायादार भूखंड हैं, उनमें नालियों की ऐसी सरंचनाएं दिखाई दी हैं, जो मानव निर्मित लगती हैं।